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Home » मधुशाला के मनीष सिसोदिया का ‘शराब’ घोटाला भले नया है लेकिन ‘आदत’ तो पुरानी है
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मधुशाला के मनीष सिसोदिया का ‘शराब’ घोटाला भले नया है लेकिन ‘आदत’ तो पुरानी है

Jayesh MatiyalBy Jayesh MatiyalAugust 25, 2022No Comments8 Mins Read
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मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल
मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल (फोटो साभार: न्यूजबाइट्स)
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दिल्ली में शराब नीति घोटाले में आरोपित दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया व अन्य 14 लोगों के घर-ऑफिस पर 19 अगस्त 2022 की सुबह सीबीआई ने छापा मारा।  

सीबीआई ने छापे में कई दस्तावेज बरामद किए हैं। इन दस्तावेजों में क्या जानकारी है, यह अभी तक किसी को मालूम नहीं है, सिवाय मनीष सिसोदिया के। मनीष सिसोदिया ने ट्वीट किया, “सारी रेड फेल हो गई है, कुछ नहीं मिला, एक पैसे की हेरा-फेरी नहीं मिली।”

यह पहली बार नहीं है जब मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल पर भ्रष्टाचार और पैसों की हेरा-फेरी के आरोप लगे हैं। 

मनीष सिसोदिया पर चल रही इस कार्रवाई में कॉन्ग्रेस ने जांच एजेन्सी का समर्थन किया है। आज यह सुनने में अटपटा जरूर लगता है कि साल 2012 में कॉन्ग्रेस सरकार के समय गृह मंत्रालय ने मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल के ‘कबीर’ नामक एनजीओ की जांच की थी। उस जांच में विदेशी पैसे के योगदान और उसके खर्चे के ब्योरे में फर्जीवाड़ा पाया गया था। 

अरविंद केजरीवाल के एनजीओ ‘कबीर’ ने 15 अगस्त 2005 से अपना कार्य शुरू किया। 10 जून, 2005 को ही कबीर एनजीओ को 43,48,035 रुपए अमेरिका की ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की तरफ से आए थे। यहां यह बताना जरूरी है कि कबीर एनजीओ का  FCRA के तहत रजिस्ट्रेशन 12 नवम्बर 2007 को सामाजिक कार्यों के लिए कराया गया।

कबीर एनजीओ के लिए जो पैसा आया था, वो Development Association for Human Advancement नामक एनजीओ के नाम पर लाया गया। उस समय FCRA 1976 के हिसाब से यह अपराध था। इसका अर्थ यह हुआ कि जो पैसा ‘कबीर’ को आया वह अवैध तरीके से लिया गया था।  

साल 2006 में ही अरविन्द केजरीवाल को उभरते हुए नेता की कैटगरी में मैग्सेसे पुरस्कार मिला था। संयोग देखिए यह मैग्सेसे अवॉर्ड भी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की वित्तीय सहायता से सम्पन्न हुआ था। अब जाहिर सी बात है कि अमेरिका से कोई वित्तीय सहायता  मिलेगी, तो उसमें अमेरिका का हित तो होगा ही। 

साल 2005-06 से लेकर 2010-11 तक अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के इस NGO को विदेश से कई बार पैसा आया है। इस पैसे को कहां और कितना खर्च किया गया, इसका पर्याप्त ब्योरा और सबूत मनीष सिसोदिया ने नहीं दिया। मसलन, कर्मचारियों को दिए गए वेतन और भत्ते का कोई दस्तावेज साक्ष्य के तौर पर नहीं दिया गया।

कबीर एनजीओ का ऑफिस किराए की जिस बिल्डिंग पर था, वह बिल्डिंग सीमा सिसोदिया के नाम पर है। अब ये सीमा कौन हैं? सीमा जी माननीय उप-मुख्यमंत्री मनीष जी की पत्नी हैं। मनीष सिसोदिया ने जो पैसा किराए के लिए खर्च किया है, उसका भी उन्होंने कोई दस्तावेज पेश नहीं किया।     

जो आम आदमी पार्टी और उसके नेता आज कट्टर ईमानदारी का स्वघोषित तमगा अपने गले में लेकर घूम रहे हैं, और पारदर्शिता का ढोल गली-गली जाकर पीट रहे हैं। ये वही मनीष सिसोदिया हैं जिनके बारे में साल 2012 की गृह मंत्रालय की रिपोर्ट खुलासा करती है कि “इनके पास से जो रसीद वाउचर मिले हैं वो सीरियल नंबर के बिना थे, साथ ही न तो कोई बिल मिला, न कोई अनुबंध।” 

कैश बुक के सवाल पर तो मनीष सिसोदिया का बयान हंसा-हंसा कर मार डालने वाला है। जब साल 2006 से 2008 के बीच की कैश बुक नहीं मिली तो मनीष सिसोदिया ने बाकायदा बयान दिया कि “वह कहीं खो गई है।” 

यह ठीक वैसा ही मामला है कि बिहार में जब शराबबंदी के बाद विभिन्न थानों से लीटरों शराब गायब पायी गयी, तो पुलिस ने बयान दिया कि शराब तो चूहे पी गए।  

सितम्बर 2008 में मनीष सिसोदिया पटना के दौरे पर जाते हैं।  आने-जाने में 15,637 रुपए का खर्चा आता है। इसमें 4 लोगों के लिए 1,071 रुपए की ट्रेन टिकट ली जाती है।  बाकी का खर्चा टैक्सी से आने-जाने में लगा ऐसा मनीष सिसोदिया बताते हैं। 

अब यह रिपोर्ट कहती है कि “ट्रेन की टिकट के अलावा, जो टैक्सी का बिल दिखाया गया, वो पटना दौरे में लगे खर्च की पुष्टि नहीं करता है। मसलन, प्रति किलोमीटर के हिसाब से किराये का जो पैसा बनता है, वो खर्च किए गए पैसे से मेल ही नहीं खाता है।” 

पैसों की यह हेरा-फेरी यहीं नही रुकती है। रिपोर्ट बताती है कि 30 जुलाई, 2010 को कबीर एनजीओ ने ‘शिमरित ली’ को फिल्म और दस्तावेजीकरण के लिए 5,000 रुपए का भुगतान किया है। यहां भी भुगतान की कोई रसीद नहीं मिली है। 

अब ये शिमरित ली हैं कौन? ये वही महिला हैं, जिन पर सीआईए के लिए जासूसी का आरोप लगता आया है। अमेरिका स्थित न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की छात्रा शिमरित ली, साल 2010 में तीन महीने के लिए दिल्ली आई थी। 

हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि शिमरित ली, अरविन्द केजरीवाल को लेकर कहती है, “उन्होंने केजरीवाल के लिए कभी भी काम नहीं किया है और केजरीवाल से मिली तक नहीं है।” क्या यह सब संयोग-मात्र है, या फिर एक प्रयोग?

एक और महिला हैं, कविता रामदास, जो फोर्ड फाउंडेशन के अध्यक्ष की वरिष्ठ सलाहकार थीं और भारत में फोर्ड फाउंडेशन के प्रतिनिधि के तौर पर कई वर्षों तक काम कर चुकी हैं। इन्हीं के पिता एडमिरल लक्ष्मीनारायण रामदास, आम आदमी पार्टी के आंतरिक लोकपाल बनते हैं। इस तरह के लोग और संस्थाओं को जब जोड़कर देखते हैं तो कम से कम इतना तो हम कह ही सकते हैं कि यह सब संयोग मात्र तो नहीं ही है।  

अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया का इतिहास कबीर तक ही सीमित नहीं है। इससे पहले अमेरिका में पंजीकृत ‘अशोका’ नामक संस्था, जो ‘फोर्ड फांउडेशन’ से फंडड थी, अरविन्द केजरीवाल उससे भी जुड़े हुए थे। ‘Public Cause Research Foundation’, ‘Transparency International’ और मेधा पाटकर के मशहूर ‘आजादी बचाओ आंदोलन’ से अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया का नाता रहा है।  

मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल का एक किस्सा, जो इस बात की तस्दीक करता है कि भ्रष्टाचार और पैसे की हेरा-फेरी का ‘शराब नीति’ वाला केस भले ही नया हो, लेकिन दोनों की यह प्रवृत्ति 2 दशक पुरानी है। 

राकेश सिंह की किताब केजरीकथा में अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों के कारनामों का खुलासा किया गया है। किताब में ‘परिवर्तन का सच’ नाम से एक अध्याय है, जिसके लेखर कैलाश गोदुका हैं। कैलाश गोदुका परिवर्तन नामक संस्था के सचिव रहे हैं।  इसी संस्था से अरविन्द केजरीवाल साल 2000 के आस-पास जुड़े  थे। इस समय अरविन्द केजरीवाल राजस्व विभाग में अधिकारी के तौर पर कार्यरत थे। 

साल 2002 में जब ‘परिवर्तन’ को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की तरफ से पैसा आया तो अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी नौकरी छोड़कर पूरी तरह ‘परिवर्तन’ के साथ काम करना चाहते थे। 

अब सवाल उठता है कि उस समय नियमानुसार तो कोई भी सरकारी मुलाजिम इस तरह की संस्थाओं से नहीं जुड़ सकता था, यह कानूनन अपराध था। तो फिर अरविन्द केजरीवाल अब तक कैसे परिवर्तन से जुड़े रहे? 

इसका जवाब यह है, अरविन्द केजरीवाल ने पढ़ाई के नाम पर सरकारी नौकरी से छुट्टी ली थी। पढ़ाई के बहाने वे एक संस्था के लिए काम कर रहे थे। यह सरासर धोखा था। नैतिकता के आधार पर तो यह नहीं होना चाहिए था। परिवर्तन संस्था का यह मानना था।

गोदुका का कहना है कि “अरविन्द केजरीवाल की पहचान उनकी ‘परिवर्तन’ संस्था से होती रही है। सच्चाई यह है कि संस्था का नाम परिवर्तन नहीं था। परिवर्तन तो एक परियोजना थी। संस्था का नाम है, ‘संपूर्ण परिवर्तन’। पहले हम लोगों ने परिवर्तन नाम से संस्था पंजीकृत करवाने की कोशिश की। लेकिन उस नाम से पहले ही एक संस्था पंजीकृत थी, फिर हम लोगों ने संपूर्ण परिवर्तन नाम से संस्था पंजीकृत करवाई।” 

संस्थाओं का घालमेल भी यहां दिखता है। परिवर्तन के नाम से कार्यक्रम किए जाते हैं। परिवर्तन के नाम से ही चंदा इकट्ठा किया जाता है, जबकि संस्था का पंजीकरण संपूर्ण परिवर्तन के नाम से है। 

साल 2005 में विश्व बैंक ने भी ‘परिवर्तन’ को आर्थिक मदद दी, जबकि जिस संस्था को पैसा दिया गया, उसका पंजीकरण ‘संपूर्ण परिवर्तन’ के नाम पर है। सवाल उठता है, क्या इसमें विदेशी आर्थिक मदद संबंधी  नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ?

2011 को भारत के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में क्रान्ति के वर्ष के तौर पर केजरीवाल और कंपनी पेश करती आयी है। इसी साल भ्रष्टाचार के खिलाफ, जन लोकपाल लाने के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन आन्दोलन हुआ। 

उस आंदोलन का पूरा सिला यह निकला कि न तो लोकपाल की बात अब केजरीवाल करते हैं। न ही अब वह किसी सरकारी सुविधा को उठाने से इनकार करते हैं। हालांकि, अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने कसम खायी थी कि वह कोई भी सुविधा जैसे गाड़ी, बड़ा घर इत्यादि नहीं लेंगे। 

इस आन्दोलन के असल नायक अन्ना हजारे आज अप्रासंगिक हो गए जबकि अरविन्द केजरीवाल एक बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं। योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास और आशुतोष, कपिल जैसे इनके पुराने साथी अब इनके आसपास भी कहीं नहीं हैं। पार्टी पर इनका एकछत्र कब्जा है, जबकि आम आदमी पार्टी का दावा था कि वे परिवर्तन की राजनीति करने आए हैं। 

अन्ना के इस कथन का क्या मतलब निकाला जाए, “रामलीला मैदान में अन्‍ना कार्ड का इस्‍तेमाल कर जो पैसा इकट्ठा किया गया, उसका हिसाब उन्‍हें नहीं दिया गया।” 

यहां कोई सन्देह नहीं कि अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने साल 2000 के पहले से ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भारत और भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है। किस हद तक? इसका आकलन तो सुधी पाठक ही करेंगे। 

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    जयेश मटियाल पहाड़ से हैं, युवा हैं। व्यंग्य और खोजी पत्रकारिता में रूचि रखते हैं।

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