गुजरात के कच्छ में नर्मदा से जुड़ी एक नहर का उद्घाटन करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले हफ्ते कहा था कि मेधा पाटकर और उनके “अर्बन नक्सल” दोस्तों द्वारा गुजरात को बेहद फायदा पहुंचाने वाली नर्मदा परियोजना के विरोध की वजह से इसमें अनावश्यक देरी हुई थी। असल में, इस परियोजना का विश्व बैंक के ‘मोर्स आयोग’ सहित “अर्बन नक्सल” आलोचकों की पूरी बिरादरी ने विरोध किया था।
पर अब, मेधा और उनके साथी आलोचक गलत साबित हो चुके हैं। इस परियोजना का उद्देश्य सौराष्ट्र, कच्छ और राजस्थान के शुष्क और रेगिस्तानी इलाकों के लाखों लोगों को सिंचाई और पीने का पानी उपलब्ध कराना था। इस पर गुजरात की सभी पार्टियाँ एकमत थीं। मेधा पाटकर गैंग कुछ इस तरह के भ्रम फैलाती थी कि, नहर के पास वाले अमीर किसान परियोजना के पानी पर कब्जा कर लेंगे, जिससे कच्छ जैसे दूरदराज शुष्क क्षेत्रों के जरूरतमंद किसानों तक पानी पहुंच ही नहीं पाएगा!
गुजरात न्यायाधिकरण द्वारा हर आदिवासी विस्थापित पुरुष को 5 एकड़ जमीन और नगद मुआवजा देने का निर्णय लिया गया था। इसपर मेधा गैंग का ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ यह दुष्प्रचार फैलाता था कि आदिवासी जीवनशैली भिन्न होने के कारण वे व्यवसाय में विफल होकर अपनी जमीनें खो देंगे, कर्जदार बनकर झुग्गियों में रहने को मजबूर हो जाएँगे और उनकी महिलाएं वेश्या बन जाएंगी।

इस सब दुष्प्रचार से निर्मित कठिन परिस्थितियों के चलते गुजरात सरकार को विश्व बैंक की वित्तीय मदद छोड़नी पड़ी थी और परियोजना को आगे बढाने के लिए बहुत अधिक ब्याज वाला कर्ज लेना पड़ा था। ऊपर से जनहित की विराट योजना क्रियान्वित करने के लिए प्रशंसा की जगह गैंग प्रायोजित आलोचना से दो चार होना पड़ा था।
यह सब याद करते हुए स्वामीनाथन अय्यर कहते हैं कि, “उस समय मैंने भी मेधा के तर्कों से प्रेरित होकर परियोजना के विरोध में एक लेख लिखा था पर आज यह साफ है कि मैं गलत था।” वे आगे कहते हैं कि. “उसने न सिर्फ मुझे, बल्कि हजारों मानवतावादियों को मूर्ख बनाया, उन्हें आज उस धोखाधड़ी पर गुस्सा होना चाहिए। मेधा पाटकर जमीन को सूखा, घरों को अंधेरा और लोगों को प्यासा रखना चाहती थीं।”
आज सब जानते हैं कि नर्मदा परियोजना से नर्मदा का पानी जब सौराष्ट्र, कच्छ और राजस्थान पहुंचा, तो लाखों लोगों को फायदा हुआ। नर्मदा बांध के पानी से 24 लाख हेक्टेयर कृषिभूमि की सिंचाई होती है, 14 लाख घर बिजली से रोशन होते हैं, और 3.3 करोड़ लोगों को पीने का पानी मिलता है।

इतना ही नहीं, कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा नर्मदा परियोजना से हुए आदिवासी पुनर्वास पर एक शोध किया गया, और उसके सुखद परिणामों में पाया गया कि पुनर्वासित आदिवासी, जमीन, घर, ट्रैक्टर, बोरवेल, टीवी, मोटरसाइकिल, मोबाइल और अन्य पैमानों पर गैर पुनर्वासित आदिवासियों की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में हैं। उनके पास स्कूलों, अस्पतालों, पेयजल, बिजली और सरकारी कार्यालयों तक भी बेहतर पहुंच है।
आज भी ‘अर्बन नक्सल’ ग्रुप के ऐसे दर्जनों लोग हैं जिन्होंने उस समय मेधा पाटकर के कथित आन्दोलन का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया और लाखों लोगों के सपनों को पूरा न होने देने की साजिश का हिस्सा बने। पर अब तक उस जिम्मेदारी का एक अदद माफीनामा भी उन लोगों ने नहीं दिया है बल्कि आज तक उसी अज्ञानतापूर्ण जोश से पर्यावरण और अन्य सामाजिक मुद्दों की आड़ लेकर अपने अलग अलग विकास विरोधी प्रोपेगेंडाज में लगे हैं, जिनका भविष्य उन्हें खुद नहीं पता कि क्या वे सही कर रहे हैं?
भारत को ‘थर्ड वर्ल्ड’ देश बनाए रखने के लिए पहला कदम: क्लॉड अल्वारेस
कम ही लोग जानते हैं कि नर्मदा परियोजना के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू करने वाले पहले व्यक्ति क्लॉड अल्वारेस थे, जिन्होंने 1988 में रमेश बिल्लोरे के साथ “डैमिंग द नर्मदा: इंडियाज ग्रेटेस्ट प्लान्ड एनवायर्नमेंटल डिजास्टर” नाम की पुस्तक प्रकाशित की थी।

गौरतलब है कि भारत के विकासकार्य को बाधित करने के लिए यह किताब ‘थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क’ द्वारा मलेशिया से छपी थी। क्लॉड की पत्नी नोर्मा अल्वारेस के कथित पर्यावरण संरक्षण अभियानों को हाल के वर्षों तक भी ‘द प्रिंट’ के फाउंडर शेखर गुप्ता मंच देते रहे हैं।
पश्चिम की साजिश: मोर्स रिपोर्ट

नर्मदा परियोजना के खिलाफ दुष्प्रचार पश्चिम की योजना थी; अल्वारेस के बाद, 1992 में छपी मोर्स रिपोर्ट दूसरा प्रकाशन थी जिसने नर्मदा परियोजना पर निशाना साधा – मेधा पाटेकर ने इसी रिपोर्ट को अपने आन्दोलन का आधार बनाया था। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि यह पहला मौका था जब वर्ल्ड बैंक ने अपने किसी प्रोजेक्ट के लिए रिव्यू पैनल का गठन किया था।
अन्य ‘कल्प्रिट’
अल्वारेस और मोरेस रिपोर्ट के बाद नर्मदा परियोजना के खिलाफ 1995 के दौरान लिखने वाली तीसरी शख्स अमिता बाविस्कर थीं, जिन्होंने “बेली ऑफ द रिवर: ट्राइबल कॉन्फ्लिक्ट्स ओवर डेवलपमेंट इन द नर्मदा वैली” शीर्षक से एक किताब लिखी थी। अमिता बाविस्कर आज भी शेखर गुप्ता के ‘द प्रिंट’ की एक स्तंभकार हैं।

‘नोबल’ पाने के लिए लाखों के भविष्य से खिलवाड़
1997 में नलिनी सुंदर, ज्यां द्रेज, मीरा सैमसन और सत्यजित सिंह ने एक दूसरी किताब ” द डैम एंड द नेशन: डिस्प्लेसमेंट एंड रिसेटलमेंट इन द नर्मदा वैली”, लिखी थी। द्रेज ने ही यह बेबुनियाद दावा किया था कि गुजरात सरकार ने करीब 30 लाख आदिवासियों को जंगल से जबरन बेदखल कर दिया। शायद इसी वजह से UPA की तत्कालीन सरकार ने उन्हें ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ का सदस्य बनाया था!

भारत के मामलों में शुरुआत से दखलंदाजी करने वाले ज्यां द्रेज हाल तक बिहार और झारखंड में पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों की आड़ में राजनीति करते रहे हैं, जिन्हें ‘संत’ कहकर नोबल दिलाने का जिम्मा योगेन्द्र यादव जैसे आन्दोलनजीवी ‘किसान’ ने उठाया हुआ है। जी हाँ, लोगों को पीने के पानी, सिंचाई के जल और बिजली से वंचित करने का सपना देखने वाले अर्बन नक्सल ‘संत’!
इन ‘संत ज्यां द्रेज’ को शेखर गुप्ता भी प्रमोट करते रहे हैं। ‘द प्रिंट’ पर उनको महान अर्थशास्त्री पेश करते हुए लगभग 40 से ज्यादा आर्टिकल दिखाई देते हैं, जिसमें नरेन्द्र मोदी को द्रेज के प्रस्ताव के आधार पर शहरी रोजगार पर काम करने की सलाह दी गयी है, साफ है कि नर्मदा प्रोजेक्ट का विरोध कर लाखों भारतीयों की जिन्दगी से खिलवाड़ करने वालों की सलाह कैसी होगी!

सिलेबस का हिस्सा रहा विकास विरोधी ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ बेनकाब हो चुका है
UPA की केन्द्र सरकार के दौरान नर्मदा बचाओ आंदोलन को स्कूली पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया गया था और मेधा पाटकर को एक पर्यावरण संरक्षण की क्रांतिकारी के रूप में पेश किया गया था। वजह साफ है, कि यह पूरा गैंग ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ जैसी समितियों और आयोगों, विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग’ प्रोफेसर, के रूप में सरकार का हिस्सा था।

एक दूसरे की पीठ थपथपाने, फर्जी NGOs का गठन करके आपस में एक दूसरे को अवार्ड देने, मीडिया में पहुँच का फायदा उठाकर नैरेटिव बनाने, विभिन्न क्षेत्रों में शून्य काम के साथ उस क्षेत्र के विद्वान का टैग लेकर वाहवाही लूटने से लेकर पाठ्यक्रम तय करने और बनाने तक की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों के पास थी।
पर अब लोग जान चुके हैं और इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि जिस ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के बारे में हमने स्कूल में पढ़ा था, वह कोई ‘पर्यावरण सुरक्षा अभियान’ नहीं था, बल्कि लाखों लोगों को बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित करने की साजिश का एक ‘विकास विरोधी आन्दोलन’ था।