संसद के मानसून सत्र से ठीक पहले मणिपुर में दो में से एक समुदाय यानी कथित कुकी समुदाय की दो महिलाओं को सड़कों पर नग्न घुमाने का एक वीडियो सामने आया। इन महिलाओं के साथ ऐसी बदसलूकी का यह जघन्य कर्म कथित तौर पर मैतेई समुदाय के पुरुषों द्वारा किया गया। इसे लेकर स्वाभाविक तौर पर सोशल मीडिया पर आउटरेज हुआ और अपने अपने विचार के अनुसार लोगों ने उस पर प्रतिक्रिया दी।
सामाजिक त्रासदी हो या शासन पर प्रश्न, हिंदुत्ववादियों को छोड़कर अधिकतर राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ विचारधारा के तौर तरीक़ों से बंधी रहती हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं। सामाजिक त्रासदी पर सधी हुई राजनीतिक चुप्पी और प्रतिक्रियाओं का एक पूरा इतिहास रहा है। वीडियो पर प्रतिक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की ओर से भी आई। भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने चेतावनी जारी करते हुए कहा कि यदि सरकार कार्रवाई नहीं करेगी तो वे कार्रवाई करेंगे। यह सामान्य प्रतिक्रिया लगी। मानवाधिकार को लेकर संवेदनशील न्यायाधीश अन्य लोगों के हिस्से की कार्रवाई को ख़ुद करने को लेकर हमेशा तत्पर रहते ही हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बोलने की माँग लगातार हो रही थी। उन्होंने सत्र प्रारंभ होने से पहले इस पर बात की और साथ ही उन्होंने राजस्थान और छत्तीसगढ़ की भी बात की।
आशानुरूप संसद के मानसून सत्र का पहला दिन राजनीति की भेंट चढ़ गया।
आजकल राजनीति और राजनीतिक चालों को लेकर विमर्श का मंच सोशल मीडिया पर सजता है तो ज़ाहिर है कि इस विषय पर भी सजा। अशोक गहलोत से लेकर ममता बनर्जी तक ने मणिपुर को लेकर तीखे वक्तव्य दिए। ममता बनर्जी को शिकायत है कि वे मणिपुर जाकर वहाँ की क़ानून व्यवस्था पर बात करना चाहती थीं लेकिन सरकार ने जाने नहीं दिया। अखिलेश यादव ने भी तीखे प्रश्न किए। वे उत्तर प्रदेश को लेकर आजकल कम प्रश्न करते हैं। शायद इसलिए क्योंकि कठोर प्रशासन के कारण आजकल बच्चों से गलती नहीं होती।
नरेंद्र मोदी की तीखी आलोचना उनके उन निन्दकों ने भी की, जिन्हें संत कवि कबीरदास की बात मानकर वे अपने नियरे रखते हैं, यानी सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं। मोदी के विरोधियों के साथ-साथ इन निन्दकों ने मोदी के समर्थकों को whataboutery के लिए धिक्कारा। उनका कहना था कि वीडियो शेयर करने वालों की नीयत या शेयर करने के समय को लेकर प्रश्न खड़ा करना अपराध की श्रेणी में आता है इसलिए यह सवाल उठना ही नहीं चाहिए।
नरेंद्र मोदी के समर्थकों की यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है और समय समय पर आती रहती है। प्रधानमंत्री मोदी के अलावा इन समर्थकों से ऐसी ही प्रतिक्रिया की आशा वीडियो वायरल करने वालों को होगी, और इन्होंने उनके विश्वास की रक्षा भी की। इनका यह आचरण आश्चर्यचकित नहीं करता। अपने और अपनों के मूल्यांकन के समय आवश्यकता से अधिक कठोर हो जाने की समझ हिंदुत्ववादियों को उनकी संस्कृति और परंपराओं से मिली है और यह शुभ संकेत है कि सोशल मीडिया युग का हिन्दुत्ववादी भी अपनी संस्कृति तजने के लिए तैयार नहीं है, उसका परिणाम चाहे राजनीतिक हानि ही हो।
अब आते हैं नरेंद्र मोदी के उन विरोधियों के इस उपदेश पर कि वीडियो कहाँ से जारी किया गया, किसने जारी किया और ढाई महीने बाद क्यों जारी किया जैसे प्रश्न नहीं उठाने चाहिए।
प्रश्न यह है कि ऐसे प्रश्न क्यों नहीं उठाने चाहिए? खासकर तब जब ऐसी राजनीतिक चालों का कई वर्षों का एक पैटर्न रहा है। तब जब साफ साफ दिखाई देता है कि ऐसी राजनीतिक चालों के पीछे की मंशा संसदीय कार्रवाई न होने देने की है। प्रश्न यह है कि क्या यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने की चाल नहीं है? क्या यह संयोग मात्र है कि हर वर्ष हर संसदीय सत्र से पहले ऐसी चालें चली जाती रही हैं जिनका उद्देश्य संसदीय कार्यवाही रोकने का रहा है? या किसी को इस बात पर संदेह है कि लोकतंत्र में राजनीति का उद्देश्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुलभ बनाना है न कि उसे बाधित करना?
यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया जाना चाहिए कि यदि यह वीडियो मई महीने का है तो इसे तब सार्वजनिक क्यों किया गया जब केंद्र और राज्य सरकार के प्रयासों से स्थिति सामान्य होने की दिशा में लौट रही थी? ऐसा करने के पीछे नीयत क्या है? किसी के पास यदि ऐसे जघन्य अपराध सम्बंधित सबूत रहते हैं तो वह उसे सार्वजनिक करने के लिये उचित समय के लिये प्रतीक्षा करता है, या उसे जाँच एजेंसियों या प्रशासन को देता है?
नीयत को लेकर प्रश्न न उठाने की सलाह देने वालों के लिए यह याद रखना क्या कठिन है कि लोकतांत्रिक से लेकर क़ानूनी प्रक्रिया में नीयत को ही हर कार्य के मूल में रखा जाता है? यह तो स्थापित सिद्धांत है कि यदि किसी सरकारी निर्णय के परिणामस्वरूप कोई आर्थिक या आपराधिक नुक़सान भी हो जाता है तो उसके लिए भी यह देखा जाता है कि ऐसे निर्णय के पीछे नीयत क्या थी? लोकतंत्र में नीयत तो हर क्रिया के मूल में है। ऐसे में यह सलाह देना कि नीयत पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए, कहाँ तक सही है?
नीयत पर प्रश्न तो सर्वोच्च न्यायालय की भी उठेगा। क्या यह स्थापित सिद्धांत नहीं है कि न्यायालय के लिए देश का हर राज्य और हर जगह समान होती है? ऐसे में जस्टिस चंद्रचूड़ यदि केवल मणिपुर में हुए मानवाधिकार के हनन का स्वतः संज्ञान लेंगे और राजस्थान और बंगाल में हुई ऐसी घटनाओं पर कुछ नहीं कहेंगे तो उनकी नीयत पर भी प्रश्न उठेगा। नीयत पर तो प्रश्न हाईकोर्ट के उस फैसले पर भी उठाया जा सकता है जो मणिपुर में हुई इस त्रासदी का आधार बना। नीयत पर उठने वाले प्रश्न सही हैं या ग़लत, यह बहस और उसके लिए दिये जाने वाले तर्क के मूल्यांकन पर निर्भर करेगा पर नीयत पर तो प्रश्न उठेगा।
I.N.D.I.A के नाम पर ही विवाद तो कैसे स्थापित होगी विपक्षी एकता?