कानून की किताबों में उसका जिक्र आता है। शोध पत्रों में, कई बार बलात्कार से जुड़े फैसलों में भी उसका नाम आता है। विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में, कानून की कक्षाओं में जब बलात्कार से जुड़े कानूनों के विषय में बताया जाता है, तब भी “मथुरा कांड” की बात होती ही है। नारीवादियों के आंदोलनों में जब स्त्रियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा की बात होती है, तब भी कई बार लोग “मथुरा कांड” की चर्चा करते पाए जाते हैं। मगर ध्यान रहे कि “मथुरा” का नाम सिर्फ कानूनों के सम्बन्ध में लिया जाता है। मथुरा को न्याय मिला भी या नहीं मिला, इसकी कोई चर्चा नहीं की जाती। इनकी तुलना में अगर आम आदमी की बात करें तो उसे इस पचास साल पुरानी वारदात की याद शायद ही आती होगी। “मथुरा कांड” की बात करें तो ये सवाल उठता है कि ये था क्या?
ये मथुरा नाम की जगह पर हुई कोई घटना नहीं थी। ये दुर्घटना मथुरा नाम की एक लड़की के साथ हुई थी। उस वक्त (26 मार्च, 1972) मथुरा की उम्र कोई पंद्रह-सोलह वर्ष के आस पास रही होगी। उसके माता-पिता नहीं थे और उसके दो भाइयों थे गूंगा और गामा। इनमें से गामा के साथ वो रहती थी। आजीविका का साधन मजदूरी और दूसरों के घरों में काम-काज था। जिस नूशी के घर वो काम करती थी उसके पास उसका एक अनाथ भतीजा था अशोक। मथुरा और अशोक की उम्र में बहुत अंतर था लेकिन मथुरा को अशोक पसंद था। दोनों का प्रेम प्रसंग मथुरा के भाई गामा को पसंद नहीं आया और कथित रूप से गाँव वालों के भड़काने के बाद उसने स्थानीय थाने में अशोक पर अपनी बहन के अपहरण के प्रयास की शिकायत कर दी।
मामले की जाँच के लिए 26 मार्च 1972 को मथुरा, अशोक, नुशी और उसके पति लक्ष्मण इत्यादि को देसाईगंज (महाराष्ट्र) के थाने बुलवाया गया था। करीब दस बजे रात में मथुरा के साथ के लोगों को तो जाने दिया गया मगर मथुरा को रोक लिया गया। उसे हेड कांस्टेबल तुकाराम और कांस्टेबल गणपत ने रोका था। पीछे की तरफ एक शौचालय में ले जा कर कांस्टेबल गणपत ने मथुरा का बलात्कार कर डाला। इस समय तुकाराम और गणपत दोनों ने (ड्यूटी पर) शराब भी पी रखी थी। थोड़ी देर में जब गाँव तक मथुरा के गायब होने की खबर पहुंची तो गाँव के लोगों ने थाने को घेर लिया। उस समय तुकाराम ने गाँव वालों को बरगलाने की कोशिश करते हुए कहा कि मथुरा जा चुकी है। मगर थाने को आग लगा देने की धमकी के बाद मथुरा रोती हुई थाने के पीछे से निकल आई और बताया कि उसके साथ क्या किया गया है।
मेडिकल जाँच के लिए मथुरा को करीब 140 किलोमीटर दूर चंद्रापुर जिला मुख्यालय जाना पड़ा। वो दौर “टू फिंगर टेस्ट” का था। दो उँगलियों से जांच के बाद डॉक्टर कमल शास्त्रकार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “लड़की के शरीर पर चोटों के कोई निशान नहीं थे। उसका शील काफी पहले भंग हो चुका था। उसकी योनी में दो उँगलियाँ आसानी से प्रविष्ट हो गयीं।” ये वो दौर था जब प्रमाण देने का उत्तरदायित्व, बलात्कार का आरोप लगाने वाले पक्ष पर होता था। चंद्रापुर के सत्र न्यायलय ने मथुरा को झूठी बताया और कहा कि उसे तो यौन सम्बन्ध बनाने की आदत है! अभियुक्त बरी हो गए। उच्च न्यायालय में कुछ आन्दोलनकारियों की मदद से अपील करने पर अक्टूबर 1976 में तुकाराम को एक वर्ष और गणपत को पांच वर्ष की सजा हुई।
सर्वोच्च न्यायालय में इस फैसले को फिर से पलट दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि मथुरा के अशोक से सम्बन्ध थे और उसके कपड़ों पर वीर्य कहीं और से लगा हो ऐसा हो सकता है। ऐसे ही गणपत के कपड़ों पर लगे दाग के बारे में कहा गया कि हो सकता है कि रात में सोते वक्त वो स्खलित हो गया हो। सितम्बर 1978 में दोनों अभियुक्त छूट गए। इसी घटना के क्रम में भारत में स्त्रियों पर होने वाली हिंसा के विरुद्ध पहला संगठन बना जिसे सीमा सखारे ने शुरू किया था। इस फैसले के विरुद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून के प्रोफेसर उपेन्द्र बख्शी, रघुनाथ केलकर और लोतिका (लतिका) सरकार के साथ-साथ पुणे की वसुधा धगमवार ने सर्वोच्च न्यायलय को एक खुली चिट्ठी लिखी जिसमें “सहमती” की अदालती अवधारणा को चुनौती दी गयी।
अदालत ने कहा कि कोई ऐसी वजह नहीं कि इस मुकदमे को आगे चलाया जा सके और इसी के साथ न्यायिक सुधारों की शुरुआत हुई। संशोधन के बाद धारा 114(अ) में 25 दिसम्बर 1983 के बाद बदलाव लागू किये गए। इन बदलावों के बाद अगर पीड़िता कहती है कि उसकी सहमती नहीं थी तो उसे ही माना जायेगा। अदालत ये मानकर नहीं चलेगी कि हो सकता है कि लड़की ने सहमती दी हो। कानूनों में संशोधन की इसी प्रक्रिया में आगे धारा 376 में संशोधन करके 376 (क), 376(ख), 376(ग) और 376(घ) भी जोड़े गए जिनके हिसाब से हिरासत में किये गए बलात्कार के लिए आज सजा होती है। फिर धीरे-धीरे प्रमाणित करने की जिम्मेदारी आरोपी से आरोपित पर गयी और सजाएं भी सख्त की गयीं।
इसके बाद भी आज ये सवाल उठता है कि क्या कानूनों के बदलने से स्त्रियों पर होने वाली हिंसा में कमी आई है? शायद नहीं। अभी भी “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” तो कहा जा सकता है। सजाओं के केवल कड़े होने से अपराधी पर प्रभाव नहीं पड़ता। असल में प्रभाव तब पड़ता है जब और लोग भी त्वरित गति से दंड मिलता देखें। न्यायिक प्रक्रिया में गति की कमी अभी भी है। संभवतः ये एक बड़ा कारण है कि बीच दिल्ली में कई किलोमीटर तक एक कार में फंसी हुई लड़की का शव घसीटा जा सकता है। जो सवाल मथुरा कांड में उठा था वो अभी भी बाकि है – क्या मेडिकल जाँच से कोई बलात्कार सिद्ध किया जा सकता है? अदालती फैसलों के अलोक में ये अब माना जाता है कि बलात्कार कोई शारीरिक अवस्था नहीं कि उसके प्रमाण आसानी से मिल ही जाएँ।
स्त्रियों के विरुद्ध होने वाली दिल्ली में कार से घसीटे जाने जैसे मामले में जब हम स्त्री सम्बन्धी कानूनों को देखते हैं तो एक दूसरी समस्या भी होती है। त्वरित फैसले देते समय उद्वेग के कारण सोच उतनी स्पष्ट नहीं होती। ऐसी घटनाओं को थोड़ा समय बीत चला हो तो हमें एक बार फिर से विचार करना चाहिए। क्या हमारे कानून प्रयाप्त हैं? क्या वो सही भी हैं या उनका दुरुपयोग हो रहा है? क्या स्त्री या पुरुष किसी का पक्ष लिए बिना, निष्पक्ष दृष्टि से ऐसे कानूनों पर विचार करना संभव भी है? ऐसे सभी सवालों के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि कानून तो ऐसी घटनाओं के होने के बाद काम करना शुरू करता है। सामाजिक स्तर पर ऐसी घटनाएँ हो ही न, क्या ऐसी बातें हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में कहीं शामिल कर सकते हैं?