वर्ष 2014 के बाद से भारतीय राजनीति ने वैश्विक परिस्थितियों के संबंध में नया मोड़ लिया है। देश पहले से अधिक मुखरता से सामने आया है और वैश्विक गतिविधियों में उसकी भागीदारी पहले से अधिक दिखाई दे रही है। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए वर्ष 2019 में मोदी सरकार को अधिनायक भी मिला सुब्रह्मण्यम जयशंकर के रूप में, जिन्होंने विदेश मंत्री के रूप में बेहतरीन निर्णय लिए हैं। अपने मुखर बयानों और सपाट निर्णयों की वजह से चर्चित जयशंकर का विदेश नीति से पुराना संबंध है और प्रशासनिक सेवा के दौरान उनकी प्रबल निर्णायक शक्ति ने ही उन्हें विदेश मंत्री के पद पर पहुँचाया है। अपने सेवाकाल के दौरान उन्होंने कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है।
वर्ष 2019 में विदेश मंत्री बनने के बाद से जयशंकर की नीतियों, हाजिरजवाब टिप्पणियां और भारत केंद्रित दृष्टिकोण ने उन्हें न सिर्फ एक दमदार कूटनीतिज्ञ एवं नेता की रूप में स्थापित किया है बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से आम भारतीयों में वे लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गए हैं।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि एस जयशंकर ने भारत की प्रतिक्रिया का तरीका ही बदल दिया है। F-16 और पाकिस्तान की मदद पर वो अमेरिका को दो टूक जवाब देते हैं कि आप दुनिया को बेवकूफ नहीं बना सकते। वहीं सुरक्षा के मामले में उन्होंने स्पष्ट किया कि एशिया कभी भी यूरोप पर भरोसा नहीं कर सकता है।
जयंशकर का डायनेमिक और अनअपॉलिजेटिक दृष्टिकोण भी उन्हें भारतीय विरासत से सिखने को मिला है। अपनी कूटनीति पर बात करते हुए वे रामायण और महाभारत का उदाहरण देते हैं। भारत की विरासत को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करना एवं उनकी स्पष्ट नीतियों ने कुछ वर्षों में ही भारत को भू-राजनीति में बड़ा हिस्सा बना दिया है। आज यह बात कोई नकार नहीं सकता कि विश्व जब भी आगे बढ़कर कोई निर्णय लेगा तो उस प्रक्रिया में भारत को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता है।
पहले विदेश सचिव और बाद में विदेश मंत्री की भूमिका में जयशंकर ने यह सुनिश्चित किया है कि जो स्थान भारत को मिले वो मजबूत और अग्रणी का हो। यह शायद वर्षों की उनकी राजनीति, कूटनीति और विदेश नीति के अध्ययन का परिणाम है।
भारत के प्रति पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग पर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिकी मीडिया को लताड़ा
जयशंकर का विदेश नीति और कूटनीति साधने का अनुभव ही उन्हें विदेश मंत्री के तौर पर सफल बना रहा है। विदेश सचिव रहते हुए उन्हें कई बार लगता था कि भारत को वैश्विक राजनीति में उचित स्थान नहीं दिया जा रहा है। इसी का परिणाम है कि आज वे वैश्विक मंचों पर भारत को सर्वप्रथम रखते हैं। उनके भारत केंद्रित दृष्टिकोण ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ की श्रेणी में ला खड़ा किया है।
विदेश मंत्री औऱ मात्र एक डिप्लोमेट के तौर पर वे किस प्रकार स्वयं में फर्क देखते हैं? इसपर जयशंकर का कहना है कि; एक डिप्लोमेट के तौर पर वो सिर्फ यह देख पाते थे कि किसी देश से हमारे संबंधों के क्या फायदे होंगे पर एक विदेश मंत्री के तौर पर वो यह देखते हैं कि इससे भारतीय नागरिकों को क्या फायदा मिलेगा।
पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बाद इस पद के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली पसंद एस जयशंकर उनके प्रशासनिक कार्यकाल में लिए गए निर्णयों की वजह से बने। जयशंकर ने अमेरिका में विदेश सचिव रहते हुए भारत-अमेरिका के बीच अटकी महत्वपूर्ण परमाणु समझौते पर सहमति बनाने में मदद की थी। सौदे के दौरान अमेरिका के तत्कालीन प्रधानमंत्री बराक ओबामा सौदे के इतने खिलाफ थे कि किसी भारतीय अधिकारी से बात भी नहीं करना चाहते थे। इस समय जयशंकर ने दोनों देशों के बीच मतभेदों को कम किया साथ ही बराक ओबामा की भारत यात्रा में भी योगदान दिया।
जयशंकर का व्यक्तित्व शांत और स्पष्ट छवि वाला रहा है। हालाँकि यह उन्हें जवाब देने से नहीं रोकता। वो विदेश में ही नहीं देश में भी विरोधियों को तर्कयुक्त जवाब देकर निरुत्तर कर देते हैं।
चीन से संबंधित ही बात करें तो जयशंकर चीन में सबसे लंबे समय तक सेवाएं देने वाले भारत के राजदूत रहे जो उन्हें भारत-चीन संबंधों पर विशेष स्थान प्रदान करता है। डोकलाम विवाद हो या वीजा का, जयशंकर ने चीन को कड़े शब्दों में उसका स्थान दिखाया है। डोकलाम विवाद पर उनके कार्य करने के तरीके ने चीन को भी चकित कर दिया था। जयशंकर की सक्रियता का ही परिणाम था कि चीन को डोकलाम क्षेत्र से अपनी सेना हटानी पड़ी थी। रिश्तों में आई खटास पर जयशंकर का कहना है कि जबतक चीन अपने सैनिकों को सीमा से नहीं हटा लेता दोनों देशों के बीच कोई सामान्यीकरण नहीं हो सकता है।
इससे पूर्व जब चीन ने भारतीय यात्रियों को लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा बताने वाले मैप के साथ वीजा जारी किया तो एस जयशंकर ने भारतीय दूतावास को भारत आने वाले चीनियों को वीजा जारी करने का निर्देश दिया, जिसमें नक्शे में उन सभी क्षेत्रों को भारतीय हिस्से के रूप में दिखाया गया हो। निर्णय का असर इतना था कि चीन को अपनी नीति में बदलाव करना पड़ा। यह एस जयशंकर की कूटनीति का शीर्षस्तर माना जा सकता था पर यह तो मात्र शुरुआत थी।
चीन पर उनके अनुभव के कारण ही मोदी सरकार द्वारा दोनों देशों के विवाद के विषयों में उनसे सलाह ली जाती है। यह अलग बात है कि राहुल गाँधी का मानना है कि जयशंकर को चीन के विषय में कुछ नहीं पता। राहुल गांधी के सर्वोच्च ज्ञान और समझ के विषय में एस जयशंकर का मात्र इतना कहना है कि वो सीखने के लिए हमेशा तैयार हैं। इसलिए राहुल गांधी उन्हें समझा दें जो भी उनकी समझ के बाहर हैं, अगर यह संभव है तो।
बात श्रीलंका में रहते हुए शांति रक्षा बल को मजबूत करना हो या सिंगापुर में रहते हुए भारत के साथ व्यापारिक संबंध बनाना एस जयशंकर ने अपनी नीतियों और विशेषज्ञता का फायदा देश को दिया है। हालाँकि, विदेश सचिव रहते हुए उनकी नीतियां प्रशासनिक सीमा तक सीमित रही। उस सीमा को हटाने का कार्य किया नरेंद्र मोदी सरकार ने उनको विदेश मंत्री बनाकर।
एक विदेश मंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल अभी तक प्रभावशाली रहा है। वे देश के पहले विदेश मंत्री हैं जो राजनीतिक नहीं प्रशासनिक एवं कूटनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। उनके पिता भी विदेश सचिव रह चुके हैं। वे जिस मंत्रालय का नेतृत्व कर रहे हैं उन्होंने कई वर्षों तक उसका अध्ययन किया है। यही कारण है कि वह वैश्विक मंचों पर भारत को नई पहचान के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। एशिया में भारत की उपस्थिति और पश्चिम की नीतियों पर उनकी मुखरता ने चीन को उनकी तारीफ करने के लिए मजबूर कर दिया।
रूस-युक्रेन युद्ध मामले में भारत के मजबूत निर्णय ने पश्चिम को यह संदेश दिया है कि भारत वैश्विक युद्ध की परिस्थितियों में तटस्थ रहने का निर्णय ले सकता है। उसे किसी का पक्ष लेने की आवश्यकता नहीं है। अपने बयानों से एस जयशंकर ने साफ किया है कि युरोप की समस्याएं विश्व की समस्याएं नहीं है और उसे इस मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए। एस जयशंकर यूरोप को यह बयान देकर चर्चा में आ गए थे कि जितना तेल भारत रूस एक माह में खरीदता है उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है तो क्या वो युद्ध को प्रायोजित नहीं कर रहा?
एस जयशंकर की इस कठोर पर स्पष्ट कूटनीति ने भारत को वैश्विक मंच पर सम्मानजनक स्थान प्रदान किया है। रूस-युक्रेन युद्ध के दौरान जब पश्चिमी देशों ने भारत को चीन से विवाद के मामले में धमकाने की कोशिश की तो एस जयशंकर ने जवाब दिया कि भारत और चीन स्वयं अपने विवाद सुलझाने में सक्षम हैं और उन्हें इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इसपर चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने जयशंकर के बयान की तारीफ करते हुए कहा कि उनका बयान भारत की आजादी की परंपरा को दिखाता है।
यूरोप अपने हित साधे और हम सिद्धांतों पर चलें, यह संभव नहीं: विदेश मंत्री जयशंकर
रूस-युक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने न केवल अपनी स्वतंत्र नीति का पालन करते हुए अपने नागरिकों की हितों की रक्षा की बल्कि साथ ही पश्चिम को संदेश भी दिया कि वैश्विक दबाव बनाकर भारत से काम निकलवाना अब संभव नहीं है। इसी दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत का उदाहरण दिया था कि एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र की नीति कैसी होती है। बीते वर्ष अक्टूबर में संयुक्त अरब अमीरात के एक मंत्री द्वारा कहा गया कि वो एस जयशंकर के वीडियो देखते हैं और जिस तरह उन्होंने पश्चिम को आईना दिखाने का काम किया है वो प्रभावशाली है।
यह मात्र रूस युक्रेन युद्ध की बात नहीं है। हिंद-पैसिफिक क्षेत्र में भारत की उपस्थिति हो, QUAD को संचालित करना, कोविड-19 के दौरान आपदा प्रबंधन भारत की विदेशी नीति ने राष्ट्र प्रथम के साथ मदद करने में भी भारत प्रथम को साकार किया है। कोविड-19 महामारी के दौरान भारत की वैक्सीन नीति ने भारत के कूटनीतिक रिश्तों को मजबूत करने में मदद की। भारत साउथ अफ्रीका को वैक्सीन पहुँचाने वाला पहला देश रहा। श्रीलंका को आर्थिक संकट से निकालने में भारत ने मदद की, तो तुर्की में भूकंप आने पर मदद भेजने वाला भारत प्रथम राष्ट्र था।
देश की वर्तमान विदेश नीति के जरिए भारत ने दुनिया को यह विश्वास दिया है कि किसी आपदा की घड़ी में मदद के लिए जो हाथ सबसे पहले बढ़ेगा वो भारत का ही होगा।
वर्ष, 2014 के बाद से बदली विदेश नीति का परिणाम है कि आज ऑस्टेलिया और यूएई के साथ हमने मुक्त व्यापार समझौते पर साइन कर लिया है। साथ ही यूरोप और खाड़ी देशों के साथ इस दिशा में बात की जा रही है। बहुध्रुवीय हो रहे विश्व में एस जयशंकर ने भारत को मात्र तीसरी दुनिया का देश मानने से इंकार कर दिया है। आज भारत दर्शक की नहीं नायक की भूमिका में है जो अपनी जगह से वैश्विक निर्णयों को प्रभावित कर रहा है।
राज्यसभा में विदेश नीति का पाठ पढ़ाते एस जयशंकर
जयशंकर ने स्वयं को कूटनीति की दुनिया के नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित किया है। उन्होंने देश की सॉफ्ट पावर को वैश्विक मंच पर मुख्य पावर बना दिया है। अपने निर्णयों में विश्वास के कारण ही एस जयशंकर पश्चिमी देशों को उनकी भाषा में जवाब देते हैं तो संसद में खड़े होकर यह कहने की भी हिम्मत रखते हैं कि हां, वर्ष 2014 के बाद विदेश नीति में बदलाव हुआ है। विदेश नीति 2014 के बाद अधिक गतिशील, अधिक प्रभावी, अधिक विशिष्ठ हो गई है और वो भारतीय नागरिकों के हितों को प्राथमिकता देते हैं।
जयशंकर के इस प्रबल और अनअपॉलिजेटिक कार्य करने की तरीके ने युवाओं को प्रभावित किया है। एक सफल विदेश मंत्री के तौर पर उन्होंने इस पद का स्तर बढ़ा दिया है।