भारत को आपातकाल में झोंकने वाली इंदिरा गांधी के नाती राहुल गांधी विदेशों में जा कर इस बार भारत की निंदा करने के साथ साथ ये भी बता रहे हैं कि उन्होंने ‘मुहब्बत की दुकान’ लगाई हुई है। वो अपनी और अपने परिवार की ‘मुहब्बत की दुकान’ की मार्केटिंग के साथ ये बताना नहीं भूल रहे कि भारत में मोदी सरकार ने नफ़रत बाँटने का काम किया है। दूसरों की निंदा करने में यही सुख होता है। किसी व्यक्ति, देश या समाज की इतनी निंदा की जाए कि आप ख़ुद ही भले मानुष नज़र आने लगें।
जब राहुल गांधी विदेशों में मुहब्बत की दुकान की बात कर रहे हैं तब उन्हें शायद ही ये ध्यान रहता हो कि उनके परिवार ने भारत के लोगों पर, राजनेताओं पर, आंदोलनकारियों पर किस क़िस्म के अत्याचार किए थे।
इसके लिए भारत के इतिहास के उस दौर में जाना आवश्यक है, जब राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल में झोंक दिया था। मीसा जैसे क़ानूनों के तहत अवैध गिरफ़्तारियाँ की गईं।
मीसा: आजाद भारत का सबसे घिनौना क़ानून जिसका इंदिरा गांधी के आपातकाल में इस्तेमाल हुआ
आज़ाद भारत के सबसे कुख्यात क़ानूनों में से एक मीसा कानून साल 1971 में लागू किया गया था लेकिन इसका इस्तेमाल आपातकाल के दौरान कांग्रेस विरोधियों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डालने के लिए किया गया। सत्याग्रहियों को पुलिस थाने में कई दिनों तक बिना FIR और बिना क़ानूनी सुविधा के बिठाए रखा गया।
भारतीय राजनीति के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद काल था और भयावह भी। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक की 21 महीने की अवधि के आपातकाल के दौरान राजनेताओं से ले कर स्कूल-कॉलेज में पढ़ने और पढ़ने वाले छात्रों तक को भी नहीं छोड़ा गया।
राजनीतिक क़ैदियों का उत्पीड़न
नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम से ली गई एक किताब ‘Torture of Political Prisoners in India’ में देशभर के उन तमाम क़िस्सों को रखा गया था जिन पर आपातकाल के नाम पर पुलिसिया बर्बरता बरसाई गई। ये सब इंदिरा गांधी के इशारों पर और उन्हीं के आदेश से हो रहा था।
ऐसे ही कुछ क़िस्सों का ज़िक्र इस किताब से मिलता है। जैसे – अस्सी साल के पूर्व पीएम मोरारजी देसाई को जेल में डाल दिया गया। उनकी बहू को हाईकोर्ट के पास जान पड़ा ताकि वो उन्हें मिल सके।
संसद के क़रीब 34 सदस्यों को जेल में डाल दिया गया था। सांसदों से संसद में भी बयान को जनता के पास पहुँचने से रोक दिए गए और पत्रकारिता पर सख़्त पहरे लगा दिए गए।
इस पुस्तक में एक ‘स्वतंत्रता सेनानी’ के हवाले से लिखा गया है कि जब सही समय होगा उस वक्त ये सारे क़िस्से ख़ुद ही सामने आ जाएँगे लेकिन अभी इनका लिखा जाना आवश्यक है। विभिन्न राज्यों की लोक संघर्ष समिति ने उन पर हुए अत्याचारों की जानकारी सामने रखी थीं।
सत्याग्रहियों के शोषण के कुछ अमानवीय तरीक़े इस प्रकार से हैं। सत्याग्रहियों को उठा लिया जाता था और उन पर अत्याचार किए जाते थे। इसके बाद उनके साथ कुछ इस क़िस्म का सलूक किया जाता था। जैसे-
- फ़ौजी बूटों से उनके नंगे शरीर को रौंदना
- पैर के तलुओं पर लाठियाँ मारना
- कांस्टेबल डंडे पर बैठकर पैर की हड्डियों पर लाठी घुमाता था
- पीड़ित को घंटों तक Z की पोजीशन में बिठाया जाता था
- रीढ़ की हड्डी पर हमला करना
- कानों पर थप्पड़ मारना जब तक वो बेहोश ना हो जाते
- रायफल के बट से मारना
- सिगरेट से जलाना, सत्याग्रहियों को नंगा कर बर्फ पर बिठाए रखना
- क़ैदियों को ख़ाना और पानी ना देना और उन्हें अपनी पेशाब पीने पर मजबूर करना
- हथेलियों को बांधकर हवा में लटकाए रखना
- पीड़ितों को हवाई जहाज़ की तरह लटकाकर उन पर लाठियाँ बरसाना
इस टॉर्चर में क़ैदी के हाथ उसकी पीठ पर बांधकर उसे छत पर रस्सी से लटकाया जाता था और फिर उसे खींचा जाता था। ये काम दस से बारह कांस्टेबल मिलकर करते थे।
पुस्तक में देशभर के विभिन्न इलाक़ों से इन घटनाओं को रखा गया है। पहला शहर है –
हैदराबाद
१- नरसिंह रेड्डी नाम के सत्याग्रही के कानों पर इतनी बार थप्पड़ मारी गई कि उनके कानों से खून निकलने लगा।
नवम्बर 18, 1975 को हैदराबाद के सत्याग्रह के लीडर अशोक, एक छात्र राजवर्धन को इतना मारा गया कि उन्हें खून की उल्टियाँ होने लगीं।
अक्तूबर 07, 1975 के दिन करीमनगर ज़िले से 7 लोग अरेस्ट किए गए। उन्हें बुरी तरह से मारा गया। उनके कपड़े उतारकर उनके शरीर पर जलता मोम डाला गया, इसके बाद जब उन्हें अस्पताल ले ज़ाया गया तो डॉक्टर तक इस से भयभीत हो गये थे।
नालगोंडा
गोपी नाम के सत्याग्रही को पुलिस कस्टडी में इतना मारा गया कि वो इसके बाद पेशाब नहीं कर पाए। उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। सुरेश रेड्डी को CID ऑफिस में पीटा गया।
दिसंबर 08 को 33 लोगों को तीन दिन तक पुलिस हिरासत में रखा गया। इनमें से 12 साल के एक बच्चे को SI बद्री राय ने पीटकर अधमरा कर दिया था।
विशाखापत्तनम
एराजी को पुलिस ने दीवारों पर नारे लिखने के अपराध में बिजली के झटके दिए।
बेलगाम
- सत्याग्रही चिनप्पा को 30 नवम्बर के दिन ‘हवाई जहाज़’ वाली यातना दी गई। ये थर्ड डिग्री यातना थी, जिसमें पूरा शरीर बुरी तरह से ज़ख़्मी होता है, चिनप्पा बेहोश हो गए थे।
- हुबली में भी एक लॉ के छात्र श्रीकान्त देसाई को ‘हवाई जहाज़’ वाली यातना दी गई।
- श्री पद्मनाभ हरिहर और पुट्टू स्वामी को भूखा रखा गया और उन्हें भी हवाई जहाज़ की तरह टांगकर पीटा गया। उन्हें जूतों से पीटा गया
मैसूर
स्टूडेंट सत्याग्रहियों के लीडर रवि को पुलिस द्वारा पीटा गया और उन्हें हवाई जहाज़ की तरह लटकाए रखा गया।
बेंगलूर
नेशनल कॉलेज ले स्टूडेंट लीडर को पुलिस स्टेशन में बुरी तरह पीटा गया। उन्हें भी थर्ड डिग्री टार्चर के लिए लटकाकर हवाई जहाज़ के रूप में पीड़ित किया गया।
बेंगलुरु के ही एक अन्य मामले में नरसिम्हा गरुड़प्पा, जो कि गर्भवती भी थीं, उन्हें अस्पताल में रखा गया था लेकिन उसके पैर बिस्तर से बांध दिए गए थे।
सेशा नाम की महिला के शरीर पर ज़हरीले कीड़े रेंगने को छोड़ दिए गए थे।
लॉरेंस फर्नांडीस
लॉरेंस को दी गई यातनाएँ आपातकाल की सबसे बुरी यादों में से एक कही जा सकती हैं। उन्होंने आयोग से शिकायत की थी कि उन्हें 1 मई, 1976 को दो पुलिसकर्मी, इंस्पेक्टर नारायण राव और कर्नाटक पुलिस, बैंगलोर के गुप्तचरों के कोर के एक अन्य अधिकारी द्वारा उनके घर से ले जाया गया था। इसके बाद उसके भाई जॉर्ज फर्नांडीस के ठिकाने के बारे में पूछताछ की गई और जब वह पुलिस को जवाब नहीं दे पाए तो 8 से 10 पुलिसकर्मियों ने उन पर हमले शुरू किए।
जॉर्ज फर्नांडीस के भाई लॉरेंस को उनके बेंगलुरु आवास से उठा लिया गया। उन पर अमानवीय अत्याचार किए गए। उनके साथ थर्ड डिग्री टार्चर किए गए और वो भी सुबह के तीन बजे से।
लॉरेंस को बरगद के पेड़ की जड़ों से बनाए गई लाठियों से पीटा जाता था, उनमें से पीट-पीटकर पाँच तोड़ दी गईं। लॉरेंस को ये कहकर पुलिस धमकाती थी कि अगर उन्होंने जॉर्ज का पता नहीं दिया तो वो उन्हें रेल की पटरियों पर मारने के लिए छोड़ देंगे और किसी को कोई सबूत तक नहीं मिलेगा।
असल में वो ऐसी तैयारियाँ कर भी रहे थे। उन्हें 20 मई तक बेहद आपत्तिजनक अवस्था में अलग-अलग जगहों पर रखा गया। लॉरेंस बेहोश थे, उनकी मानसिक स्थिति के साथ-साथ उनका नर्वस सिस्टम भी बिगड़ गया।
बीस दिनों की यातनाओं में उन्हें रखा गया। उन्हें नहाने नहीं दिया और ख़ाना भी नहीं दिया। बीच बीच में पुलिसकर्मी उन्हें अस्पताल इलाज के लिए ये कहकर ले जाते कि ये पुलिस अधिकारी हैं। वो ऐसा उनकी पहचान डॉक्टर से छिपाने के लिए करते थे।
21 मई को कई याचनाओं के बाद लॉरेंस की माँ को उनसे मिलने दिया गया। उन्होंने बताया कि वो एकदम मृत अवस्था में थे। दो लोग उन्हें उठा रहे थे। उनके शरीर का बायाँ हिस्सा काम नहीं कर रहा था, उनके बाएँ हाथ और पैर में सूजन थी। बीस दिन में उनके शरीर का बीस किलो वजन कम हो गया था। लॉरेंस की माँ ने बताया कि उनकी मानसिक हालत ऐसी हो गई थी कि वो खाकी वर्दी वालों को देखकर या फिर पुलिस के बूट देखकर भयभीत हो जाते।
शिवमोगा
कर्नाटक के शिवमोगा में आपातकाल का विरोध कर रहे छात्रों पर दो बार लाठी चार्ज किया गया। ऐसा ही चिकमंगलूर में भी प्रदर्शनकारी भीड़ के साथ किया गया।
केरल
कम्युनिस्ट-कांग्रेस द्वारा शासित केरल के ही हरिपद में अगर किसी को चौबीस घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के पास पहुँचाया जाता तो ये उसकी क़िस्मत मानी जाती थी। सत्याग्रहियों को नंगा कर पीटा जा रहा था। पुलिस स्टेशन में ही लोगों को पाँच दिन तक भूखा रखा गया। गोपाल कुरीप को चार दिन तक जेल में भूखा रखा गया और फिर सड़क पर छोड़ दिया गया। वो एक कदम भी चलने की हालत में नहीं थे। उन्हें वहाँ पर कुछ लोगों ने घर पहुँचाने में मदद की।
कुन्नूर
नवम्बर 14, 1975 को कुन्नूर का लाठी चार्ज बेहद डरावना था
बारह सत्याग्रहियों को लाठी टूटने तक पीटा गया, वो बेहोश हो गए। इसके बाद उनके लीडर को फिर से पीटा गया। एक पुलिस कांस्टेबल को वहाँ पर सिर्फ़ इसलिए रखा गया ताकि वो वहाँ मौजूदो लोगों को उनकी मदद करने से रोक दिया गया। कांस्टेबल ने भी कई बार बेसुध पड़े व्यक्ति की नाक पर अपना हाथ ये पता करने के लिए रखा कि वो अभी तक जीवित है या नहीं। इसके बाद एक वकील ने उसे अस्पताल पहुँचाने में उसकी मदद की।
नवम्बर 16, 1975
वासु और प्रभाकरण नाम के दो किसानों के पास कांस्टेबल गया। उसने उनसे कहा कि पुलिस अधिकारी ने उन्हें बुलाया है। दिन में तीन बजे वो थाने पहुँचे लेकिन आठ बजे तक उन्हें बिठाए रखा। उन्हें सोने के लिए कुछ दिया गया।
रात के ग्यारह बजने पर हाथ में टोर्च लिए शराब के नशे में एक कांस्टेबल आता है और उनका नाम ज़ोर से चिल्लाता है। जैसे ही वो नींद से जागते हैं उनके सर पर वही टोर्च से हमला होता है और उन्हें लातें मारी जाती हैं।
उनसे कुरुक्षेत्र पत्रिका के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। प्रभाकरण के सीने पर रायफल के बट से पीटा जाता है। दस दिनों तक उन्हें भूखा रखकर सिर्फ़ पीटा गया।
एर्नाकुलम
कोचीन में पुरुषोत्तम पाई सत्याग्रहियों के साथ ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे लगा रहे थे। उन्हें पुलिस ने वेन में बैठने को कहा, पुलिस ने दो पंक्तियाँ बनाई हुई थीं। जैसे ही वो वेन में चढ़ने लगे, उनकी पीठ पर घुटनों से वार किया गया। उन्हें दस से बारह कांस्टेबल ने घेर लिया और वो उन्हें कंधों से पकड़कर उन पर हमला करने लगे। उन्हें झटके से छोड़ दिया जाता और वो मुँह के बल सड़क पर गिर जाते। वो जब गिरते तो उनके कान खींचकर उन्हें उठाया जाता और थप्पड़ मारे जाते। बारी बारी से इन सबके साथ ये अत्याचार दोहराया गया।
अब आते हैं डिब्रूगढ़ पर
पुलिसिया बर्बरता से डिब्रूगढ़ भी अछूता नहीं रहा। नवम्बर 21, 1975 को मंजु डे, योगेश्वर शर्मा, सुभाष का, लक्ष्मण प्रसाद, ज्योति गोगोई, विमला खेमका, को पुलिस ने टार्चर किया।
गुवाहाटी
अगस्त ,1975 में रबीन कलीता, जो कि सीपीआई(एम) के बड़े कार्यकर्ता थे, उन्हें मीसा के तहत गिरफ़्तार किया गया। उन्हें जब अस्पताल में भर्ती किया तो उनकी हालत बदतर हो चुकी थी। उनके क़रीबियों को भी उनसे नहीं मिलने दिया। यहाँ तक कि अस्पताल में भी उनके इलाज के वक्त उनके हाथ बांध कर रखे गये और उसी हालत में उनकी मौत भी हुई।
- बीकानेर में 16 से 17 साल की उम्र के सत्याग्रहियों को बिजली के झटके दिये गए।
- जोधपुर में तो उत्पीड़न की हद तब हो गई जब वहाँ पर लोगों को ‘हम ग़द्दार हैं’ की तख़्तियों के साथ शहर में घुमाया गया।
दिल्ली
हेमंत कुमार बिश्नोई, दिल्ली यूनिवर्सिटी यूनियन के सेक्रेटरी, को तब अरेस्ट कर लिया गया जब वो बुद्ध पार्क में थे। हेमंत को पुलिस ने उल्टा लटका कर लाठियों से पीटा, उसके तलवों पर पिघलता मोम डाला, नाक और मलद्वार में मिर्च डाली गई।
पुलिस उनसे उगलवाना चाह रही थी कि वो इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ साज़िश कर रहे हैं। जब उन्होंने यह बात स्वीकार नहीं की, आख़िरकार पुलिस ने हार मानी। इसके बाद उन्हें राजेंद्र नगर पुलिस स्टेशन ले ज़ाया गया और FIR रजिस्टर की गई। जब हेमंत की माँ उनसे किसी तरह मिल पाई तो उनका पूरा शरीर सूज रखा था। वो उन्हें पहचान भी नहीं पाई।
ऐसा ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र महावीर सिंह के साथ किया गया और शिव कुमार के साथ भी किया गया।
सत्य प्रकाश को हौज़ ख़ास पुलिस ने उठाया। जब उनसे कुछ जानकारी नहीं मिली तो उन्हें पुलिस के बड़े अधिकारियों को सौंपा गया। उनके कपड़े उतरवाए गये, उन्हें नंगा कर ज़मीन पर बिठाया, तलवों पर रॉड से हमले किए गए।
आख़िर में उन्हें लोहे की ज़ंजीर से बांधकर पंखे से लटका दिया गया, जब वो घूमते तो उन पर लाठियाँ बरसाई जाती, आख़िरकार उन्हें तब रोका गया जब उन्होंने अपने एक दो साथियों के नाम बताए। उन्हें उनके साथियों के घर ले ज़ाया गया लेकिन वो घर पर नहीं थे। घर पर जो महिलाएँ थीं उन्हें गालियाँ दी गईं।
महज़ 21 साल के सत्याग्रही ओम प्रकाश के साथ भी यही किया गया। उन्हें दो दिन तक सोने भी नहीं दिया। ये घटना 25, 26, 27 नवम्बर की है। उनकी गर्दन पर हमले किए और लाठी से उसे बांध दिया। बाद में उन्हें दो दिनों तक एक स्ट्रेच पर खड़े रखा गया।
पुलिस का मक़सद इनके साथियों के नाम निकलवाना था। अश्विनी कुमार को थाने में ज़मीन पर लिटाया गया और कांस्टेबल दिवाकर से फ़ौजी बूटों के साथ उसकी छाती पर नाचने को कहा गया।
JNU के सिख छात्र से बर्बरता
जून 23, 1976 के दिन जेएनयू के एक सिख छात्र जसबीर सिंह ने अपने पर हुई अत्याचार के बारे में बताया। उन्हें पुलिस उठाकर ले गई, सब इंस्पेक्टर टेक चंद उन्हें एक कमरे में ले गये और उन्हें चप्पलों से पीटा, एक पुलिसकर्मी ने उनकी गर्दन भी दबाई, ये सब सिलसिला शाम छः बजे से रात तक चला।
इस अत्याचार के बाद दूसरे दिन उनके हाथ और पैर एक बड़े डंडे से बांध दिये गये। ये डंडा दो कुर्सियों पर टिका हुआ था इसके बाद उन्हें झुलाया गया जिससे उन्हें खून की उल्टियाँ हुईं। पुलिस उन्हें धमकियाँ देती रही कि अगर उन्हें यमुना नदी में भी बहा दिया तो किसी को कुछ खबर तक नहीं लगेगी।
27 जून के दिन जसबीर के साथ फिर यही किया गया।इस बार उसकी दाढ़ी के बाल खींचकर उसे टॉर्चर किया गया। उन्हें हिरासत के 6 दिनों तक नहाने नहीं दिया गया और सोने भी नहीं दिया गया। उनका शरीर सुन्न पड़ गया था और उन्हें मेडिकल सहायता भी नहीं दी गई।
यमुना नगर
सत्यपाल और पवन कुमार को हरियाणा के यमुनानगर से नवम्बर 1975 को उठाया गया। पुलिस ने उन्हें पीटा और लातें मारी।
अंबाला
पाँच सत्याग्रहियों को जो जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रदर्शन कर रहे थे, उनमें से एक स्थानीय हाई स्कूल के टीचर भी थे। नवम्बर 23, 1975 के दिन उन्हें पकड़ा गया, 29 नवम्बर के दिन कोर्ट में ले जाने से पहले, 24 नवम्बर की रात उन्हें सड़क किनारे नंगा किया गया। सर्दी की रात ठंडे पानी से भरी बाल्टियाँ उनके शरीर पर डाली गईं।
वो और उनके साथियों को सोने नहीं दिया गया। 28 नवम्बर को उन्हें रस्सी से एक रिक्शे से बांध दिया गया। चेहरे पर कालिख पोती गई, इसके बाद उन्हें पूरे शहर में घुमाया गया और इस दौरान पुलिसकर्मी उन्हें पीटते भी रहे।
करनाल में भी चार सत्याग्रही पकड़े गये और उन्हें ज़मीन पर नंगा लिटाकर उनके शरीर पर पुलिस कर्मी कूदते रहे।
इलाहाबाद
अब बारी थी इंदिरा गांधी के उत्तर प्रदेश की जहां के रायबरेली की वो संसद भी रहीं। दिसंबर 23, 1975 के दिन शारदा प्रसाद तिवारी और उनके साथियों को पुलिस द्वारा पीटा गया। उनके एक साथी सुखकरण को छः दिनों तक अस्पताल में ऑक्सीजन की मदद पर रखना पड़ा।
इलाहाबाद में ही इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल राजपति पांडेय को उठाकर पुलिस स्टेशन ले ज़ाया गया। उन्हें घुटनों पर बिठाकर छड़ी से पीटा गया। उनके साथ चार और सत्याग्रही भी थे। इन सभी के तलवे कई दिनों तक सूजे रहे।
29 दिसंबर के दिन सुरेंद्र कुमार और उनके साथी सत्याग्रह कर रहे थे। उन्हें थाने में बंदी बना लिया गया। सिटी पुलिस के मुखिया वहाँ कांस्टेबल के साथ पहुँचे। वहाँ सत्याग्रहियों को बुलाकर उन्हें पीटने के आदेश दिए गए। सुरेंद्र कुमार की हथेली पर लाठियों से हमले किए गये। वो बेहोश हो कर गिर पड़े। तब भी कांस्टेबल उनको पीटते रहे। उनकी हथेली से खून बह रहा था और हाथों के नाखून टूट गए थे।
इसके बाद उनकी एड़ी पर चोट की गई और उसके घाव काफ़ी समय तक उनके सहर पर नज़र आते रहे। कुछ लोगों ने नाखून ऐंठे गये या फिर खींच लिये गये।
कानपुर
नवाबगंज स्टेशन की पुलिस ने सत्याग्रही ओम नारायण त्रिपाठी की उँगलियाँ कुर्सी के नीचे रखीं। इसके बाद कुर्सी से उनकी उँगलियों को मसला गया और उनकी उँगलियाँ फ़्रैक्चर हो गईं। यही बर्बरता अन्य लोगों के साथ भी की गईं।
नांदेढ़ में लोगों को हाथ बांधकर उनकी परेड करवाई गई। DSP और अन्य पुलिसकर्मी उन पर बेल्ट से भी हमला कर रहे थे। कॉलेज के ये छात्र बेहोश होकर गिर पड़े। CID के अधिकारियों को उनसे जो जवाब निकलवाने थे वो उन्हें नहीं मिले क्योंकि भास्कर को कोई जानकारी ही नहीं थी। इसके बाद भास्कर को जमीन पर नंगा लिटाया गया और उन्हें वैसे ही सुलाया गया। एक अन्य छात्र लक्ष्मण कुलकर्णी से भी शहर में परेड करवाई गई।
नटू नाम के एक और सत्याग्रही के हाथ बंधे गये और उनके पेट पर लातें मारी गईं, उन पर दबाव बनाया जा रहा था कि वो अपनी राजनीतिक पार्टी छोड़ दें। सत्याग्रही बस्वेश्वर को भी इसलिए पीटा गया क्योंकि उन्होंने आपातकाल पर एक कार्टून बनाया था।
नागोथाने
दिसंबर के माह एक स्कूल टीचर मधुसूदन भाटे को चार दिन के लिए बंदी बनाया गया। उनसे आरएसएस के बारे में जानकारी पूछी गई लेकिन उन्हें इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। उनका चश्मा छीन लिया गया और वहाँ खड़े आठ-दस कांस्टेबल ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया।
उन पर जूतों से भी हमला किया जया। उनका सर दीवार पर पटका गया जिससे उन्हें खून भी बहने लगा। जब वो वहाँ से निकल रहे थे तो उन्होंने पुलिस को ये कहते सुना कि उन्हें हर तरह की बर्बरता करने की आज़ादी मिली हुई है।
शाम को पुलिस ने फिर उनका चश्मा छीना, उनकी जाँघों पर लाठियाँ रखी और उस पर कूदते रहे, असहनीय दर्द के बाद भी वो उन्हें कुछ नहीं बात सके क्योंकि उन्हें इसकी कोई जानकारी थी ही नहीं।
NEWASE
विकास और मोहन पर पुलिस ने आरोप लगाए कि उन्होंने शहर में पोस्टर लगाए। CID के अधिकारियों ने उनके हाथ बांधकर उनके पेट पर लातें मारी, उन्हें चप्पल से पीटा वो अधमरा हो गया लेकिन पुलिस उनसे सवाल करती रही।
पूणे
23 साल के सत्याग्रही रत्नाकर पर पुलिस ने तीन साल की क़ैद और 500 रुपए का फाइन लगाया। रत्नाकर को पुलिस ने रातभर थाने में पीटा, उनकी गर्दन पर हमले किए गये। उन्हें एक टायर से बांधा गया और उल्टा लटका दिया गया। इसके बाद रत्नाकर पर हमले किए। उनके शरीर के बाल खींचे गये ये सिलसिला पूरी रात चला और फिर अगले दिन भी उन्हें पीटा गया।
मुंबई
दिसंबर 1975 को महाराष्ट्र की एक समाजवादी नेता मृणाल गोरे को एक छोटी सी जेल में क़ैद किया गया। मृणाल को दो ऐसी महिलाओं के बीच रखा गया जिनमें से एक कुष्ठ रोगी थी और दूसरी की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। उसके शरीर से बदबू निकलती और वो अजीब क़िस्म की आवाज़ें अपने मुँह से निकालती थी। इन सभी का शौचालय भी एक ही था।
महाराष्ट्र में भी राजनीतिक बंदियों को निर्वस्त्र करना, पीटना और फर्श पर नंगा सुलाना जारी रहा।
गोवर्धन शवानिया को पोस्टर चिपकाने के लिए गाली दी गई और प्रताड़ित किया गया। उसकी पत्नी को भी बुरी तरह पीटा गया। 8-10 दिनों की हिरासत के बाद, अदालत द्वारा जमानत दिए जाने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था, लेकिन उन्हें तुरंत MISA के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
‘मुहब्बत की दुकान’ के कोरे पन्ने बेचने अमेरिका गए हुए राहुल गांधी शायद ख़ुद भी इन तमाम बर्बरताओं से परिचित नहीं होंगे। ये इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान राजनीतिक कैदियों पर अत्याचार और आतंक की वो कुछ कहानियाँ हैं जिन पर शायद ही कहीं बात हुई हो। इंदिरा गांधी ने ना ही स्कूल के छात्रों को छोड़ा, ना ही नागरिक समाज से जुड़े लोगों को और राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को तो बिलकुल भी नहीं।
Torture of Political Prisoners in India
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