सुप्रीम कोर्ट द्वारा महाराष्ट्र की पूर्व सरकार के मामले में राज्यपाल पर की गई टिप्पणी महत्वपूर्ण है। राज्यपाल के विवेक पर प्रश्न उठाकर सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाया है। हाल के दिनों में विधायी एवं संवैधानिक शक्तियों पर वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के पास कहने के लिए कुछ होता ही है। वहीं, महाराष्ट्र के मामले में यह राज्यपाल के संवैधानिक पद के विरुद्ध नजर आता है। देखा जाए तो राज्यपाल के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाकर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही फैसले को कमजोर कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा एकनाथ शिंदे की सरकार को बहाल रखा गया। साथ ही यह कहा गया कि अगर उद्धव ठाकरे ने स्वयं इस्तीफा नहीं दिया होता तो परिस्थिति भिन्न हो सकती थी। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक न्यायाधीश के रूप में कम और राजनीतिक विश्लेषक का अधिक प्रतीत हो रहा है। एकनाथ शिंदे को न हटाना इस बात का प्रमाण है कि वे इस पद पर संवैधानिक रूप से हैं। इसके बावजूद राज्यपाल के विवेक पर प्रश्न करके उद्धव धड़े में राजनीतिक भ्रम पैदा करने की कोशिश क्यों की गई है।
जिन विधायकों ने राज्यपाल को पत्र लिखा था वो सभी आज भी उद्धव ठाकरे के विरुद्ध खड़े हैं। ऐसे में राज्यपाल का फैसला किस प्रकार गलत हो गया? राज्यपाल ने अपने विवेक से फैसला लिया जैसा कि उनका संवैधानिक अधिकार है पर उद्धव ने इस्तीफा क्यों दिया? उद्धव ठाकरे को अपनी सरकार पर विश्वास था तो वे फ्लोर टेस्ट का सामना करते और निर्णय को स्वीकार करते। सर्वोच्च न्यायालय से अधिक उद्धव जानते थे कि उन्होंने विश्वास मत खो दिया है इसलिए इस्तीफा दिया गया था। मामले में राज्यपाल कोश्यारी का जिक्र कर सर्वोच्च न्यायालय ने उद्धव ठाकरे के पक्ष में जो नैतिक जीत परोसी, उसे जनमानस को भ्रमित करने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार एक राज्यपाल को 25 से अधिक विधायक जब अपनी ही सरकार में विश्वास नहीं रखने का पत्र लिखे तो उन्हें विधायकों को उनकी सरकार में विश्वास करने की सलाह देनी चाहिए?
महाराष्ट्र सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाया है वो उन सैंकड़ों मामले में क्यों नहीं लगाया गया जो 50 के दशक से ही देश भर में देखा जा रहा है? आखिर महाराष्ट्र में जो हुआ, वह पहली बार तो नहीं हुआ। 1957 में केरल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार की बर्खास्तगी से लेकर 1983 में आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव के नेतृत्व वाली गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार की बर्खास्तगी तमाम राज्यों के राज भवनों में विधायकों की परेड तक कराने का एक पूरा इतिहास रहा है।
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वर्ष, 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद चारों राज्यों में बीजेपी सरकारों को गिराने के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने जायज ठहराया था। साथ ही न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश बताकर कॉन्ग्रेस सरकार को राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करने के लिए छोड़ दिया था। राज्यपाल पद के विषय में कई विवाद सामने आते रहे हैं। यह सब राजनीतिक दृष्टिकोण से तो गौण लगते हैं पर जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपाल की संस्था पर प्रश्न किया जाए तो यह गंभीर है। सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ कोश्यारी को कटघरे में खड़ा कर दिया बल्कि संवैधानिक अधिकारों को भी चुनौती दे दी है। सर्वोच्च न्यायालय का रवैया सामाजिक रिफॉर्मर के रूप में सामने आ रहा है जो कि न्याय व्यवस्था और विधायी पदों के लिए चिंता का विषय है।