कांग्रेस राहुल गाँधी की मुहब्बत की दूकान के अंदर बैठकर लगातार भाजपा पर हमलावर है क्योकि भाजपा और भाजपा के समर्थक इस्लामिक सामाजिक तौर तरीकों और उससे उत्पन्न परिणामों को लेकर मुस्लिम समाज से सवाल पूछ रहे हैं, कांग्रेस के अनुसार जो साम्प्रदायिकता है। कांग्रेस लगातार भाजपा पर लोकतंत्र को दबाने और नष्ट करने का आरोप लगा रही है लेकिन क्या कांग्रेस के इन आरोपों में कोई तथ्य है? अभी-अभी गीता प्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार मिलने की घोषणा होने पर कांग्रेस के प्रोपेगंडा इन चीफ जयराम रमेश ने इसे गोडसे को पुरस्कार देने जैसा बताया, लेकिन अगर जयराम रमेश ऐसे खोजने निकलेंगे तो उस समय का उत्तर प्रदेश का हर कांग्रेसी सांप्रदायिक और हिंदूवादी दिखेगा। जयराम रमेश ने ये भी कहा कि रामजन्मभूमि का ताला खुलवाना कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती थी। जयराम रमेश अपने नेता और पूर्व प्रधानमंत्रियों, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के निर्णयों के कारण उत्पन्न हुए धर्म निरपेक्षता के प्रभावों को स्थापित करने की नाकाम कोशिश कर तो रहे हैं, लेकिन नेहरुवियन धर्म निरपेक्षता मॉडल की नीव पर खड़ी मोहब्बत की दुकान अपने ही अंतर्विरोधों को कब तक संभाल पाएगी?
कांग्रेस और बाकी विपक्ष मोदी सरकार को ऐसा कुछ नहीं कह रहा जो उसने बाजपेयी साहब की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को न कहा हो। हिटलर, फासीवाद, गोडसे भारतीय दक्षिणपंथ को दबाने के पुराने नारे हैं, लेकिन ये भी ऐतिहासिक सत्य है कि नेहरू के पहले भी कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता हिन्दू सभ्यता, हिन्दू राष्ट्र के नारे के नाम पर ही जनता के बीच में समर्थन लेने जाते थे, और सत्य ये भी है कि आज भी दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जमीन पर हिन्दू के नाम पर ही वोट मांग रहे हैं, लेकिन दिल्ली में राहुल गाँधी ने मोहब्बत की दुकान का नारा बुलंद कर रखा है।
क्या मोहब्बत की दुकान लगभग समाप्त हो चुके नेहरूवाद का पुनर्कथन मात्र नहीं है? क्योकि मोहब्बत की दुकान का केंद्र बिंदु धर्म निरपेक्षता ही है, इसलिए ये लेख धर्म निरपेक्षता के भारत की राजनीति में उदय और विभिन्न समयबिंदुओं पर धर्म निरपेक्षता को लेकर समझ का विश्लेषण करने का प्रयास करता है।
धर्म निरपेक्षता का नेहरू मॉडल और गणतांत्रिक भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति का ऐतिहासिक प्रवाह
धर्म निरपेक्ष राजनीति की शुरुआत कांग्रेस की स्थापना के समय ही हो गयी थी। तब नेहरू राजनीति में आये भी नहीं थे लेकिन नेहरू का खुद का धर्म निरपेक्षता का मॉडल था, जिसका आधार धर्म निरपेक्षता की गाँधी की परिभाषा थी, जिसके अनुसार “हिन्दुओं को अगर मुसलमान मार भी देना चाहते हों तो हिन्दुओं को शान से मर जाना चाहिए। गाँधी के आखिरी समय के इस सन्देश को नेहरू ने राज्य के संसाधनों का उपयोग करके भारतीय राज्य की राजनीति में संस्थागत करने का प्रयास किया और इस प्रकार साम्प्रदायिकता को देश की राजनीति का एक सतत मुद्दा बना दिया।
नेहरू ने सफलतापूर्वक इस प्रकार की छवि बनाई जिसमें पाकिस्तान के जन्म को भारतीय उपमहाद्वीप में सांप्रदायिक समस्या के समाप्त होने की तारीख मान लिया गया। अब क्योकि पाकिस्तान बनने के साथ ही समस्या समाप्त हो गयी इसलिए ऊपर उद्धृत किये गए गाँधी के नैतिक उपदेश की मान्यता पर नेहरू ने धर्म निरपेक्षता के मॉडल को स्थापित करके राजनीति करने की कोशिश की। इस प्रकार के दृष्टिकोण ने मूल समस्या का समाधान नहीं किया, बल्कि उसे समाप्त मान लिया।
१८५७ की क्रांति के तुरंत बाद ही सर सैयद ने अलग मुस्लिम राष्ट्र की वैचारिक तैयारी शुरू कर दी थी, जिसमें साम्राज्यवादी ब्रिटिश समान धार्मिक परंपरा से आने के कारण सर सैयद को हिन्दुओं से ज्यादा स्वीकार्य थे। भारत में लोकतान्त्रिक संघर्ष करके सम्प्रभु गणतंत्र प्राप्त करने तक के सफर की सफलता का एकमात्र कारण हिन्दुओं में साथ रहने की भावना थी जबकि मुस्लिम पक्ष प्रारम्भ से ही लोकतंत्र से अलग व्यवस्था बनाने का तर्क देता रहा। आज भी स्वतंत्र भारत में मुस्लिम सामाजिक जीवन स्वायत्त है, जब तक कि किसी इस्लामिक सामाजिक कानून को किसी न्यायलय में चुनौती न मिले।
यहाँ, ये सवाल प्रासंगिक है कि मुस्लिम जीवन को स्वायत्तता देकर सांप्रदायिक समस्या का समाधान निकला या फिर समस्या जस की तस बनी रही। इस सन्दर्भ में विद्वानों का मत है कि इंदिरा गाँधी से समय में ही नेहरू साहब के महात्मा गाँधी के एक सूक्तिवाक्य पर आधारित धर्म निरपेक्षता मॉडल के अंतर्विरोध खुल कर सामने आने लगे, लेकिन इसका चरम पतन बिंदु राजीव गाँधी के समय में दिखा जिसके बाद नेहरू द्वारा स्थापित और परिभाषित धर्म निरपेक्षता को मुस्लिम तुष्टिकरण मानने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी। “हिन्दू हाथ बाँध कर बैठे रहें” वाली नेहरू साहब के धर्म निरपेक्ष मॉडल में जो मान्यता थी, वह धराशायी हो गयी। नेहरू के समय में ही कश्मीर की समस्या नेहरू मॉडल की उसी मान्यता की उत्पाद थी लेकिन शेष भारत में इस मान्यता पर आधारित धर्म निरपेक्षता को आगे बढ़ाने का पहला बड़ा प्रयोग इंदिरा गाँधी ने किया जब उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को कानून बनाने के अधिकार दिए।
नेहरू की धर्म निरपेक्षता की परिभाषा के अन्तर्निहित विरोध तब और खुल कर सामने आये जब अल्पसंख्यक सिखों पर कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं के नेतृत्व में दिल्ली में कत्लेआम हुए और इसको प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने बड़ा पेड़ गिरने से धरती हिलने जैसी सामान्य घटना बताया। इंदिरा गाँधी के बॉडीगार्ड सिख हैं, ये प्रोपेगंडा दिल्ली के कई अख़बारों और सरकारी रेडियो की सुर्खी बना। इन घटनाओं ने नेहरू के धर्म निरपेक्षता मॉडल को मुस्लिम तुष्टिकरण मॉडल के तौर पर स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
इसके बाद तो कांग्रेस भारत में कभी उबरी ही नहीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल आयोग और राम मंदिर आंदोलन ने चुनावी राजनीति में कांग्रेस को १९९८ आते-आते पूरी तरह से भाजपा के बराबर की पार्टी बना दिया। इन दो घटनाओं के बाद ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इस स्तर तक पंहुचा, जहाँ नेहरू-इंदिरा द्वारा प्रतिपादित धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत और सावरकर द्वारा प्रतिपादित मुस्लिम तुष्टिकरण के सिद्धांत के बीच चुनावी लोकतंत्र में प्रभावी लड़ाई शुरू हुई। १९८९ से ही चुनावी राजनीति में कांग्रेस की फिसलन ऐसी रही कि २००४ के संसदीय चुनाव में कांग्रेस की बीजेपी से सिर्फ एक या डेढ़ दर्जन ही ज्यादा सीटें थी। कांग्रेस ने २००४ में एक प्रगतिशील गठबंधन बनाया जिसका केंद्रीय वादा धर्म निरपेक्षता के साथ विकास था, १० साल बाद २०१४ में कांग्रेस ने गद्दी छोड़ी तो विकास थक चुका था, भ्रष्टाचार के आरोप में न्यायालय कई मंत्रियों को जेल भेज चुका था और धर्म निरपेक्षता रोज बम विस्फोट करवा रही थी।
धर्म निरपेक्षता का भारत में उदय
कांग्रेस के शुरूआती दिनों में धर्म निरपेक्षता की बहस तब शुरू हुई जब कांग्रेस को ब्रिटिश शासन ने सर सैयद से भिड़ा दिया। कांग्रेस के भीतर ही इस प्रश्न पर बहस शुरू हो गयी कि राजनीतिक प्रतीक में धर्म का उपयोग किया जाये या न किया जाये, लेकिन जवाहरलाल नेहरू के पहले किसी को कांग्रेस के अंदर आने से रोका नहीं गया। मजे की बात ये है कि सर सैयद ने इस्लाम और मुस्लिम का प्रश्न उठा कर अंग्रेज की जगह हिन्दुओं को मुसलमानों का दुश्मन बना दिया जो भारत की लोकतान्त्रिक राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव बिंदु है। सर सैयद के इस काम ने अंग्रेजों के हाथ में वो डंडा दे दिया जिससे वो हिन्दू और मुसलमान दोनों में से एक को भी हाँके तो दूसरा अपने आप प्रतिक्रिया दे।
कांग्रेस में भी राजनीति करने के तौर तरीकों को लेकर गरम दल और नरम दल का प्रादुर्भाव हुआ। दादा भाई नौरोजी शुरूआती दिनों में कांग्रेस के दोनों पक्षों में एकता के सूत्रधार बन कर उभरे। वो श्याम जी कृष्ण वर्मा और सावरकर के साथ इंडिया हाउस की मीटिंग्स में भी शरीक हुए और गोपाल कृष्ण गोखले और फ़ीरोज़ शाह मेहता जैसों के साथ ब्रिटिश राजनीतिक संस्थाओं के सदस्य भी रहे। ये वो दौर था जब जर्मन और इतालियन राष्ट्रवाद फासीवाद की धारा में जाने के पहले अपने चरम पर था और सावरकर जैसे लोग इंग्लैंड में भारत की उपनिवेशवाद से मुक्ति के आंदोलन को मुद्दा बनाये हुए थे।
बंगभंग के बाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महाराष्ट्र में, पंजाब में लाला लाजपत राय, उत्तर प्रदेश में मोतीलाल नेहरू, सुरेंद्र नाथ बनर्जी और विपिन चंद्र पाल बंगाल में, जैसे क्षेत्रीय नेताओं का उदय हुआ जिन्होंने उपनिवेशवाद से मुक्ति आंदोलन को पहली बार एक राष्ट्रीय स्वरुप देने का प्रयास किया, जिसे विचार और संगठनात्मक दृष्टि से राष्ट्रीय बनाने का काम महात्मा गाँधी ने पूर्ण किया। गाँधी से पहले कांग्रेस के ये सभी नेता दक्षिणपंथी थे, जिन्होंने क्षेत्रीय कांग्रेस इकाइयों की स्थापना की और उनको सुदृढ़ किया ताकि आने वाले समय में वो एक राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन सकें। इसके अलावा विदेशों में भी दक्षिणपंथी भारतीय सक्रिय थे। इसी दौर में ब्रिटिश को समझ में आ गया कि क्षेत्रीय स्तर के नेता और अंतराष्ट्रीय स्तर पर बैठे भारतीय छात्र हिन्दू विचारों पर एक अंतराष्ट्रीय दक्षिणपंथी आंदोलन खड़ा कर सकते हैं। इसको रोकने के लिए ब्रिटिश ने हिन्दू राष्ट्रवाद के सामने सांप्रदायिक प्रश्न खड़ा किया। सम्प्रदायवाद की भूमिका सर सैयद पहले ही लिख चुके थे और हिन्दू राष्ट्रवाद उफान पर था तो अंग्रेज ने हिन्दू कुलीनों को एक कांग्रेस जैसा मंच दे दिया जहाँ ये आपस में अंग्रेजों के दिए मुद्दे पर बहस करते रहें। साम्प्रदायिकता को मुख्य राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए कांग्रेस के बाद अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग बनायीं और मुस्लिमों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया।
अंग्रेजो ने सांप्रदायिक समस्या को राजनीतिक हवा दी, लखनऊ पैक्ट में कांग्रेस ने तिलक की अध्यक्षता में सांप्रदायिक समस्या को वास्तविकता माना और गाँधी ने पहला सफल हिन्दू-मुसलिम समझौता असहयोग आंदोलन के समय करा कर दिखाया। समय काल परिस्थिति के अनुसार असहयोग आंदोलन के समय के हिन्दू-मुस्लिम समझौते को कैसे देखा पढ़ा और समझा जाये, इस प्रश्न को खुला छोड़ दिया गया, जिस पर असहयोग के बाद के वर्षों में बहस शुरू हुई, जहाँ से नेहरू का धर्म निरपेक्षता का मॉडल निकला।
नेहरू का धर्मनिरपेक्षता का मॉडल
नेहरू के लिए राजनीति की सड़क उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने तैयार की, जिसे नेहरू ने गाँधी की मदद से स्टेट रोड से नेशनल हाई वे बनाया, जिसपर उनकी पीढ़ियां आज तक ओढ़, खा, पहन रही हैं। मोतीलाल नेहरू की राजनीति पर निगाह डालें तो पता चलता है कि मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अंदर ही लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित हिन्दू महासभा के स्थापक सदस्यों में से थे। ये वही हिन्दू महासभा थी, जिसके सदस्य नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या की। नेहरू अपने शुरूआती दिनों में १९२३ से १९२५ तक इलाहबाद के मेयर रहे और इस चुनाव में उनकी उम्मीदवारी इसलिए सुनिश्चित हो पायी क्योकि इलाहाबाद के मुस्लिम कौंसलर्स ने मिलकर पुरुषोत्तम दास टंडन की उम्मीदवारी का विरोध किया। इस घटना ने नेहरू को मुस्लिम वोट बैंक के बारे में दृष्टि जरूर दी होगी और धर्म निरपेक्षता के उनके मॉडल को विकसित करने में मदद की होगी।
ये घटना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योकि ये घटना असहयोग आंदोलन के समय जमीनी स्तर पर बन रहे समीकरणों को रेखांकित करती है। पुरुषोत्तम दास टंडन उसी समय से नेहरू के राजनीतिक विरोधी रहे और विरोध की राजनीति में मूल प्रश्न हिन्दू धार्मिकता का समावेश ही था, लेकिन मुस्लिम पक्ष की मांग को स्वीकार करके राजनीति करने का फायदा-नुकसान नेहरू को प्रारम्भ में ही अपने मेयर चुनाव के दिनों में ही समझ आ गया। राजनीति की जितनी जानकारी है उसके हिसाब से नेहरू ने नहीं तो नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल को जितवाने के लिए अपने रुतबे और पैसे का उपयोग जरूर किया होगा और इस घटना के बाद पुरुषोत्तम दास टंडन जीवन भर, पहले इलाहाबाद में और बाद में दिल्ली में, कांग्रेस के भीतर ही नेहरू के चुनावी विरोधी बने रहे। १९५० के कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में नेहरू के प्रत्याशी जे बी कृपलानी के खिलाफ पटेल के प्रत्याशी पुरुषोत्तम दास टंडन ही थे।
टंडन के अलावा आज के उत्तर प्रदेश और उस समय के संयुक्त प्रान्त में सम्पूर्णानन्द और गोबिंद बल्लभ पंत जैसे नेता भी थे, जिन्होंने हिन्दू प्रतीकों को राष्ट्रवाद से जोड़कर कांग्रेस संगठन की जमीन तैयार की थी। असहयोग आंदोलन से पहले कांग्रेस और अन्य पार्टियों के अधिकांश बड़े नेता अख़बार में लिखते थे और ऐसे ही नेताओं ने सिर्फ संयुक्त प्रान्त ही नहीं बल्कि देश भर में कांग्रेस का संगठन खड़ा किया। नेहरू हमेशा ऐसे नेताओं के बीच रहे और इनके अपनाये तौर तरीकों से मिले परिणाम को सहर्ष स्वीकार करते रहे लेकिन तौर तरीकों पर ऊँगली भी उठाते रहे। इस तरह नेहरू पर “गुड़ खाएं और गुलगुला से परहेज़” वाली उक्ति एकदम सटीक बैठती है।
गाँधी का हिंदूवाद
गाँधी ने असहयोग आंदोलन के माध्यम से क्षेत्रीय आन्दोलनों को, जिनकी कोई एकात्म धारा नहीं थी, एक राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरुप दिया। ऐसा नहीं था कि गाँधी न होते तो कोई और आज़ादी की क्षेत्रीय लड़ाइयों को एक राष्ट्रीय सूत्र में न बाँध पाता लेकिन गाँधी ने स्वराज्य को राष्ट्रीय आंदोलन बनाने के लिए सबसे पहले एक जमीन पर उतारी जा सकने लायक योजना प्रस्तुत की, उस योजना को लागू किया और सफल भी हुए। भारत आने के बाद से लेकर १९३७ के चुनाव तक मोहनदास करमचंद गाँधी एक हिंदूवादी नेता थे जो हिंदूवाद को अहिंसात्मक तौर तरीके से फैलाना चाहते थे लेकिन फैलाना वो हिन्दुवाद ही चाहते थे। हिन्दू प्रतीकों की गाँधी के धर्म निरपेक्ष मॉडल में भरमार थी और इसमें कोई दोराय नहीं है कि भागवत गीता जैसे धार्मिक ग्रन्थ को राजनीतिक मंत्र बता कर हिन्दू साम्प्रदायिकता को गाँधी एक राष्ट्रीय स्वरुप दे रहे थे। दूसरी तरफ गाँधी हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप में मुस्लिमों के साथ सरेआम सौदेबाज़ी कर रहे थे जिसमें गाँधी हिन्दू कांग्रेस द्वारा अली बंधुओं के खिलाफत आंदोलन का समर्थन देने के बदले, असहयोग आंदोलन में मुस्लिम सहयोग सुनिश्चित कर रहे थे।
गाँधी किसके लिए और किसकी तरफ से मुस्लिम नेताओं से सौदा कर रहे थे, और गाँधी को हिन्दू समाज ने नेता बनाया था, गाँधी ने हिन्दू समाज नहीं बनाया था। गाँधी हिन्दू धार्मिक प्रतीकों का राजनीतिकरण कर रहे थे, और वो प्रतीक गाँधी के साथ उत्पन्न नहीं हुए थे। हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल राजनीतिक हित के लिए करने का तमगा भी कांग्रेस के ही पास है और जैसा कि पहले बताया गया, इस बात के ढेरों प्रमाण हैं कि नेहरू को इससे कभी इतनी दिक्कत नहीं हुई कि वो कांग्रेस छोड़ दें।
जिस समय असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के नेताओं का आपसी समझौता हुआ, उस समय हुई संविदा हमेशा एक आंदोलन तक सीमित थी, और असहयोग आंदोलन के बाद से ही इन्ही शर्तों पर शुरू हुई बहस ने नेहरू की धर्म निरपेक्षता की दिशा स्पष्ट की। इसी समझौते के साथ गाँधी पहले से स्थापित इस तथ्य को भी समर्थन दे रहे थे कि सांप्रदायिक विवाद वास्तविक समस्या है और इस प्रकार गाँधी ने लखनऊ पैक्ट को स्वीकार किया। हालाँकि, नेहरू ने १९३७ के चुनाव में बड़ी चतुराई से ब्रिटिश और कांग्रेस के अलावा किसी और को पक्ष मानने से इंकार कर दिया और लखनऊ पैक्ट द्वारा स्थापित और स्वीकृत सांप्रदायिक समस्या की वास्तविकता नकारने को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया जो मुस्लिम साम्प्रदायिकता को मुँह चिढ़ाने जैसा था और इससे मुस्लिम लीग और ज्यादा कट्टर ही हुई।
साम्प्रदायिकता उपनिवेशवाद का प्रतीक है
सर सैयद ने १८५७ के बाद जो पुस्तक अहबाब ए बग़ावत ए हिन्द लिखी और कांग्रेस की स्थापना के साथ ही देश को जो कहानी सुनाई उस कहानी के सूत्रधार स्वेच्छाचारी अंग्रेज कुलीन तंत्र से आये लोग थे, जिनका उद्देश्य ऐसे मुद्दे खड़े करना था जो उनको भारत में स्थायी रूप से बनाये रखें। इन लोगों की दुनिया की समझ विचारों के उस समूह से प्रभावित थी जिसको गुच्छे में आज यूरोसेंट्रिसिस्म के नाम से जाना जाता है। इन लोगों को ऐसा करने के लिए एक मुद्दा और एक राजनीतिक वर्ग चाहिए था, जिसकी निगाह में पश्चिमी यूरोप खासकर इंग्लैंड सभ्यता की धुरी हो और कांग्रेस, मुस्लिम लीग आदि दल ऐसे वर्ग को खड़ा करने और चिन्हित करने के लिए सबसे उपयुक्त यन्त्र थे।
पहले ही बताया गया कि १९वीं शताब्दी के आखिरी दो दशकों में हिन्दू राष्ट्रवादी आंदोलन भारत में यूरोप केंद्रित वातावरण के लिए खतरनाक हो सकता था। सावरकर के साथ-साथ उसी समय में विवेकानंद, अरविन्द घोष, बंकिम चंद्र का वन्दे मातरम, बंग-भंग, महारष्ट्र में तिलक की गणेश पूजा, आर्य समाज आंदोलन भी घट रहे थे, और इसलिए सावरकर अंग्रेज सरकार के सबसे खतरनाक शत्रुओं में से थे। अंग्रेज सरकार ने दक्षिणपंथियों के बढ़ते प्रभुत्व को कम करने के लिए सांप्रदायिक प्रश्न खड़ा किया जिसके चारों तरफ हिंदुस्तान की राजनीति बनी रहे। नेहरू ने इस उपनिवेशवादी राजनीति को आगे बढ़ाया, जो देशहित में नहीं है। ऐसे में नए उपायों पर चर्चा को साम्प्रदायिकता का नाम देकर बासी नेहरूवाद मोहब्बत की दुकान के नाम पर नहीं बेचा जा सकता।
१९३७ तक गाँधी ही कांग्रेस थे और क्योकि वो खुद हिन्दू प्रतीकों का खुलेआम इस्तेमाल करते थे, इसलिए कांग्रेस हिन्दू पार्टी ही थी और गाँधी के बाद भी कांग्रेस तब तक ऐसी ही बनी रही जब तक कि गाँधी द्वारा असहयोग युग में तैयार नेता जीवित रहे। अंग्रेज कुलीनों के समाज में पैदा होने और पले-बढे होने के कारण नेहरू अंग्रेजों के लिए भारत में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में सबसे विश्वस्त और पसंदीदा प्रतिनिधि थे। लार्ड मैकाले ने जिस भारतीय काले अंगेज़ की कल्पना की थी, नेहरू उसके सबसे करीब थे। गाँधी न भी रहे होते और अंग्रेजों को गाँधीयुग के सभी नेताओं में से चयन करना होता तो स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ही होते।
मोहब्बत की दूकान के नाम पर कांग्रेस बासी नेहरूवाद परोस रही है
आज़ादी के बाद नेहरू ने हिन्दू महासभा के एक सदस्य द्वारा गाँधी की मूर्खतापूर्ण हत्या का पूरा फायदा उठाया और राजनीतिक तौर पर हिन्दुओं के हाथ बांधकर बैठने और मुस्लिम पक्ष की मांगे सुनने और मानने को धर्म निरपेक्षता स्थापित करवाया और इस काम में वामपंथी धारा की पिछली तीन पीढ़ियां नेहरू के विचार को आगे बढ़ा रही हैं और धर्म निरपेक्ष बनी हुई हैं। इसी प्रकार से बैठे रहने को राहुल गाँधी मोहब्बत की दुकान कहते हैं। नेहरू साहब की धर्म निरपेक्षता के ढांचे में हिन्दू पक्ष को हाथ बाँध कर सिर्फ मांगे सुननी हैं और अंत में मान लेना है । कोई बोलेगा, तो उसको राहुल गाँधी सांप्रदायिक बोलेंगे, नफरती बोलेंगे। जबकि नेहरू साहब द्वारा स्थापित धर्म निरपेक्षता को मुस्लिम पक्ष समझौते की तरह नहीं, बल्कि दबाव की राजनीति के रूप में लेता है, शिकायतें सुनाता है और रियायतें मांगता है, जो इस पूरी प्रक्रिया को शिकायत निवारण प्रक्रिया बना देता है। न तो कांग्रेस देश की माता है और न साम्प्रदायिकता बच्चों वाली समस्या है और न ही नेहरू का धर्म निरपेक्ष मॉडल साम्प्रदायिकता का समाधान ही ढूंढ पाया है। विद्वानों की मानें तो नेहरू के साम्प्रदायिकता मॉडल के लागू होने के बाद साम्प्रदायिकता बढ़ी ही है। इसलिए मोहब्बत की दुकान का बासी और असफल धर्म निरपेक्ष मॉडल छोड़ कर, साम्प्रदायिकता के मुद्दे और इससे उत्पन्न प्रभावों और परिणामों की चर्चा करने पर न तो भाजपा का समर्थक वर्ग सांप्रदायिक होता है और न भाजपा नफरती पार्टी बनती है। साम्प्रदायिकता के नाम पर हिन्दुओं को अपने हित की आवाज़ न उठाने देना राहुल गाँधी की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को चुनौती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धर्म निरपेक्षता के लिए खतरा बताने वाली कांग्रेस लोकतंत्र बचाने की बात किस मुँह से कर सकती है?
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