केंद्रीय गृहमंत्री अमिश शाह द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव के लिए पश्चिम बंगाल का दौरा करने के साथ ही राज्य में सत्ताधारी दल टीएमसी द्वारा मंहगाई औऱ बेरोजगारी को लेकर पत्र जारी किए जा रहे हैं। टीएमसी गृहमंत्री के आगमन को काले दिन के रूप में मना तो रही है पर इसने फिर से उस लंबी बहस को छेड़ दिया है कि आखिर आजादी के समय संपन्न राज्य आज औद्योगिक निवेश औऱ रोजगार उत्पन्न करने में पिछड़ क्यों गया है।
टीएमसी द्वारा केंद्र सरकार पर बेरोजगारी और मंहगाई के लिए जिम्मेदार ठहराना हास्यपद है क्योंकि 2011 में लेफ्टिस्ट सत्ता को पीछे छोड़ते हुए ममता बनर्जी एक ईमानदार सरकार के वादे के साथ सत्ता में आई थी औऱ उन्होंने चुनाव में वादा किया था कि वे बंगाल में उद्योगों को वापस लाएंगी। हालांकि सारदा चिट-फंड घोटाला और नारद-स्टिंग ऑपरेशन और लगभग हर विभाग में उजागर हुए घोटालों के बाद ममता बनर्जी अपनी सरकार की ईमानदार छवि बनाए रखने में संघर्ष कर रही हैं। वहीं उद्योगों और रोजगार की बात करें तो पश्चिम बंगाल के युवा के पास माइग्रेशन के अलावा अन्य विकल्प नजर नहीं आता है।
गौरतलब है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों से युवाओं के माइग्रेशन डाटा (2011) के अनुसार पश्चिम बंगाल नंबर 1 पर रहा था। यहां तक की मनरेगा स्कीम के तहत भी काम नहीं मिलने के कारण राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों से भी लोगों को प्रवासित होना पड़ रहा है।
ऐसे में क्या ममता बनर्जी इस बात के लिए जवाबदेह नहीं है कि 2011 से अबतक उन्होंने बंगाल के लिए क्या किया है? गरीबों को रियायती दर पर चावल, लड़कियों के लिए कन्याश्री योजना और छात्राओं के लिए साइकिलें वितरित करके टीएमसी नेता ने स्वयं के लिए ग्रामीण वोट बैंक जरूर खड़ा किया है पर लोककल्याणकारी योजनाओं के साथ आने वाले बोझ को समझने वाले राज्य में रोजगार और उद्योगों की संभावनाओं का प्रश्न हमेशा उठते रहेंगे।
पश्चिम बंगाल की आर्थिक गिरावट
आजादी के बाद से ही देखें तो पश्चिम बंगाल ने विभाजन के परिणाम और वामपंथी सरकारों के परिणाम से अपने ऐतिहासिक वैभव को खो दिया और आज एक ऐसे पिछड़े राज्य के रूप में सामने हैं जिसमें बेरोजगारी, मंहगाई और माइग्रेशन की समस्या उग्र स्तर पर है। वर्ष 1947 और 1958 के बीच पश्चिम बंगाल की वार्षिक चक्रवृद्धि वृद्धि दर 3.31 प्रतिशत थी, जो अखिल भारतीय औसत 2.75 प्रतिशत से अधिक थी। हालाँकि, इस दौरान पश्चिम बंगाल ने बंबई के मुकाबले अपना प्रतिष्ठित स्थान खोना शुरू कर दिया था। वर्ष, 1964 तक बंबई में कारखानों में 13.53 लाख लोगों को रोजगार मिला, जबकि पश्चिम बंगाल में 8.87 लाख लोगों को रोजगार मिला। यहां तक कि 1966 तक, महाराष्ट्र के लिए स्वीकृत लाइसेंसों की संख्या पश्चिम बंगाल की तुलना में अधिक थी।
अगली अवधि मतलब 1966 से 1976 के दौरा पश्चिम बंगाल की स्थिति बद से बदतर होती गई। इस दौरान विशेषज्ञों का यह मानना रहा कि केंद्र की सरकार पश्चिम बंगाल सरकार का समर्थन नहीं कर पाई और इसका असर राज्य के आर्थिक विकास पर पड़ा था। पश्चिम बंगाल अपने जूट और चाय जैसे निर्यात-उन्मुख उद्योगों के लिए जाना जाता है। हालांकि इस औऱ विकासशील कदम न उठाकर तत्कालीन केंद्र सरकार ने आयात शुल्क के माध्यम से घरेलू बाजार पर आधारित उद्योगों को बचाने की कोशिश की जिसका असर पारंपरिक उद्योगों पर पड़ा।
यहां तक की राज्य के कृषि विकास की बात करें तो 1952-53 और 1964-65 के बीच तमिलनाडु की कृषि विकास दर 4.17 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल की 1.94 प्रतिशत रही थी।
आने वाले वर्षों में कमोबेश यही स्थिति रही औऱ पश्चिम बंगाल अपनी औद्योगिक जमीन गंवाता चला गया। 1977 के बाद से आए वामपंथी राज ने पश्चिम बंगाल में इस स्थिति को और दयनीय बनाते हुए कारोबार क्षेत्र को लेकर असहयोगात्मक रवैया अपनाया। असल में वाम मोर्चे ने भूमि सुधार और पंचायती राज पर अधिक और औद्योगिक परिदृश्य को पुनर्जीवित करना में कम ध्यान दिया था।
दरअसल यह कहा जा सकता है कि 1977 में वामपंथियों के सत्ता में आने के बाद पश्चिम बंगाल में पतन का एक और दौर आया। 1981 में, पश्चिम बंगाल का भारत के औद्योगिक उत्पादन में 9.8% योगदान था। दो दशकों से भी कम समय में यह आंकड़ा आधे से गिरकर 5.1% हो गया। जहां 1986 में, कोलकाता हवाई अड्डा भारत के आयात-निर्यात मात्रा का लगभग 10% संभाल रहा था वहीं यह 1999 में घटकर 4% रह गया।
वामपंथी सरकारों का अंत और तृणमूल सरकार का उदय
2011 में वामपंथ के अंत और तृणमूल सरकार के राज्य में उदय से परिवर्तन की जो उम्मीद जनमानस ने लगाई थी वो पूरी नहीं हो सकी। ममता बनर्जी द्वारा 4-5 वर्षों में रोजगार के मामले में राज्य को देश में नंबर 1 बनाने के वादे के बाद भी हकीकत यह है कि 2011 में जब ममता बनर्जी सरकार ने सत्ता संभाली थी तो राज्य में बेरोजगारी दर 2.7 प्रतिशत के पास थी जो कि 2023 में बढ़कर 5 प्रतिशत से भी अधिक हो गई है। औद्योगिक क्षेत्र की बात करें तो राज्य निवेश को आकर्षित करने में विफल रहा है। बड़े उद्योग राज्य से मूंह मोड़ रहे हैं। निवेश के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, असहयोगात्मक स्थितियां, भ्रष्टाचार और व्यापार उन्मुख नीतियों की कमी से राज्य में निवेश की कमी देखी जा रही है।
राज्य पर बढ़ते कर्ज को देखते नई योजनाओं और सुधारात्मक निर्णयों पर ममता बनर्जी सरकार के लिए काम करना मुश्किल है। वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए बजटीय आवंटन और प्रस्तावों को पूरा करने से राज्य पर कर्ज का बोझ लगभग 6 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ जाएगा। मार्च 2023 तक पश्चिम बंगाल का अनुमानित राजकोषीय घाटा और राजस्व घाटा क्रमशः 53,431.76 करोड़ रुपये और 32,963.60 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था।
जब ममता बनर्जी ने 2011 में पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला था, तब राज्य 1.92 हजार करोड़ रुपये के कर्ज के बोझ से दबा हुआ था। हालाँकि, उनकी सरकार के एक दशक में राज्य का बकाया ऋण 205 प्रतिशत से अधिक बढ़ गया है। प्रश्न यह है कि इस दौरान राज्य में बना क्या? बुनियादी ढाँचे में क्या बढ़ोतरी हुई? राज्य के ह्यूमन कैपिटल में क्या बदलाव आया? वामपंथी शासन के दौरान जिस औद्योगिक राज्य को कृषि पर आधारित राज्य बनाया गया, उसके लिए ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर में बढ़ोतरी कहाँ हुई?
वित्त विभाग के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ममता बनर्जी सरकार ने वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान खुले बाजार से औसतन 20,000 करोड़ रुपये से अधिक उधार लिया, जो उसके कार्यकाल के 10 साल पूरे होने के बाद चुकाने की शर्त पर था।
राज्य की आर्थिक स्थितियों को देखते हुए आर्थिक विषय के जानकारों का कहना है कि मुफ्त नकदी ट्रांसफर करने वाली योजनाएं अल्पावधि में वोट आकर्षित तो कर रही हैं पर इन लोकलुभावन योजनाओं ने बंगाल की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को कम आय, उच्च बेरोजगारी के जाल में धकेल दिया है और सरकार को इससे बाहर निकलने की गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
पश्चिम बंगाल सरकार अपनी मंहगाई दर का हवाला भी देकर जनता को संतुष्ट नहीं कर सकती है क्योंकि राज्य में दैनिक वेतन दर और प्रति व्यक्ति आय की दर बेहद कम है और इससे मंहगाई से मामूली राहत मिलने पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। ममता बनर्जी सरकार अपनी विफलताओं के लिए वामपंथियों के लंबे शासन और केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देती है। हालांकि वास्तविकता यही है कि टीएमसी सरकार राज्य में निवेश और उद्योगों को लाने में विफल रही है। राज्य बेरोजगारी, माइग्रेशन और आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहा है।
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