दक्षिण में स्थित एक आश्रम से कुछ दूर एक गांव में एक अध्यापक रहते थे जो एक स्वामी जी से प्रभावित थे पर पारंपरिक जीवन को छोड़ आत्महत्या का विचार रखने लगे थे। उनको लगता था कि वे आत्महत्या न कर सके तो कम से कम वन में जाकर सन्यासी का जीवन व्यतीत करेंगे। यही सोचकर एक बार वे स्वामी जी के पास उनकी स्वीकृति के लिए गए। उनके कुछ कहने से पहले ही स्वामीजी कहने लगे, “देखो, पत्तल बनाना आसान नहीं है। पत्ते बीनने पड़ेंगे, सीकें लानी होंगी औरबड़ी सावधानी से पत्तों को एक-दूसरे से जोड़ना होगा। तब जाकर उसमें भोजन खाया जाएगा और फिर पूरा उपयोग किए जाने के बाद ही उसे फेंका जाएगा”।
अध्यापक महोदय समझ गए कि मनुष्य शरीर बड़ी मुश्किल से मिलता है और उससे आत्मोन्नति का पूरा-पूरा लाभ उठाने से पहले उसे नहीं छोड़ना चाहिए।
ये आश्रम आध्यात्म, जीव प्रेम और आत्म-दर्शन को समर्पित था और ये स्वामी जी महर्षि रमण थे। महर्षि रमण का जन्म 30 दिसंबर, 1879 को तमिलनाडु केतिरुचुली नामक स्थान पर हुआ था। इस क्षेत्र में दक्षिण के शैव लोग ‘अरुदर्शन’ (भगवान शिव के जिस नटराज रूप ने भक्तों को दर्शन दिए थे) का त्योहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इसी त्योहार पर सुंदरम अय्यर के घर महर्षि रमण का जन्म हुआ था।
बालपन से ही महर्षि रमण की समाधिस्थ होने की शक्ति चकित करने वाली थी। वे विद्यालय, मित्रों और परिवारजनों से कम ही बात करते और रात को समाधिग्रस्त हो जाते। एक दिन जब नहीं जागे तो परिवारजनों ने मार-मार कर उठाना चाहा पर उन पर किसी चोट का प्रभाव ही नहीं पड़ा। वे समाधि में ही रहे। उन्होंने जीवन के शुरुआती वर्षों में ही जान लिया था कि शरीर नश्वर है और उन्हें जो कार्य करने हैं वो आत्मा के लिए है। कि मृत्यु के पश्चात ये शरीर नष्ट होगा पर आत्मा का क्या? कि उनका व्यक्तित्व उनके शरीर से अलग है। इसी तरह उन्होंने बहुत कम उम्र में घर त्याग कर सन्यासी जीवन अपना लिया जिसमें मौन और ध्यान ही उनके साथी रहे।
महर्षि को स्थान और अपने परिवेश से कोई मतलब नहीं रहा था। वे कीट-पतंगों के बीच भी समाधि में रहते थे लोगों के बीच भी इसलिए उनको नया नाम मिल गयाथा ‘ब्राह्मणस्वामी’। महर्षि रमण के मौन और ज्ञान की ख्याति देश-विदेश तक फैली तो उनके शिष्यों की संख्या बढ़ती गई। हालाँकि, वे शिष्य नहीं बनाते थे।दरअसल उनके मौन में ही ज्ञान था और इसे ही ग्रहण कर आश्रम की यात्रा करने वाले स्वयं को शिष्य मान लिया करते थे।
स्वाजी रमण ने ‘मैं (अहम)’ और आत्मस्वरूप को जानने के लिए अपने ज्ञान का प्रसार किया। उनका कहना था कि स्वयं को जानों फिर सत्य को जान सकोगे। आत्मा के विषय में गंभीर विचार और निरंतर ध्यान करने से प्रकाश की प्राप्ति होगी। महर्षि अद्वैतवाद को मानने वाले थे। उनका कहना था कि जो स्वयं को नहीं जानता वो दूसरों को क्या ज्ञान दे सकता है। वह अधिक बात नहीं करते थे जो भी ज्ञान उन्हें प्रसारित करना था उसके लिए बहुत ही कम शब्दों में अपना मर्म समझा देते थे इसलिए देश-विदेश से उनके अनुयायी उनके दर्शन के लिए आते रहते थे।
महर्षि रमण की शिक्षाओं की सरलता और गहराई को समझने के लिए एक वाकया प्रासंगिक है। जब वे शिलाखण्ड पर बैठ अपने शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे तो एक सर्प उनके पैर के ऊपर से होता हुआ गया और पास ही बैठ गया तो शिष्यों ने पूछा कि इस सर्प ने आपको काटा क्यों नहीं? तो गुरुजी ने कहा सर्प के लिए भूमि कोई अवरोध या वैमनस्य पैदा नहीं करती। सर्प के काटने का कारण जीव का अंहकार, उससे उत्पन्न विषमता और भेद है। जहाँ अहंकार नहीं वहाँ शत्रुता नहीं है।
महर्षि रमण एक सिद्ध पुरुष थे। उनकी सभा में शिष्यों, अनुयायियों के साथ तोते, मौर, पक्षी, साँप और कौए भी शामिल होते थे। गुरुजी का कहना है कि हमारा मन जितना अधिकाधिक विनम्र होगा उतना अधिक हमारा श्रेय होगा। मन वश में आ जाए तो हम कहीं भी रह सकते हैं।
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महर्षि रमण हमेशा गुरु, ज्ञान, आत्मा और धर्म को सर्वोपरि रखते थे। यही कारण है कि समस्त नस्ल, जाति और धर्म के लोग उनके ज्ञान को सुनने आते थे। कई अनुयायी शिष्य बनकर उनके आश्रम में रहकर ही उनकी सेवा करते। अपने अंत समय में भी उन्होंने योग वशिष्ठ के एक छंद का चयन करते हुए कहा, “जिस ज्ञानी ने स्वयं को निराकार शुद्ध-चैतन्य स्वरूप जान लिया है यदि उसकी तलवार को देह से काट दिया जाए, तो भी वह अप्रभावित रहेगी”।
महर्षि रमण ने अपने जीवन को लालसा, संसाधन और अंहकार रहित रहकर बिताया लेकिन इस दौरान ज्ञान और आत्मा को सर्वोच्च स्थान दिया। प्रकृति के प्रति उनका स्नेह देखते ही बनता था जब उनके आश्रम में प्रवेश के साथ ही कई जीव-जंतु प्रेम से विचरण करते हुए नजर आएं।
वास्तव में महर्षि रमण साधारण जीवनयापन के दौरान ज्ञान को प्रसारित करने का अद्भुत उदाहरण थे। उनकी शिक्षाएं आधुनिक समाज को आत्मा से जोड़े रखने के लिए अनिवार्य हैं। उनका कहना था कि शुभ मन और अशुभ मन- दो मन नहीं हुआ करते बल्कि मन एक ही है। सिर्फ वासनाएं शुभ और अशुभ होती हैं। उनका कहना था कि दूसरे लोग चाहे कितने ही बुरे मालूम हों, फिर भी उनका तिरस्कार मत करो। रोग-द्वेष दोनों का त्याग करो, मन को सांसारिक विषयों में अधिक मत बहाओ।जहाँ तक हो सके दूसरे के कार्य में दखल देने से बचो।
ये शिक्षाएं वर्तमान परिस्थितियों में आश्चर्यजनक रूप से अनुकूल हैं। उनके महानिर्वाण के समय उन्होंने अपने अनुयायी से कहा, “अस्तित्वहीन दुखों से मुक्ति तथायथार्थ आनन्द को पाना ही मोक्ष की परिभाषा है”। महर्षि रमण ने वर्ष 1950 में महासमाधि ले ली थी लेकिन उनकी शिक्षाएं आज भी संसार को ज्ञान से प्रज्जवलित कर रही हैं। आज जब संसार में द्वेष और वैमनस्य ने अपनी जगह बना ली हैं तो उनके शब्द स्वतः ही गुंजायमान हो जाते हैं, “सभी प्राणी एक हैं। सबके कल्याण में ही तुम्हारा कल्याण है”।
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