अधिमिलन प्रक्रिया की आधी-अधूरी जानकारी के कारण महाराजा हरिसिंह के बारे में अनेक भ्रांतियाँ स्थापित कर दी गई हैं। उनमें से एक यह है कि वे ‘संवैधानिक अधिमिलन को लेकर अनिर्णय का शिकार हो गए थे और उनके मन में जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की लालसा थी।’
स्वतंत्रता मिलने के 2 महीने, 12 दिन के भीतर महाराजा हरिसिंह ने क्षेत्रफल की दृष्टि से उस समय की सबसे बड़ी रियासत का संवैधानिक अधिमिलन भारत में कर दिया था। उनके इस विलम्ब को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे, जम्मू-कश्मीर ने अधिमिलन की प्रक्रिया में सबसे अन्त में हस्ताक्षर किए हों, जबकि, सम्पूर्ण अधिमिलन प्रक्रिया के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यथार्थ इसके बिलकुल उलट है।
अधिमिलन प्रक्रिया का ठीक ढंग से अध्ययन कर पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर के अधिमिलन के बहुत समय बाद तक अधिमिलन प्रक्रिया जारी रही। उदाहरण के लिए बनारस रियासत का संवैधानिक अधिमिलन 15 अक्टूबर, 1948 को सम्पन्न हुआ था। स्वतंत्रता मिलने के पूरे 1 वर्ष 2 महीने और 1 दिन बाद।
इसी तरह, हिमाचल प्रदेश की बिलासपुर रियासत का अधिमिलन 12 अक्टूबर, 1948 को सम्पन्न हुआ। इन उदाहरणों से पता चलता है कि अधिमिलन-प्रक्रिया कई कारणों से लम्बी खींच रही थी।
विभाजन से उपजी नई परिस्थितियों के कारण देशी रियासतों के शासक नए राजनीतिक यथार्थ को समझने के लिए समय ले रहे थे। सीमावर्ती राज्य होने के कारण महाराजा हरिसिंह के समक्ष चुनौतियाँ अधिक थी, फिर भी उन्होंने बहुत जल्दी अपने दौर का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य का संवैधानिक अधिमिलन भारत में कर दिया था।
यहाँ स्मरण रखने वाली बात यह है कि महाराजा हरिसिंह ने संवैधानिक अधिमिलन का निर्णय बाहरी दबावों, आन्तरिक अवरोधों और अराजकता की चरम-स्थिति के बीच लिया था। अधिमिलन को लेकर आन्तरिक स्तर पर पर महाराजा हरिसिंह को अनेक अवरोधों को सामना करना पड़ रहा था।
महाराजा हरिसिंह ने जुलाई, 1947 में संवैधानिक अधिमिलन को लेकर अपना मन बना लिया था और उचित माध्यमों से इसे अभिव्यक्त भी कर दिया था, लेकिन उस समय के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व द्वारा उन्हें संकेत दिए जा रहे थे कि महाराजा अपनी शक्तियाँ शेख अब्दुल्ला को सौंप दें और शेख अब्दुल्ला ही अधिमिलन के बारे में निर्णय लें।
इस आग्रह के पीछे कोई तर्क नहीं था। क्योंकि, विधिक रूप से यह स्पष्ट था कि अधिमिलन पत्र पर रियासत का शासक ही हस्ताक्षर कर सकता है। महाराजा हरिसिंह किसी भी कीमत पर शेख अब्दुल्ला को अपनी शक्तियाँ नहीं देना चाहते थे, क्योंकि वह उनकी भारत विरोधी मानसिकता को लेकर स्पष्ट थे।
बाद में यह सच साबित हुआ कि शेख अब्दुल्ला के बारे में महाराजा हरिसिंह का आकलन सही था। 8 अगस्त, 1953 को शेख अब्दुल्ला को सदर-ए-रियासत के पद से बर्खास्त करने की बात हो अथवा शेख अब्दुल्ला और मिर्जा अफजल बेग सहित अन्य 22 के खिलाफ कश्मीर कांस्पीरेसी केस के अंतर्गत मुकदमा चलाने की बात हो।
इन सभी बातों से स्पष्ट होता है कि महाराजा हरिसिंह नहीं, बल्कि शेख अब्दुल्ला के मन में जम्मू-कश्मीर को अगल राष्ट्र बनाने की लालसा कार्य कर रही थी। गौरतलब है कि वर्ष 1958 से प्रारम्भ हुए ‘कश्मीर कांस्पीरेसी केस’ में भी शेख अब्दुल्ला के ऊपर जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने के आरोप ही लगाए गए थे।
इसमें भी उल्लेखनीय बात यह है कि शेख अब्दुल्ला को सदर-ए-रियासत पद से बर्खास्त करने और देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने का मामला दर्ज करने का निर्णय पण्डित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में ही लिया गया, जो एक समय महाराजा हरिसिंह के बजाय शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर की जनता का वास्तविक प्रतिनिधि मानते थे।
महाराजा हरिसिंह का मानना था कि शेख अब्दुल्ला मुस्लिम कट्टरता को नए तौर-तरीकों से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। महाराजा के सामने इसको लेकर कई सार्वजनिक उदाहरण थे।
सबसे बड़ा सार्वजनिक उदाहरण तब सामने आया था जब, वर्ष 1939 में पंथ-निरपेक्ष छवि हासिल करने के लिए शेख अब्दुल्ला ने वर्ष 1932 में स्थापित अपने संगठन का नाम जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस से बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस कर दिया था, जबकि कार्यशैली और एजेंडा पुराने ही बने रहे।
आन्तरिक अवरोधों के साथ लॉर्ड माउंटबेटन विविध तरीकों से पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए महाराजा हरिसिंह को संकेत दे रहे थे। जम्मू-कश्मीर की महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक स्थिति ने भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जम्मू-कश्मीर के अधिमिलन के प्रश्न को महत्वपूर्ण बना दिया था।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद बनी द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था में एक खेमा नहीं चाहता था कि भारत की सीमा कहीं भी मध्य-एशिया से जुडे़। उन्हें डर था कि सीमा से जुड़ाव की स्थिति में सोवियत संघ इसका लाभ उठा सकता है।
तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत की सीमाएँ पश्चिम एशिया से जुड़ती थीं। इसलिए, महाराजा हरिसिंह को लॉर्ड माउंटबेटन की तरफ से लगातार यह संकेत दिए जा रहे थे कि वह अधिमिलन को लेकर जल्दबाजी न करें।
माउंटबेटन ने 24 जून, 1947 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू को यह बताया था कि उन्होंने महाराजा हरिसिंह से कहा है कि जब तक पाकिस्तान की संविधान सभा नहीं बन जाती, तब तक अधिमिलन को लेकर वे जल्दबाजी न करें। माउंटबेटन की तरफ से महाराजा हरिसिंह को यह भी संकेत दिया गया था कि पाकिस्तान में सम्मिलित होने के उनके निर्णय को नवनिर्मित स्टेट डिपार्टमेंट अमित्रतापूर्ण कृत्य के रूप में नहीं देखेगा।
ऐसे अवरोधों के बीच भी महाराजा हरिसिंह ने भारत में संवैधानिक अधिमिलन का निर्णय लिया था। 26 अक्टूबर, 1947 को अधिमिलन पत्र पर किए गए उनके हस्ताक्षर को अनिर्णय की बजाय स्वतंत्रता के बाद किसी भी व्यक्ति द्वारा लिए पहले सबसे चुनौतीपूर्ण और महत्वपूर्ण निर्णय के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। उनका हस्ताक्षर सार्वजनिक बाधाओं और व्यक्तिगत दुराग्रहों पर देशहित को प्राथमिकता देने वाले निर्णयों का प्रभावी प्रतीक चिन्ह है।
यह लेख डॉ जयप्रकाश सिंह द्वारा लिखा गया है। डॉ सिंह हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केन्द्र में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर हैं।
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