यूपीए सरकार द्वारा दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड को दी गई 123 सम्पतियाँ नरेंद्र मोदी सरकार के अधिकार में वापस आ गई हैं। इन सम्पतियों में वक़्फ़ बोर्ड की मस्जिद, कब्रिस्तान और दरगाह शामिल हैं। केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने 8 फरवरी, 2023 को वक्फ बोर्ड से इन 123 संपत्तियों को मुक्त करने को कहा है।
यह पूरा मामला गैर अधिसूचित वक़्फ़ सम्पतियों से जुड़ा है। दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया था। रिटायर्ड जस्टिस एसपी गर्ग की अध्यक्षता में दो सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उसे दिल्ली वक्फ बोर्ड से कोई प्रतिनिधित्व या आपत्ति प्राप्त नहीं हुई है।
Ministry of Urban Development की ओर से जारी आदेश में कहा गया कि कई बार मौका दिए जाने के बावजूद अब तक 123 सम्पतियों पर उनका कोई पक्ष सामने नहीं आया इसलिए इन संपत्तियों पर बोर्ड का कोई हक नहीं रहा।
केंद्र सरकार के इस कदम पर आम आदमी पार्टी के विधायक और बोर्ड के अध्यक्ष अमानतुल्लाह खान ने कहा है कि वह संपत्तियों पर कब्जा नहीं होने देंगे।
आखिर यह पूरा घटनाक्रम क्या है, कब शुरू हुआ और इसके क्या मायने हैं, इसे समझते हैं?
संसद मार्ग और इंडिया गेट की मस्जिद सहित इन सम्पतियों की कीमत अरबों में है गौर करने वाली बात यह है कि इन 123 सम्पति का मालिकाना हक यूपीए सरकार ने वक़्फ़ बोर्ड को दिया था। यह फैसला वर्ष 2014 के चुनावों से ठीक पहले लिया गया था।
आम चुनाव से पहले ऐसा कदम क्यों उठाया गया? क्या यह संयोग था? नहीं, यह पूर्ण तरीके से एक प्रयोग था।
यह प्रायोजित इसलिए भी लगता है क्योंकि वर्ष 2013 में ही कॉन्ग्रेस ने संसद में वक्फ प्रॉपर्टी एक्ट 2013 को पारित किया। इस एक्ट का एक प्रावधान बेहद ही खतरनाक है।
यह कितना ख़तरनाक है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रावधान के सेक्शन 40 के मुताबिक वक़्फ़ बोर्ड के कोई दो लोग चाहें तो देशभर में किसी भी सम्पत्ति को वक्फ की संपत्ति बता सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई साक्ष्य देने की जरूरत नहीं है। हाईकोर्ट में ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं हो सकती और पीडि़त को भी अपनी याचिका लेकर वक्फ बोर्ड के ट्रिब्यूनल में ही जाना होगा।
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यूपीए सरकार का यह एकमात्र ऐसा फैसला नहीं था जिसे कॉन्ग्रेस ने अपने वर्षों से चल रहे राज को खत्म होते हुए देखकर लिया था।
इसी तरह का एक अप्रत्याशित फैसला 16 मई, 2014 को लिया गया था लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए और वह भी तब जब तत्कालीन सरकार हार चुकी थी।
इस दिन तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने मेहुल चोकसी सहित 13 कंपनियों को लाभ पहुंचाने के एक आदेश पर हस्ताक्षर किए थे इसमें चौकसी के नेतृत्व वाली गीतांजलि जेम्स भी शामिल थी। देखा जाए तो कॉन्ग्रेस पार्टी से मोरालिटी की आशा करना बेकार ही है।
दरअसल कॉन्ग्रेस के वक़्फ़ प्रेम पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि कॉन्ग्रेस शासन की नीति पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के उस बयान के ही इर्द गिर्द घूमती है जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है।
वहीं वक़्फ़ को रेवड़ियों की तरह बांटी गयी बेशकीमती सम्पतियाँ अब देश को वापिस हासिल हो रही हैं। ऐसे में वर्षों से इन सम्पतियों पर कब्ज़ा जमाये अघोषित मालिकों को मुश्किलें तो जरूर आयेगीं।
पर प्रश्न यह है कि तुष्टिकरण और वोट की राजनीति के चक्कर में राजनीतिक दल और उसके नेता क्या इस तरह का आचरण कर सकते हैं जिसमें सरकारी संपत्तियों को एक समुदाय विशेष या वर्ग विशेष को दिया जाए?