अमेरिका के स्टॉक ‘रिसर्च’ ग्रुप और स्टॉक मार्केट के शॉर्ट सेलर हिंडनबर्ग ने अडानी समूह की कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस के साथ-साथ समूह को सरकार से मिलने वाली सुविधाओं और पक्षपात को लेकर प्रश्न उठाए। जैसा कि होता है, जब भी स्टॉक मार्केट में लिस्टेड कंपनियों को लेकर इस तरह के प्रश्न सार्वजनिक तौर पर उठाये जाते हैं, उन कंपनियों में निवेश करने वालों की प्रक्रिया त्वरित होती है। इस मामले में भी वैसी ही प्रतिक्रिया देखी गई। निवेशकों में खलबली मची तो उन्होंने अडानी समूह की कंपनियों के शेयर बेच डाले। नतीजा यह हुआ कि इन कंपनियों के शेयर के भाव बहुत नीचे आ गए।
ऐसा ही होता है। स्टॉक मार्केट में शॉर्ट सेलिंग के ऑपरेशन ऐसे ही होते हैं। लोगों को संभलने का मौका नहीं मिलता। यही स्टॉक मार्केट का चरित्र है। ऐसे समय में मार्केट और उसमें लगे लोगों के व्यवहार में तर्क या संतुलन की मांग समय और ऊर्जा की बर्बादी होती है।
जो कुछ हुआ उसे लेकर आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं। संसद के पिछले कई सत्रों की तरह इस वर्ष के बजट सत्र के ठीक पहले यह तूफान उठाया गया, लिहाजा इसका एक उद्देश्य राजनीतिक लाभ लेना है और उसे लेने का प्रयास चल रहा है। दुनिया भर में उद्योग समूहों पर कॉर्पोरेट गवर्नेंस या सरकारी पक्षपात के आरोप लगते रहते हैं। न तो यह पहली रिपोर्ट है और न ही आख़िरी। जो कुछ भी अडानी समूह के मामले में हुआ है, इसमें कुछ भी नया नहीं है। हाँ, जो बात नई है, वह ये है कि वर्षों से इस उद्योग समूह पर सरकार से करीबी या पक्षपात के आरोप देश में देशवासियों द्वारा लगाए जाते रहे थे पर इस बार ये आरोप विदेश में विदेशियों द्वारा लगाए गए हैं और वो भी अमेरिका में। जाहिर है अमेरिकी आरोप का वर्जन अलग होगा।
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चूँकि आरोप अमेरिका में अमेरिका के लोगों द्वारा लगाए गए हैं लिहाजा गुलामी की मानसिकता वाले भारतीयों की सोच को अधिक प्रभावित होना ही था। इसी का प्रभाव है कि देश में रहने वाले एजेंडाधारियों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं है। पत्रकार, संपादक, नेता, ऐक्टिविस्ट इत्यादि, सब खुश हैं। उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि भारतीयों के आरोप को नकारने वालों, अब देखते हैं कि अमेरिकी आरोप को कैसे नकारते हो? यह सोच उस अमेरिका को लेकर है जिसके रेगुलेटर और सरकारी विभाग अभी 2008 के आर्थिक संकट में इन्हीं मामलों को लेकर पूरी दुनिया को अपनी औकात दिखा चुके हैं। पर चूँकि यहाँ तथ्यों की बात हो रही है लिहाजा भारतीय आंदोलनजीवियों से तथ्यों को देखने की आशा गंगा में जौ बोने जैसा है।
प्रसिद्ध आन्दोलनजीवी मेधा पाटकर ने ट्वीट करके हिंडनबर्ग से अपील की है कि वह केवल अडानी समूह का ही नहीं बल्कि और भारतीय उद्योग समूहों की जाँच करे और इन समूहों द्वारा किये गए ‘घपले’ उजागर करे। मेधा पाटकर अपने सार्वजनिक व्यवहार से देश को यही बताना चाहती हैं कि भारत के कानून, उसके नियामक और नियंत्रक या संस्थाएं अपने स्टॉक मार्केट, उद्योग धंधों, उद्योग समूहों या कंपनियों को रेगुलेट करने में सक्षम नहीं हैं। गुलामी की मानसिकता वाली उनकी सोच उन्हें यही समझाती है कि खुद को रिसर्च ग्रुप बताने वाला अमेरिका का एक शॉर्ट सेलर यदि अन्य भारतीय कंपनियों की इज़्ज़त का सत्यानाश कर दे तो मज़ा ही आ जाए।
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दरअसल उद्योग, सरकार, रेगुलेशन, कॉर्पोरेट गवर्नेंस और समाज वगैरह को लेकर मेधा पाटकर की समझ आंदोलन से उपजी है। अर्थव्यवस्था, विकास और सामाजिक आवश्यकताओं वगैरह को लेकर इन्हीं मेधा पाटकर की समझ को पूरा देश सरदार सरोवर प्रोजेक्ट के विरोध में देख चुका है। उस प्रोजेक्ट और खासकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध को लेकर उनके पुराने बयान वाले वीडियो सब ने देखा है। उनके बयानों के आधार पर उनका समर्थन करने वाले अमेरिका में बैठे स्वामीनाथन ऐय्यर ने हाल ही में कॉलम लिखकर किन शब्दों में देश से माफी मांगी, हमने वह भी देखा।
पर इस आंदोलनजीवी की सोच उसे यह सब याद करने से रोकती है। पूरे देश के सामने एक्सपोज़ होने के बावजूद मेधा पाटकर वही करेंगी जो करती आई हैं। दरअसल ऐक्टिविस्ट का यही गुण है कि उसे तर्क वगैरह पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। एक्टिविज्म को यह अधिकार है कि वह तर्क वगैरह को रोज लतियाता रहे। एक्टिविस्ट को कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उससे सवाल कर सकते हैं या उसके सामने तथ्य रख सकते हैं। उसे अपनी बात पर टिके रहना है नहीं तो मिशन मोड में किया जाने वाला उसका एक्टिविज्म खतरे पड़ जायेगा। उसे बस एक बार गलत साबित होना है। फिर उस पर सही साबित होने का दबाव नहीं रहता। वह जितनी बार गलत साबित होगा, उसका एक्टिविज्म और मजबूत होगा।
मेधा पाटकर को ही लीजिये। उन पर इस बात का जरा भी असर नहीं है कि वे पहले अपने आंदोलन को लेकर गलत साबित हो चुकी हैं। सामाजिकता की भाषा में कहें तो अपनी नाक कटवा चुकी हैं। पर इससे क्या फर्क पड़ता है? नाक ही तो कटी थी। अब उन्होंने स्टील की नाक लगवा ली है। ऐसा करने से भविष्य में चाहे जितनी बार गलत साबित हों, उनकी नाक सुरक्षित रहेगी क्योंकि वह अब स्टील की है। उस पर किसी चाकू का असर नहीं होगा। पुरानी गलती को दोहराने से एक्टिविज्म और पुख्ता होगा और वे एक दिन हीरे की नाक लगवा लेंगी।