“इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को”
वामपंथी कवि नागार्जुन के मिज़ाज का फक्कड़पन सभी जानते थे। बात 1974 की है जब वो एक रोज़ पटना में जारी साहित्य सम्मेलन भवन में बैठे थे। नागार्जुन ने माइक थामा और उस दौर की अपनी एक बेहद चर्चित कविता सामने रख दी। जितने भी लोग सभा में मौजूद थे, उनकी ज़ुबान से वाह-वाह का ही स्वर सुनाई दिया। नागार्जुन की कविताएँ इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौर में हर मंच पर सुनी जा सकती थीं। इंदिरा के आपातकाल के दौरान नागार्जुन को कई बार जेल भी जाना पड़ा।
‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ वाले फ़ैज़-परस्तों के लिए ऐसे एक नहीं बल्कि कई उदाहरण मौजूद हैं, जब सत्ता ने अपनी ताक़त का इस्तेमाल विरोधी स्वरों को कुचलने के लिए किया। यह और बात है कि जो लोग मरीचझापी नरसंहार, कश्मीर में हुई बर्बरता तक को चुपचाप निगल गये, उन्हें अचानक से साल 2014 के बाद भारत में भय लगने लगा।
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2014 के बाद से लोकतंत्र को जब मन किया तब गालियाँ दी गईं। कभी प्रधानमंत्री को ‘नफ़रत का सौदागर’ कहा गया तो कभी ‘फासीवादी’ तो कभी हिटलर, साथ ही यह भी दोहराया गया कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा है।
यह दोगलापन वामपन्थ की पहचान भी तो है। ब्रेझनेव ने भी समूचे पश्चिम जगत पर पूंजीवादी होने के आरोप लगाए थे जबकि भारत में उन्हीं के सिपहसालार राष्ट्रवादियों को फासीवादी कहते हैं।
एक वो दौर भी था जब गीतकार और शायरों को सिर्फ़ एक तुकबंदी में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू को ‘हिटलर’ लिख देने के लिए जेल में सड़ने के लिए डाल दिया गया और किसी ने इसके विरोध में ‘आह’ तक नहीं दर्ज की। इस गीतकार/शायर का नाम था असरारुल हसन खान उर्फ़ मजरूह सुल्तानपुरी!
मजरूह ने आशिक़ी में ज़ख़्म खाए। अपने ज़ख्म की स्याही से उन्होंने अपना दर्द जमकर लिखा। यह ज़ख़्म एक तहसीलदार की बेटी से इश्क़ करने के चलते उन्हें मिले थे। हर्फ़ों के जादूगर मजरूह अपनी ग़ज़लों के लिए जाने भी गए। ख्यात शायर मजरूह सुल्तानपुरी, उर्दू शायर, जो हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार कहे गये, जो आंदोलनकारी भी थे, सत्ता के ख़िलाफ़ जमकर लिखते थे। उस दौर में उर्दू साहित्य के सबसे बड़े नामों में से एक मजरूह पेशे से हाकिम थे, लेकिन शायरी ने उन्हें अपना लिया।
मार्क्स और लेनिन से प्रभावित कट्टर वामपंथी मजरूह को उनके भीतर के क्रांतिकारी ने 1951 में एक कविता लिखने और पढ़ने के लिए गिरफ्तार करवा दिया, जिसमें उन्होंने नेहरू की तुलना हिटलर से की थी। यक़ीनन हम नेहरू को इसका दोष नहीं दे सकते जिनके कुशल नेतृत्व में यह कारनामा हुआ। हम कह सकते हैं कि मजरूह ने किस ख़ुशफ़हमी में नेहरू पर यह व्यंग्य करने का जोखिम लिया? ये भारत की स्वतंत्रता के बाद की ही बात है।
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मुंबई (तब का बंबई) में श्रमिकों की एक हड़ताल में मजरूह सुल्तानपुरी की पढ़ी एक कविता ने नेहरू सरकार को डरा दिया। मोरार जी देसाई तब गवर्नर के पद पर थे। उन्होंने क्रांतिकारी शायर मजरूह सुल्तानपुरी को ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया।
यही काफ़ी नहीं था। पूरे राजनीतिक दबाव के साथ मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी इस कविता के लिए माफ़ी माँगने के लिए मजबूर किया गया, लेकिन मजरूह नहीं पिघले। मजरूह ने माफ़ी माँगने से इनकार कर दिया। सत्ता को यह पसंद नहीं आया और मजरूह सुल्तानपुरी को दो सालों तक जेल में डाल दिया गया। नेहरू का क़द मजरूह की कलम के आगे एकदम शून्य हो गया।
…लेकिन मजरूह ने अपनी उस कविता में क्या लिखा था, आप भी पढ़िए:
“मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए”
मजरूह ने अपने शब्दों के लिए माफ़ी नहीं माँगी और गिरफ़्तारी चुनी। हिन्दी सिनेमा को ‘नौटंकी’ कहने वाले मजरूह जब जेल में थे उसी दौरान मज़रूह को पहली बेटी हुई। घर की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी इसलिए उन्होंने जेल रहते ही कुछ फिल्मों के गीत भी लिखे। मजरूह सुल्तानपुरी नेहरू को हिटलर कहने के बाद 1951-52 के दौर में बाहर आए।
बीबीसी की डॉक्युमेंट्री के बहाने ‘राग सेंसरशिप’
ये बात तो ख़ुद जवाहर लाल नेहरू भी कह कर गए थे कि ‘जो लोग इतिहास को भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने के दोषी होते हैं।’ रवीश कुमार से ले कर तमाम लोग बीबीसी की डॉक्युमेंट्री के बहाने ‘बोलने की आजादी’ और ‘राग सेन्सरशिप’ गा रहे हैं। ऐसा तो नहीं है कि वो नहीं जानते नेहरू के भारत में प्रधानमंत्री को हिटलर कहने की क्या सजा मिलती थी? इन सभी का ऐसे गणतंत्र में स्वागत है, जो उन्हें विक्टिम बने रहते हुए सारी गुंडागर्दी दिखाने का अवसर प्रदान करता है।
स्वतन्त्रता के साथ ही भारत में ज़बरदस्त दंगे हुए, चितपावन ब्राह्मण मार दिये गए। इस से पूर्व मोपला हुआ, जब विभाजन हुआ, तब भी कोई नहीं डरा। साल 1984 में दंगे हुए, कोई नहीं डरा। राम मन्दिर से जुड़े हर क़िस्म के दंगे समय-समय पर होते रहे, कोई भी भयभीत नहीं हुआ।
1991 में कश्मीर में कश्मीरियों को ही मार दिया गया। जो किसी तरह बच पाए वो कभी अपने घर नहीं लौट पाए। इस पूरे सच को ही बेहद सावधानी से कभी बाहर नहीं आने दिया गया। जिन्होंने ज़ुबान खोली उन पर नफ़रत फैलाने के आरोप लगाए गए। लेकिन इस सबसे डर किसी को भी नहीं लगा।
‘द कश्मीर फाइल्स’ प्रॉपगेंडा है, तो इजरायली ज्यूरी बिट्टा कराटे से क्यों नहीं मिलते?
देश में तमाम आतंकवादी हमले हुए, सांप्रदायिक दंगे हुए, टार्गेटेड नक्सली हमले होते रहे, बड़े स्तर पर धर्मान्तरण चलता रहा, लेकिन किसी को भी इस सबसे भय नहीं लगा। लेकिन जैसे ही साल 2014 आया, देश में डर का माहौल बन गया। सेंशरशिप जैसे शब्द दोहराए गए, वो भी खुलेआम और चीख-चीख़कर। तानाशाही, आपातकाल, हिटलर और फासीवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। सवाल ये है कि इन्हें मजरूह सुल्तानपुरी क्यों याद नहीं आते?