पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रविवार (जून 4, 2023) को बालासोर ट्रेन हादसे पर केंद्र सरकार पर आरोप की प्रक्रिया के दौरान गोधरा कांड का जिक्र कर दिया। केंद्र सरकार पर इतिहास बदलने के बहाने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने ट्रिपल ट्रेन त्रासदी के विषय में वास्तिवक दुर्घटना के आंकड़े को लेकर कहा कि; भाजपा जैसे इतिहास को बदल देती है वैसे ही वह आँकड़े भी बदल सकती है।
अपने तर्क को विस्तार देते हुए ममता बनर्जी ने फरवरी 27, 2002 को गोधरा में हुए उस भीषण नरसंहार का जिक्र किया जिसमें अयोध्या से कारसेवा कर लौट रहे 59 हिंदू कारसेवकों को रेलगाड़ी के डिब्बे में जिंदा जला दिया गया था। ममता बनर्जी ने गोधरा नरसंहार का जिक्र कर सवाल किया कि गोधरा से लौट रही चलती ट्रेन में किस प्रकार आग लग गई थी?
गोधरा काण्ड
दरअसल, ममता बनर्जी अपने राजनीतिक फायदे के लिए भले ही गोधरा को लेकर प्रश्न उठा रही हो पर इसकी वास्तविकता उनके दावों से बिलकुल अलग हैं। गुजरात के गोधरा में हुए नरसंहार पर नजर डालें तो फरवरी 27, 2022 की सुबह 7.43 बजे वाराणसी से साबरमती एक्सप्रेस अहमदाबाद के लिए लौट रही थी। ट्रेन करीब 5 घंटे लेट चल रही थी। इसी दौरान गोधरा स्टेशन पर मुस्लिम पुरुषों वाली एक दंगाई भीड़ ने ट्रेन पर हमला करते हुए डिब्बे नंबर S6 में आग लगा दी। इस घटना में आग में जलने से श्रीरामजन्मभूमि, अयोध्या से लौट रहे 59 हिंदू यात्रियों की मौत हो गई। घटना के आक्रोश के चलते एक दिन बाद गुजरात के विभिन्न शहरों में हिंसक घटनाएं हुई जो बाद में सांप्रदायिक दंगे में बदल गई।
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने अक्टूबर, 2001 में गोधरा कांड से ठीक 4 महीने पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। यह ऐसा समय था जब देश आतंकवादी घटनाओं से त्रस्त था। दिसंबर, 2001 में भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला किया गया था। साथ ही भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर परिस्थितियां चिंताजनक थी। हालांकि इन परिस्थितियों के बीच भी गुजरात सरकार के आदेश पर सेना के द्वारा मार्च 1, 2002 से ही स्थिति को नियंत्रण में लाने के हरसंभव कदम उठाए गए थे।
मेहता-नानावती आयोग की रिपोर्ट
गोधरा नरसंहार की जाँच के लिए मेहता-नानावती आयोग का गठन किया गया था जिसकी रिपोर्ट में बताया गया कि जुलाई, 2002 तक न तो जन संघर्ष मंच (वकील-कार्यकर्ता स्वर्गीय मुकुल सिन्हा का NGO), न ही गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी और न ही किसी और के द्वारा गोधरा काण्ड पर कोई टिप्पणी या अन्य कोई संभावना जताई गई थी। इनमें से किसी ने साबित नहीं किया कि गोधरा की यह घटना संबंधित रेलवे कर्मियों, यात्रियों और मीडिया द्वारा किए गए रिपोर्ट या राज्य सरकार के बताए अनुसार, न होकर किसी और कारणों से हुई थी।
नानावती-मेहता आयोग की रिपोर्ट से पता चलता है कि मुकुल सिन्हा के जन संघर्ष मंच और निहित स्वार्थ वाले अन्य तथाकथित लिबरल संस्थाओं और एनजीओ कार्यकर्ताओं ने गोधरा नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शियों को झूठा साबित करने के लिए अपने सभी संसाधन लगा दिए थे। अपनी तथाकथित कहानियों को सही बताने के लिए इस वर्ग द्वारा जिंदा जला दिए गए कारसेवकों की लाशों को दरकिनार करते हुए ‘आग अंदर से लगी थी’, ‘शॉर्ट सर्किट’, ‘अचानक हुई हाथापाई’ और ‘कारसेवकों ने भड़काऊ जय श्री राम के नारे लगाए’ जैसे विभिन्न आरोप लगाकर मूल विषय से भटकाने की कोशिश की गई थी।
रिपोर्ट एवं तथ्यहीन दावे
इसमें विदेशी प्रेस और राजनेताओं का हाथ भी कम नहीं रहा। देखा जाए तो इन राजनेताओं के साथ ही मुख्यधारा की मीडिया ने दुनिया को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि मुस्लिम पुरुषों की दंगाई भीड़ का 59 कारसेवकों को जिंदा जलाए जाने से कोई लेना-देना नहीं था।

नरसंहार और दंगों के कुछ हफ़्तों बाद से ही कथित एक्टिविस्ट एवं मीडिया ने साथ मिलकर ऐसे-ऐसे नरैटिव का निर्माण किया गया जिनका तथ्यों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। इन्हीं एक्टिविस्ट में से कुछ तो यह बात फैलाने में लगे थे कि दंगाई मुस्लिम भीड़ का गोधरा काण्ड से ही कोई लेना-देना नहीं था। एक थ्योरी यह गढ़ी और फैलायी गई कि किसी मुस्लिम लड़की के अपहरण के परिणामस्वरूप यह हिंसा हुई थी। एक अन्य थ्योरी का सहारा लेकर पीड़ित हिंदू तीर्थयात्रियों को ही घटना का दोषी यह कह कर बनाया गया कि वे डिब्बे में कुछ पका रहे थे और आग लग गई। यहां तक कि कुछ ने तो साधुओं द्वारा रेलगाड़ी में चिलम पीने को आग लगने के लिए जिम्मेदार बताया।
मुकुल सिन्हा और ‘हाथापाई’ की थ्योरी
गोधरा काण्ड का सच छुपाने के लिए सर्वप्रथम मुकुल सिन्हा की थ्योरी पर बात की जा सकती है। सिन्हा ने अपने एक बयान में राज्य सरकार की आपराधिक साजिश की ओर इशारा करते हुए उनके द्वारा एकत्र सबूत के अनुसार कहा कि उन्हें लगता है कि कोच एस/6 को जलाने का कारण हाथापाई और लड़ाई थी। गोधरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर रामभक्तों और मुस्लिम वेंडर के बीच हुई हाथापाई इस आग का कारण थी, न कि मुस्लिम भीड़ द्वारा कोई साजिश। उल्लेखनीय है कि इन्हीं मुकुल सिन्हा के बेटे प्रतीक सिन्हा अब प्रोपगेंडा वेबसाइट ‘ऑल्ट न्यूज़’ चलाते हैं।
वहीं, नानावती-मेहता जाँच आयोग ने मुकुल सिन्हा के दावे के उलट अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला है। रिपोर्ट के अनुसार, सभी गवाहों के साक्ष्य और रिकॉर्ड पर मौजूद अन्य सामग्री से यह स्पष्ट हो जाता है कि ट्रेन में भीड़भाड़ और ट्रेन के अंदर और कभी-कभार नारेबाजी को छोड़कर बीच वाले स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर रामसेवकों ने कुछ भी विवादास्पद नहीं किया था। साथ ही, कोई भी उकसावे वाली घटना पहले के स्टेशन पर नहीं हुई थी जो बाद में गोधरा में हुए इस नरसंहार का कारण बनती।
आयोग को इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई कि जमीयते-उलमा-ए-हिंद द्वारा दिया गया सुझाव कि उज्जैन रेलवे स्टेशन पर रामभक्तों और रेलवे वेंडर के बीच झगड़ा हुआ था, निराधार है। रिपोर्ट के अनुसार अयोध्या से गोधरा तक की यात्रा परेशानी मुक्त रही थी।
कारसेवकों द्वारा एक मुस्लिम लड़की के ‘अपहरण’ का आरोप
वहीं मामले में मुस्लिम दंगाई भीड़ के आरोप छुपाने के लिए एक लड़की के अपहरण की थ्योरी भी सामने लाई गई। एक रिपोर्ट में अगस्त, 2002 में पहली बार मुस्लिम लड़की के अपहरण की थ्योरी पेश की गई थी। थ्योरी के अनुसार कथित तौर पर कारसेवकों पर हाथापाई की घटना के बाद एक मुस्लिम महिला का अपहरण के प्रयास का आरोप लगाया गया था।
इस रिपोर्ट में तथाकथित प्रत्यक्षदर्शी गवाह जिसे पहले ऑटो चालक बताया गया था, उसे बाद में सिगरेट विक्रेता के रूप में पेश किया गया। अपनी गवाही के अंतिम भाग में उसने यह बताया कि घटना के समय शोर के बीच उसने सुना कि कारसेवकों ने एक लड़की को ट्रेन में खींच लिया था। उसने यह दावा भी किया कि कुछ कारसेवकों ने उससे सिगरेट खरीदी पर भुगतान नहीं किया था और इसीलिए उसने वैक्यूम ब्रेक रिलीज करने के लिए डिस्क घुमाई जिससे ट्रेन दूसरी बार रुकी थी।
TOI की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि एक सलीम रजी बादाम ने दावा किया कि एक मुस्लिम लड़की को कारसेवकों ने अगवा कर लिया और ट्रेन के अंदर खींच लिया था। बादाम गोधरा स्टेशन पर कियोस्क संचालकों के यूनियन लीडर था।
वहीं, यहां इस रिपोर्ट में देखा जा सकता है कि प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार आग किस प्रकार लगी-

रिपोर्ट के अनुसार, मुस्लिम भीड़ आग लगाने के इरादे से आई थी। आग लगाने के लिए भीड़ पेट्रोल से भरे डिब्बे लेकर ट्रेन की ओर भागी। यहां तक कि भीड़ के पास खिड़की के शीशे तोड़ने के लिए लोहे की छड़ें, पाइप और डंडें भी मौजूद थे।
जांच ते दौरान आयोग के द्वारा तथाकथित पीड़ित लड़की से बात की गई जिसका कथित रूप से अपहरण किया गया था। बातचीत के आधार पर रिपोर्ट में कहा गया कि आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि लड़की द्वारा दिया गया विवरण सत्य प्रतीत नहीं होता है। लड़की की बातचीत के आधार पर अगर लड़की औऱ उसके संबंधी वड़ोदरा जाने के लिए स्टेशन उतरे होते तो वे साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में सवार हो जाते क्योंकि वह उन्हें पहले वडोदरा ले जाती। हालांकि उन्होंने ऐसा नहीं किया।
वहीं लड़की ने इस घटना को उस समय होना बताया जब वे बुक स्टॉल के नजदीक थे। हालांकि इसे सत्य मानें तो बुक स्टॉल प्लेटफॉर्म के ढके हुए हिस्से के लगभग बीच में था और रेलवे कर्मचारियों के कार्यालयों के बहुत करीब था। इस समय घटनास्थल पर बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे। यात्रियों के अलावा कई मुस्लिम विक्रेता भी थे। रेलवे कर्मचारी अपने कार्यालयों में मौजूद थे और कुछ पुलिसकर्मी भी वहां थे। ऐसे में कोई अप्रिया घटना होने पर वह चिल्लाती तो कम से कम आसपास के कुछ लोगों ने उन्हें सुना होता। हालांकि रिपोर्ट सामने आने पर भी एक भी वेंडर या कोई अन्य उसके समर्थन में आगे नहीं आया है।
कथित पीड़िता के अनुसार इसके बाद वे बुकिंग क्लर्क के कार्यालय के अंदर चले गए थे। वहां भी जाकर उन्होंने किसी को घटना की जानकारी नहीं दी थी। अब क्योंकि वो कार्यालय के अंदर थे तो यहां उन्हें किसी से डरने की जरूरत नहीं थी और वे मेमू ट्रेन का इंतजार कर सकते थे जो कुछ ही देर में आने वाली थी। पर पीड़िता ने इसके बजाय अपने रिश्तेदार के यहां लौट जाना बेहतर समझा।
नानावती मेहता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पीड़िता का कहना था कि वह बहुत डरी हुई थी और चक्कर आ गया था और इसलिए, उन्होंने उस दिन वड़ोदरा वापस नहीं जाने का फैसला किया था। आयोग ने इस बयान में सत्यता होने की संभावना से इंकार कर दिया। साथ ही कथित पीड़िता की कहानी में कई दोष होने के कारण जांचकर्ताओं ने पाया कि इसका इस्तेमाल दरअसल, वास्तविक दोषियों से ध्यान हटाने के लिए किया गया है।
‘दुर्घटनाग्रस्त आग’ और असत्य
दुर्भाग्यपूर्ण घटना में एक थ्योरी डिब्बे में आग लगने की भी दी गई थी। नानावती मेहता आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि फोरेंसिक साइंस लैब ने मई 7, 2002 को अपनी रिपोर्ट में बताया था कि जिस ट्रेन में आग लगी थी उसकी खिड़कियां इतनी ऊंची थीं कि कोई ज्वलनशील तरल अंदर नहीं फेंक सकता था। एफएसएल ने अपनी जांच के आधार पर 4 रिपोर्ट तैयार की थी। कुछ सैंपल लैब में भई भेजे गए थे और उसकी रिपोर्ट भी बनाई गई थी।
इसी प्रयोगशाला के प्रमुख डीवी तलाती ने एक रिपोर्ट के आधार पर कहा कि कोच एस/6 के बाहर खड़ा एक व्यक्ति खिड़कियों की सलाखों पर बल प्रयोग नहीं कर सकता था। हालांकि, अगर किसी आदमी ने खुद को उठाने की कोशिश की होती या उसे किसी ने उठा लिया होता तो वह सलाखों पर बल प्रयोग करना आसान कार्य था। उनकी रिपोर्ट कोच की सीट नंबर 72 और कोच के पूर्वी दरवाजे के बीच के मार्ग में खड़े होने पर ज्वलनशील पदार्थ फेंका गया होगा।
डीवी तलाटी ने नानावटी-मेहता आयोग को बताया था, कोच को जलाने में करीब 60 लीटर ज्वलनशील पदार्थ का इस्तेमाल होने की संभावना है। जांच में पाया गया है कि कुछ जगहों पर कोच का फर्श पूरी तरह से जल गया था। उन्होंने बताया कि S/6 का साइज काफी बड़ा था। इसका कुल क्षेत्रफल 5000 वर्ग फुट था। इसलिए जब तक आग बड़ी नहीं होती तब तक उस कोच में फ्लैशओवर की कोई संभावना नहीं थी। साथ ही आग कोच के नीचे से नहीं लगी थी।
कोच में आग लगने की सभी संभावनाओं की जांच करते हुए तवाटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बोगी को जलाने के लिए जितनी मात्रा में तरल पदार्थ की आवश्यकता थी, उसे बाहर से नहीं फेंका जा सकता था और न ही एस/6 में लगी आग उसमें फेंके गए जलते चिथड़ों से ही लग सकती थी। आग का सबसे अधिक असर कोच के पूर्वी हिस्से में हुआ था। ऐसे में रिपोर्ट में आग का पूर्वी हिस्से से शुरू होने की संभावना जताई गई थी।
वहीं, एक अन्य थ्योरी में यह साबित करने की कोशिश की गई कि बोगी के अंदर आग कारसेवकों द्वारा खाना पकाने की कोशिश के कारण लगी। आरोपों के अनुसार साधुओं ने जब खाना पकाना चाहा तो चूल्हे से कुछ ज्वलनशील तरल बाहर आने लगा, जिससे आग लगी।
हालांकि, कई वेबसाइटों के दावों को खारिज करते हुए आयोग की रिपोर्ट में इस संभावना से इनकार गया। इसके अलावा, एफएसएल के एक वैज्ञानिक अधिकारी मुकेश जोशी 2002 में तीन बार गोधरा गए थे और उन्होंने देखा था, कोच एस/6 के बाहरी हिस्से पर पत्थर मारने के कारण निशान लगे थे। कोच एस/6 और एस/7 के बाहरी तरफ जलने के निशान भी थे।
बनर्जी आयोग की रिपोर्ट
वहीं, इस घटना पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए अलग-अलग राजनेताओं ने अपने हिसाब से प्रयोग किया है। घटना के बाद यूपीए-1 में केंद्रीय रेल मंत्री रहे राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने गोधरा कांड की जांच के लिए एक सदस्यीय यूसी बनर्जी समिति का गठन किया था। इस यूसी बनर्जी रिपोर्ट ने दावा किया कि 59 कारसेवकों को मारने वाली आग ‘आकस्मिक’ थी। इसकी अंतरिम रिपोर्ट 2005 में जारी की गई थी जिसे लालू ने उसी वर्ष हुए बिहार राज्य के चुनावों में इस्तेमाल किया था।
रिपोर्ट में घटना को आकस्मिक बताने पर बनर्जी ने कभी यह नहीं बताया कि आग लगने का कारण क्या हो सकता है। इस तथ्यहीन रिपोर्ट के बाद लालू प्रसाद यादव पर गोधरा कांड को मात्र दुर्घटना बताने के आरोप भी लगाए गए।
वहीं, गुजरात उच्च न्यायालय ने वर्ष, 2014 में बनर्जी समिति द्वारा आग को आकस्मिक घोषित किए जाने के लगभग एक दशक बाद कहा कि यह यह पैनल अपने पद की शक्तियों का गलत तरीके से इस्तेमाल करने का उदाहरण है। यूसी बनर्जी की रिपोर्ट आग के आक्समिक लगने का दावा कर रही है जो वास्तव में पूर्व में रिकॉर्ड पर स्वीकार किए गए तथ्यों पर प्रश्न चिह्न लगा रहा है। विडंबना यह है कि कोर्ट के बयान के बाद भी सत्ता के इस घोर दुरुपयोग और कारसेवकों की हत्या पर लीपापोती करने के प्रयास करने वालों में से किसी ने अपने कार्यों की सफाई पेश नहीं की है।
अब दो दशक बाद इस त्रासद घटना के सामान्यीकरण के प्रक्रिया में व्यस्त ममता बनर्जी के प्रश्न का उत्तर यही है कि गोधरा में चलती ट्रेन में आग नहीं लगी थी। ट्रेन में आग तब लगायी गई थी जब ट्रेन गोधरा स्टेशन पर रुकी थी। मुस्लिम पुरुषों की एक भीड़ पेट्रोल के डिब्बे, लोहे की छड़ों के साथ विशेष रूप से आग लगाने के लिए उसकी ओर दौड़ी थी। अब केंद्र सरकार द्वारा ट्रिपल ट्रेन त्रासदी की सीबीआई जांच शुरू करने के आदेश पर वर्षों पुराने नरसंहार का सामान्यीकरण करना देश के विपक्षी नेताओं की संकीर्ण राजनीति को सामने ला रहा है।