मणिुपर हिंसा को लेकर भारत के विपक्षी राजनीतिक दल खुद को चिंतित दिखाएं तो समझ में आता है कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए कोई मुद्दा चाहिए। अब अगर यूरोप महाद्वीप के कुछ गिरोह इस पर चिंता जताएं और इतनी गम्भीर चिंता कि यूरोपीय संसद, भारत के इस आंतरिक मामले पर प्रस्ताव पारित कर दे तो फिर यह संशय पैदा करता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या इस यूरोपीय संसद ने फ्रांस और स्वीडन में हो रही हिंसा पर चर्चा की है? EU Parliament को भारत सरकार का दो टूक जवाब भी यही है कि वह अपने समय का सदुपयोग अपने आंतरिक मुद्दों पर ध्यान देने के लिए करे।
भारत में आज ऐसी सरकार है जो अपनी आंतरिक मामलों को सुलझाने में सशक्त है, इसलिए मणिपुर में शांति स्थापित करने के लिए आवश्यक कदम भी उठाए गए हैं। देश के गृहमंत्री कई दिनों तक मणिपुर दौरे पर रहे हैं। भारत में बैठे एक वर्ग को और विदेशियों को यह समझने की जरूरत है कि मणिपुर को लेकर अगर चर्चा होगी तो वह भारतीय संसद में होगी, यूरोपीय या अमेरिकी संसद में नहीं।
यूरोपीय संसद ने मणिपुर हिंसा को लेकर कई दावे किए हैं। जैसे, कथित तौर पर चर्चों को तोड़ने को लेकर, घरों को तोड़ने को लेकर, क्रिश्चियन स्कूल को तोड़ने को लेकर। इस पूरे प्रस्ताव में दो बातों पर जोर दिया गया है- पहला यह कि ईसाई समुदाय कुकी पर अत्याचार किया गया और दूसरा NGO पर भारत सरकार द्वारा पाबन्दी लगाना ठीक नहीं है।
मुख्य तौर पर यही दो बातें हैं। अब सवाल उठता है कि ईसाई बहुल समुदाय कुकी पर ही क्यों जोर दिया गया और NGO पर बैन का, इस हिंसा से क्या लेना-देना।
यह सभी जानते हैं कि पैसों, घर, स्कूल आदि का लालच देकर ईसाई मिशनरी किस तरह हिन्दुओं का मतांतरण करते हैं। अब कहीं ऐसा तो नहीं है कि FCRA के तहत बीते कुछ वर्षों में जिन संदिग्ध NGO पर बैन लगा है, वे ईसाई प्रचार तंत्र का हिस्सा थे और मणिपुर में उनकी पैठ अब कमजोर हो गई है।
अब जरा यह समझते हैं कि चर्च, NGO और मणिपुर की क्रोनोलॉजी आखिर है क्या? ज्ञात हो कि भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी का मणिपुर में हस्तक्षेप की बात करना और उससे पहले केरल में कैथोलिक चर्चों की सर्वोच्च संस्था केरल कैथोलिक बिशप्स काउंसिल ने केन्द्र सरकार को घेरने के लिए प्रदर्शन किए। प्रदर्शन के दौरान पादरी और नन को यह कहते हुए सुना गया था कि प्रधानमंत्री मोदी, अगर मणिपुर में नागरिकों की रक्षा नहीं कर सकते तो आपको इस्तीफा देना चाहिए।
यहाँ एक और कड़ी जोड़कर देखिए। ईसाई समुदाय कुकी सुप्रीम कोर्ट जाता है। सुप्रीम कोर्ट में वकील कौन है? कॉलिन गोंसाल्वेस। जो ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नामक NGO के संस्थापक हैं। ये संगठन ‘सोशियो लीगल इंफॉर्मेशन सेंटर’ का हिस्सा है और फंडिंग भी मिलती है तो किस से? जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसायटी फाउंडेशन से।
इस NGO के दानदाताओं की लिस्ट European Commission, Christian Aid, Ford Foundation, German Embassy, Sweden Embassy और American Embassy भी शामिल हैं। आप सोचिए कैसे कुकी समुदाय की ओर से लड़ रहे इस NGO और इसके ईसाई संस्थापक को विदेशी फाउंडेशन से पैसा मिलता है। ऐसे में यूरोपीय संसद का NGO पर बैन को लेकर दु:ख प्रकट करना समझ में आता है।
इस प्रस्ताव में जो MEP शामिल हैं, उन पर एक नजर डालते हैं। पियरे जो तीस्ता सीतलवाड़ और जुबैर की रिहाई की तख्ती अपने हाथों में उठाते हैं।
इसी तरह MEP अलवीनाअलमेस्ता। अलवीना हाल ही में भारत आई थी और आनंद ग्रोवर, प्रशांत भूषण और शाहरुख आलम के साथ एक चर्चा में भाग लिया और इसकी मेजबानी जानते हैं किसने की? द लंदन स्टोरी फाउंडेशन जिससे सुनीता विश्वनाथ जुड़ी हुई हैं। अलवीनाअलमेस्ता के भारत विरोधी बयान अक्सर देती रहती हैं।
इसी तरह MEP बर्ट जन कह रहे हैं कि भारत में ईसाई समुदाय, असहिष्णुता, हिंसा, अपमान और भेदभाव का सामना कर रहे हैं। वे कहते हैं कि भारत में चर्चों को नष्ट किया जा रहा है।
यहाँ एक मजेदार बात यह है कि बर्ट 2021 में मानवाधिकारों पर एक सम्मेलन के आयोजन की मेजबानी करते हैं और उसमें शामिल होते हैं, शबनम हाशमी। शबनम हाशमी वो हैं, जिनके अनहद NGO का FCRA लाइसेंस केन्द्र सरकार ने रद्द कर दिया था और शबनन हाशमी हर्ष मंदर के ट्रस्टी हैं। जिनके सेण्टर फॉर इक्विटी स्टडीज नामक NGO का FCRA लाइसेंस रद्द कर दिया गया।
दिलचस्प बात ये है कि मंदर के NGO को नीदरलैंड स्थित पार्टनरशिप फाउंडेशन से पैसा मिल चुका है। नीदरलैंड वाली बात पर जोर इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि MEP बर्ट भी नीदरलैंड से हैं। अब आप सोचिए कि यूरोपीय संसद क्यों चर्च और NGO पर जोर दे रही हैं।
हम जानते हैं कि भारत में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के लिए राहुल गाँधी विदेशों से अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरह से मदद माँग चुके हैं।
2024 का आम चुनाव नजदीक है। ऐसे में विदेशी तत्वों का हस्तक्षेप होना लाजिमी है। भारत के विपक्ष की तर्ज पर संभवत: विदेशी ताकतें भी जान गई हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हराना संभव नहीं है, इसलिए नित नए हथकंडे़ देश-विदेश से अपनाए जा रहे हैं।
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