“16 सालों से मेरी नाक में लगी ये नली अब मुझे अपने शरीर का ही एक अंग लगने लगी है।” ये लाइन इरोम शर्मिला की हैं जो 16 वर्ष तक भूख हड़ताल पर थीं। उन नली के सहारे ही उन्हें जिन्दा रहने जितना आहार मिलता था।
9 अगस्त, 2016 को जब इरोम ने अपने काँपते हाथों से शहद चखा तो उस शहद में मिठास ही नहीं थी क्योंकि जिस AFSPA के खात्मे के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया उनकी वो माँग पूरी नहीं हुई थी।
आज जब हम अखबारों, टेलीविजन न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर मणिपुर हिंसा से जुड़े विजुअल देखते हुए अपनी भड़ास निकाल रहे हैं, तब वो दौर याद दिलाना आवश्यक हो जाता है, जब मणिपुर को दशकों तक जलने के लिए छोड़ दिया गया और AFSPA को खत्म करने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए गए। तब राज्य और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, यह बताने की जरूरत शायद ही पड़े।
दशकों तक स्टेट ऑफ़ सीज में रहने के बाद मणिपुर में बीते कुछ वर्षों में हालात इतने सामान्य हुए कि पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा और मेघालय से AFSPA को पूरी तरह से हटा लिया गया। वहीं, मणिपुर, अरूणाचल प्रदेश और नागालैंड के अधिकांश क्षेत्रों से भी AFSPA हटा दिया गया और AFSPA हटाने के बावजूद शांति व्यवस्था कायम रही।
यह कैसे सम्भव है कि जिस AFSPA के खात्मे के लिए 28 वर्षीय युवती अपना जीवन खपा देती है वह सरकार बदलने के चन्द वर्षों में हटा लिया जाता है? कि यह वादा भाजपा की सरकार ने निभाया, यह बताने की भी शायद ही जरूरत हो!
नागालैण्ड और मणिपुर का वह अन्तहीन युद्ध शायद ही कोई भूल पाए। कोई नहीं जानता था कि यह युद्ध कब खत्म होगा, कोई नहीं जानता था कि जीत किस पक्ष की होगी, जीत होगी तो इसकी कीमत कैसे चुकाई जाएगी? राज्यों की आर्थिक बदहाली के रूप में या फिर संसाधनों के नाश के रूप में? नागरिकों और सेना के जवानों के शव पर या फिर खण्ड-खण्ड होते राष्ट्र के टुकड़ों से? तब शायद सेना का एक-एक जवान भी यह जानता था कि देश की सीमा के भीतर किसी एक गोली पर उसका भी नाम लिखा हुआ है। इन हालातों के बारे में जरा ठहरकर सोचिए।
बसंत सिंह जैसे उन युवाओं को याद करिए, जिनकी अखबारों में खबर आती थी कि वह अब कभी लौटकर नहीं आएगा। ऐसी कई कहानियाँ हैं, कई किस्से हैं, कई बसंत हैं, जो इस अन्तहीन युद्ध की भेंट चढ़ गए।
आज हमारे पास नाम बताने या सुनने का समय शायद न हो इसलिए कुछ आँकड़े देख लेते हैं कि कैसे मणिपुर में अब तक हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई। इनमें आम नागरिक भी थे, सेना के जवान भी और कुछ आतंकवादी भी।
साल 2000 से लेकर 2004 तक मौंतों के सालाना आँकड़े 100 से 150 तक रहते थे वो साल 2005 से लेकर 2008 तक 300 तक बढ़ जाते हैं। ये आंकड़े उस भयावह स्थिति को दर्शाते हैं जिनकी कल्पना करने मात्र से ही हमारे शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है। साल 2013 से इन आँकड़ों में कमी आने लगती है और फिर साल 2022 तक लगभग न के बराबर हिंसा होती है।
आज हम इन मौंतों को आँकड़ों में गिनने के लिए मजबूर हैं। इसका प्रभाव क्या रहा होगा जरा इसके बारे में सोचिए। राज्य की अर्थव्यवस्था, उसके संसाधन किस प्रकार नष्ट हुए होंगे। रोजमर्रा की चीजें कितनी महंगी हुई होंगी।
हाल का एक उदाहरण देख लीजिए। साल 2017, मणिपुर में कॉन्ग्रेस पार्टी की सरकार थी। इस दौरान मणिपुर के दो राष्ट्रीय राजमार्गों पर सबसे लंबी अवधि की आर्थिक नाकेबंदी शुरू हुई। 139 दिनों तक चली यह नाकेबंदी तब खत्म हुई जब राज्य में भाजपा सरकार सत्ता में आई।
आज जब मणिपुर में हिंसा हुई तो उसे रोकने के तत्काल उपाय किए गए जो कारगर साबित हुए। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की एक अपील पर उपद्रवियों ने स्वयं हथियार नीचे रख दिए। केन्द्र सरकार ने ज्यूडिशियल जांच से लेकर आर्थिक मदद के ऐलान कर दिए। सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने और एजेंसियों में आपसी तालमेल बढ़ाने के लिए इंटिग्रेटेड कमांड बनाने के लिए बात कही गई। 8 विशेष मेडिकल टीम का गठन किया गया। इन तातकालिक उपायों के अलावा, पूर्वोत्तर क्षेत्र में गृहमंत्री अमित शाह के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप कई शांति समझौते किए गए।
साल 2019 में त्रिपुरा का NLFT समझौता हो या फिर साल 2020 का ब्रू समझौता। इसी तरह असम में साल 2020 का बोड़ो समझौता हो या फिर साल 2021 में किया गया कार्बी समझौता या साल 2022 में आदिवासी शांति समझौता।
इसी तरह मणिपुर के यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट और कुकी नेशनल आर्गनाइजेशन के साथ ऑपरेशन निलंबन समझौते की अवधि 2024 तक बढ़ाई गई। मणिपुर के ही जेलियांग्रोंग यूनाइटेड फ्रंट समूह के साथ ऑपेरशन समाप्ति समझौता हुआ।
इनके अलावा असम-मेघालय और असम नागालैंड के बीच अन्तर्राज्यीय सीमा समझौते किए गए। यह दर्शाता है कि जिन सरकारों के कार्यकाल में दशकों से जिस युद्ध के लिए असलहा दिया जाता रहा है उसे खत्म करने के लिए वर्तमान सरकार प्रतिबद्धता दिखा रही है।
आप सोचिए कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने नाम यह रिकॉर्ड दर्ज करवाते हैं कि वे पहले प्रधानमंत्री हैं जो 2 बार मणिपुर के दौरे पर गए। पर राज्य में शांति स्थापना के लिए क्या प्रयास किए गये, उसका कोई खाका तक कहीं दिखाई नहीं देता। सोचिए मणिपुर को किस कदर हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया गया था। आज वर्तमान प्रधानमंत्री के दौरों को देखते हैं तो यह समझ में आता है कि राज्य में शांति स्थापित करने के लिए किस पार्टी की सरकार प्रतिबद्ध रही है।
ऐसे में मणिपुर के आज के हालातों पर जो गिद्ध रूपी राजनीति की जा रही है उससे बचा जाना चाहिए, सरकार, शासन-प्रशासन अपने स्तर पर शांति बहाली का हर प्रयास कर रहे है। आप यदि मणिपुर के लिए वाकई चिन्तित हैं तो तार्किक दृष्टि रखिए और सरकार से तर्कपूर्ण प्रश्न कीजिए क्योंकि कुतर्क देते हुए टूलकिट का हिस्सा बनने के अपने खतरे हैं।
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