उज्जैन, प्राचीन काल का अवंतिका, उज्जैयिनी, जिसके राजा स्वयं महाकाल हैं। शिप्रा नदी के किनारे बसे शहर में सुबह हर-हर महादेव से होती है तो शाम भी शिव भक्ति में गुजरती है। उज्जैन को तीर्थों में श्रेष्ठ माना गया है-
श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठं तु मनमेव च
पंचकैत्र न लभ्यते महाकाल पुरदृते
अर्थात, यहाँ पर श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ एवं वन ये 5 एक ही स्थान पर उपलब्ध है। यह संयोग उज्जैन की महिमा को और गरिमामय बना देते हैं। इसी अद्भुत उज्जैन नगरी में स्थित है महाकालेश्वर जो द्वादश ज्योतिर्लिंग में तीसरे स्थान पर आते हैं, जो उज्जैन के राजा हैं और मृत्यु के स्वामी हैंं।
आकाशे तारकं लिंग, पाताले हाटकेश्वरम्
मृत्युलोके च महाकालं लिंगत्रय नमोस्तुते।।
अर्थात आकाश में तारकलिंग है, पाताल में हाटकेश्वरलिंग तो पृथ्वी यानी मृत्युलोक पर महाकालेश्वर ही मान्य लिंग है। उज्जैन में दो शक्तिपीठ भी हैं- एक हरसिद्ध माता और दूसरी गढ़कालिका माता। हालाँकि, अभी हम बात उज्जैन के राजा और मृत्यु के स्वामी महाकालेश्वर के बार में करेंगे क्योंकि आज यानी 11 अक्टूबर, 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्जैन नगरी में महाकाल लोक कॉरिडोर के पहले चरण का उद्घाटन किया है।
महाकालेश्वर मंदिर का इतिहास
महाकालेश्वर मंदिर के इतिहास में गौरवशाली राजा भी हैं, आक्रांता भी हैं तो पुनरुत्थान भी है। आज जो मंदिर विद्यमान है, उसका निर्माण सिंधिया राजवंश के राणोजी शिंदे ने करवाया था। वे 18वीं शताब्दी के दौरान सिंधिया वंश के संस्थापक थे।
यह स्वयंभू मंदिर है, जिसको लेकर कई प्राचीन मान्यताएँ विद्यमान है। आज जहाँ प्राचीन मंदिर है वहाँ पुरातन काल में वन हुआ करता था, जिसे महाकाल वन कहा जाता था। इस वन की सुंदर कल्पना का वर्णन कालिदास के महाकाव्य मेघदूत में भी मिलता है।
शिव महापुराण के उत्तरार्द्ध के 22वें भाग में कथा है कि दूषण नामक राक्षस से देवताओं की रक्षा के लिए भगवान शिव ने एक ज्योति के रूप में यहाँ प्रकट होकर दूषण का अंत किया था। तत्कालीन राजा चंद्रसेन द्वारा यहाँ एक शिव मंदिर बनवाया गया था जो महाकाल का पहला मंदिर था।
विक्रम संवत की शुरुआत करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के काल में उज्जैन भारतीय समाज की गणना के केंद्र में था। 57 ईसा पूर्व शासन करने वाले सम्राट विक्रमादित्य माता हरिसिद्ध के परमभक्त थे और उनकी बहन राजकुमारी सुंदरा महाकाल की परमभक्त थीं।
सम्राट विक्रमादित्य ने सुंदरगढ़ में भव्य महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया था ताकि उनकी बहन विवाह के बाद भी महाकाल की पूजा-अर्चना कर सके। विक्रमादित्य को न्यायप्रिय राजा माना जाता था। वो यहाँ के आखिरी राजा थे जो यहाँ रात गुजार पाए थे। मान्यता है कि उज्जैन के राजा स्वयं महाकाल हैं इसलिए कोई अन्य राजा या मंत्री यहाँ रात नहीं गुजार सकता।
हालाँकि, इस गौरवशाली मंदिर पर विदेशी आक्रांताओं की नजर ना पड़े ऐसा तो हो नहीं सकता। धन-धान्य की लूट और विध्वंस मचाने के लिए हिंदू मंदिर हमेशा से केंद्र में रहे थे। 11वीं सदी के 8वें दशक में मोहम्मद गजनी ने इस मंदिर पर हमला किया था। इसके पश्चात, 11वीं से 12वीं सदी के बीच राजा उदयादित्य और राजा नरवर्मा के शासनकाल में मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया गया था।
गजनी के आक्रमणों के बाद देश में गुलाम वंश स्थापित हुआ। इसी के एक शासक इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम 1234-1235 ईस्वी में मंदिर को ध्वस्त करवा दिया था। कहा जाता है कि हिंदुओं द्वारा एक कुंड में छुपाकर शिवलिंग की रक्षा की गई थी। इसके बाद, मुगल शासक औरंगजेब ने यहाँ मस्जिद का निर्माण करवा दिया था।
इसके बाद, ग्वालियर-मालवा के सूबेदार और सिंधिया राजवंश के संस्थापक राणोजी सिंधिया बंगाल विजय के लिए निकले थे। इस दौरान उन्होंने उज्जैन में पड़ाव डाला और यहाँ मंदिर की दुर्दशा देखकर वह व्यथित हो गए।
उन्होंने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि जब वो बंगाल विजय कर लौटें तो मंदिर का निर्माण हो जाना चाहिए। इसके बाद राणोजी जब बंगाल पर जीत हासिल कर लौटे तो औरंगजेब द्वारा बनाई मस्जिद को ढहा दिया गया था। नवनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर महाकाल की पूजा की गई। राणोजी द्वारा ही यहाँ सिंहस्थ कुंभ की दोबारा शुरुआत की गई, जो लगभग आधी शताब्दी से बंद थी।
मंदिर की विशेषताएं
द्वादश ज्योतर्लिंग में से महाकालेश्वर एक मात्र दक्षिणामुखी शिवलिंग है। दक्षिण की दिशा यमराज की मानी गई है। मंदिर के ऊपर से कर्करेखा गुजरने के कारण इसे पृथ्वी का नाभि स्थल भी माना जाता है।
मंदिर के निर्माण के अनुसार इसे तीन खंडों में विभाजित किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में महाकालेश्वर, बीच में ओंकारेश्वर और सबसे ऊपर नागचंद्रेश्वर के शिवलिंग प्रतिष्ठित हैं।
कोटि तीर्थ कुण्ड के पूर्व में एक विशाल बरामदा है। इसी के उत्तरी ओर भगवान राम और देवी अवंतिका की प्रतिमाएं स्थापित हैं। सभी ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर एकमात्र हैं, जिनकी आरती भस्म से की जाती है। यह आरती सूर्योदय से पूर्व सुबह 4 बजे की जाती है, जिसमें भगवान को स्नान के बाद भस्म चढ़ाई जाती है। पहले यह आरती श्मशान के चिता-भस्म से होती थी, लेकिन अब यह कंडों की आग और उसके बाद उनके भस्म से होती है।
महाकाल लोक कॉरिडोर
मंदिर को एक बार फिर इसके गौरवशाली इतिहास के वर्णन के अनुसार पुनर्जीवित किया गया है। महाकाल लोक कॉरिडोर के पहले चरण का कार्य पूरा हो चुका है, जिसमें 316 करोड़ की लागत से विकास कार्य करवाए गए हैं।
900 मीटर से लंबा गलियारा पुरानी रुद्र सागर झील के चारों और फैला हुआ है। इसके दो भव्य द्वार बनाए गए हैं- नंदी द्वार एवं पिनाकी द्वार। गलियारा मंदिर के मुख्य द्वार तक जाता है जो 108 स्तंभों पर टिका हुआ है।
पहले चरण में महाकाल पथ, महाकाल वाटिका, महाकाल प्लाजा, मिड-वे जोन, महाकाल थीम पार्क का विकास किया गया है। इसके दूसरे चरण में महाराजवाड़ा, रुद्र सागर, जीर्णोद्धार, छोटा रुद्र सागर झील के किनारे राम घाट का सौंदर्यीकरण, पार्किंग एवं पर्यटन सूचना केंद्र, महाकाल गेट का निर्माण किया जाएगा।
कॉरिडोर के 108 स्तंभों पर भगवान शिव विभिन्न मुद्राओं में विद्यमान है। इसको सुंदर लाइटिंग और मूर्तियों से सजाया गया है। साथ ही, यहाँ देश का पहला नाइट गार्डन भी बनाया गया है। इसमें भगवान शिव से जुड़ी 200 मूर्तियां स्थापित की जाएंगी।
महाकाल लोक में सप्तऋषि के साथ अन्य देवी-देवताओं की 400 मूर्तियां स्थापित की गई हैं। इन मूर्तियों को गुजरात और राजस्थान के मूर्तिकारों ने आकार दिया है। इनकी लागत करीब 45 करोड़ रुपए है।
कॉरिडोर में 18,000 पौधे लगाए गए हैं। इनमें आंध्र प्रदेश से रुद्राक्ष, बिल्वपत्र और शमी के पौधे भी लगाए गए हैं। यह कॉरिडोर काशी विश्वनाथ कॉरिडोर से करीब 4 गुना बड़ा है जो इसे देश में सबसे बड़ा कॉरिडोर बना देता है। कॉरिडोर का निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है कि 1 लाख श्रद्धालु भी करीब 30-35 मिनट में महाकाल के दर्शन कर सकेंगे।
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने इसे 11 अक्टूबर की शाम देश को लोकार्पित किया है। हालाँकि, श्रद्धालु कॉरिडोर को दो दिन बाद ही देख पाएंगे।
महाकालेश्वर मंदिर सदियों से आस्था का केंद्र रहा है। देश की विरासत का पुननिर्माण कार्य ना सिर्फ श्रद्धालुओं की आस्था को प्रबल करेगा बल्कि भारतीय संस्कृति को विश्वपटल पर लाने का काम करेगा।