सुबह होने वाली थी। शैया पर लेटे-लेटे ही पारंसवी ने हमेशा की तरह अपने पति को छूने के लिए हाथ बढ़ाया, पर वहाँ कोई नहीं था। अचकचा कर उठ गई वो, हाय, यह क्या हुआ। पति उठ गए और वो सोती ही रह गई। फटाफट हाथ-मुँह धोकर बाहर निकली तो पति को घर के आगे बहने वाली एक छोटी धारा के किनारे टहलता हुआ पाया।
“क्या हुआ पतिदेव? आज बड़ी जल्दी उठ गए।”
पूरे नगर में ये पति-पत्नी कुछ अलग ही प्रकार के थे। परस्पर सम्मान और प्रेम से परिपूर्ण, और गहरे मित्र। कोई और दिन होता तो पति ने भी पलटकर ऐसा ही कोई चुटीला उत्तर दिया होता। पर आज कुछ तो विशेष बात थी जो वह एक क्षण पत्नी को देख पूर्व की भांति ही चहलकदमी करता रहा।
पत्नी पुनः बोली, “अरे प्रधानमंत्री महोदय, क्यों वामनावतार बने हुए हो? और उठ गए थे तो मुझे क्यों नहीं उठाया? लो, यह दूध गर्म कर लाई हूँ। पी लो।”
पति बोला, “काहे का प्रधानमंत्री! एक दासी तक तो दे नहीं सका तुम्हें जो तुम्हारी सहायता कर सके। दो कक्षों के इस घर को देख कौन कहेगा कि यह हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री का निवास है!”
“क्या करना है दास-दासियों का और ढेर सारे कक्षों का? हम दो लोग ही तो हैं, बाल-बच्चे हैं नहीं। थोड़ा सा खाना, और जरा से काम के लिए क्यों अनावश्यक सेवकों को रखना। अस्तु, यह बताओ कि तुम दामोदर को आज खाने पर ला रहे हो न?”
“तुम्हारे दामोदर कह देने से उसके पेट में रस्सी नहीं बंध जाती कि उसे खींचकर यहाँ तेरे सामने ले आऊं। बच्चे नहीं हैं वे। उनसे प्रथम दिन ही निवेदन किया था। पर मुझे नहीं लगता कि वे तुम्हारे घर खाने पर आ पाएंगे। स्थिति असामान्य है।”
“क्या असमान्य है? भोजन तो वे कहीं न कहीं करते ही होंगे। आज यहाँ कर लेंगे।”
“अरे, तुम समझती तो हो नहीं कुछ। आज वे पांडवों का पक्ष रखने वाले हैं राजसभा में। उस सभा में, जिसमें वर्षों पूर्व से ही दुर्योधन और उसकी कपट मंडली का राज है। मुझे सूचना मिली है कि आज दुर्योधन कुछ न कुछ अनुचित अवश्य करेगा।”
“हाय, हाय, तो क्या दामोदर के प्राण संकट में हैं?”
“हह, मुझे नहीं लगता कि उनके प्राण को संकट में डालने वाला अभी तक कोई जन्मा है। मुझे मधुसूदन की चिंता नहीं है। एक तो वे स्वयं समर्थ हैं, तिसपर उनके अंगरक्षकों के रूप में सात्यकि और कृतवर्मा जैसे महारथी भी हैं।”
यह सुन पारंसवी पुनः सहज हो गई, “जब उन पर कोई संकट ही नहीं है तो तुम क्यों दुबले हुए जा रहे हो?”
“क्योंकि मैं यादवों का नहीं, हस्तिनापुर का प्रधानमंत्री हूँ। कृष्ण पर कोई संकट नहीं, परन्तु इतिहास साक्षी है कि कृष्ण के लिए जिसने भी संकट बनने का प्रयास किया, उसका नाश ही हुआ है। भरी रंगशाला में उन्होंने कंस की ग्रीवा अपने खड्ग से उतार ली थी, और संसार भर के राजाओं की उपस्थिति में चेदि के राजा शिशुपाल का शीश अपने सुदर्शन से लुढ़का दिया था। तनिक विचारों, आज भी वैसी ही परिस्थिति निर्मित होने वाली है। आज भी एक सभा बैठेगी, और मेरा अनुमान है कि आज दुर्योधन कोई न कोई दुष्टता अवश्य करेगा। यदि मधुसूदन ने पूर्व की भाँति ही अपने खड्ग या सुदर्शन का प्रयोग किया तो?”
विदुर की बातें सुन पारंसवी बहुत देर तक विचार करती रही, फिर बोली, “देखो, यद्यपि दुर्योधन मेरा भी पुत्र ही है। परन्तु मुझे लगता है कि यदि आज ऐसा कुछ हो जाये तो यह शुभ ही होगा। यदि दुर्योधन न रहे तो कोई समस्या ही न रहे। है न?”
“है न! कुछ भी न बोला करो। हम युद्धभूमि में होने जा रहे एक महायुद्ध को रोकने का प्रयास कर रहे हैं और तुम चाहती हो कि वह युद्ध इस नगर में, इसकी गलियों में होने लगे? तुम्हें पता भी है कि यदि दुर्योधन ने कृष्ण को या कृष्ण ने दुर्योधन को तनिक भी हानि पहुंचाई तो क्या होगा? कृष्ण के साथ जो दो यादव नायक आये हैं न, वे अपनी एक-एक अक्षोहिणी सेना के साथ आये हैं। और इधर हस्तिनापुर की सेना तो है ही, साथ ही राजसभा में कई नरेश भी हैं जो दुर्योधन के पक्षपाती हैं। गांधार का शकुनि है, अंग का कर्ण है, अहिच्छत्र का अश्वत्थामा है और सिंधु का जयद्रथ है। कौरवों और पाण्डवों में युद्ध होगा या नहीं, यह तो निश्चित नहीं, पर आज कुछ अनहोनी हो गई तो कौरवों और यादवों में अवश्य ही युद्ध हो जाएगा।”
विदुर इतना कहकर चुप हो गए और पारंसवी के बोलने की प्रतीक्षा करने लगे। उधर पारंसवी ने अपने पति की चिंतित मुखमुद्रा को एकटक देखा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। विदुर चिढ़ गए, उठकर जाने लगे तो उस प्रौढ़ा ने किसी युवती की भांति दोनों हाथ फैलाकर उनका मार्ग रोक लिया और उसी तरह खिलखिलाते हुए बोली, “अरे महाविद्वान विदुर जी, अच्युत है वो, उसे क्या हो सकता है? होगा तो वही, जो वो चाहेगा।”
पिछले कई घण्टों से विदुर जाने क्या-क्या सोचकर व्यथित हो रहे थे, पर पारंसवी की यह बात सुन उन्हें भी लगा कि सच ही तो है। कृष्ण अच्युत हो या न हो, पर होनी को कौन टाल सकता है। विदुर सहज हुए और राजसभा जाने की तैयारी करने लगे। पारंसवी पुनः बोली, “भूलना मत। उन्हें साथ ले आना खाने पर।”
“मैं बोल दूंगा। पर तुम यह मानकर चलो कि कदाचित वे आज न आ पाए।” इतना बोल विदुर चले गए।
पारंसवी नहा रही थी। सुबह के काम-धाम निपट चुके थे और दोपहर का भोजन बनाना था। क्या पता दामोदर आ ही जाएं। तो उनके लिए भोजन बनाने से पहले पुनः एक बार नहा लेना उचित समझा था उस प्रौढ़ा ने। तभी उसे एक बड़े भारी रथ की आवाज सुनाई दी, और एक पुकार, “काकी, ओ काकी। कहाँ मर गई? बड़ी भूख लगी है। फटाफट कुछ खिला दो, मुझे शीघ्र ही निकलना है।”
स्नानागार से ही चिल्लाई पारंसवी, “कौन है?”
“कौन हैं? अरे मैं हूँ, तेरा दामोदर।”
कृष्ण आया है! द्वार पर कान्हा खड़ा है!! मोहन भूखा है!!! पारंसवी झट से बाहर आई और देखा कि उसका दामोदर चौखट का सहारा लिए एक पैर पर बल दिए, टेढ़ा खड़ा है। उसके मुकुट पर लगा मोरपंख भी टेढ़ा है, मुकुट से निकलकर एक टेढ़ी लट उसके माथे पर पसरी है और उसकी मुस्कान भी टेढ़ी है।
वह चरण स्पर्श करने झुका ही था कि प्रौढ़ा ने उसके हाथ पकड़ लिए और उन हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। कृष्ण ने चाहा कि उसके नेत्रों से निकलते अश्रुओं को अपने हाथ से पोंछ दें, पर वो हाथ छोड़े तब न। उसी तरह हाथ पकड़े-पकड़े कृष्ण को अंदर ले गई और एक जगह उसे बिठाकर स्वयं भी बैठ गई। बस उन्हें देखे जा रही थी, और नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। कृष्ण भी बस उसे देखे जा रहे थे और होंठों की मुस्कान यथावत बनी हुई थी।
कुछ देर बाद कृष्ण बोले, “काकी, बस देखती रहेगी या कुछ खिलाएगी भी।”
झटका सा लगा उसे, बोली, “हं? ह, ह। अभी खिलाती हूँ। बस आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। तब तक यह फल खाएं।” और उसने केले छीलकर उसके छिलके परोस दिए। कृष्ण भी मुस्कुराते हुए छिलके ही खाने लगे।
उधर पारंसवी रसोई में गई, इधर विदुर ने हड़बड़ाते हुए कक्ष में प्रवेश किया। आज राजसभा ने कृष्ण का बहुत अपमान हुआ था। पूर्वकाल में एक दूत का अपमान किया गया था तो उसने पूरा नगर फूँक दिया था। कृष्ण भी दूत बनकर आये थे। वे चाहते तो कुछ भी कर सकते थे। विदुर को लगा था कि सात्यकि और कृतवर्मा उन्हें निकालकर अपने शिविर में ले गए होंगे और तत्काल ही हस्तिनापुर पर आक्रमण करने की योजना बन रही होगी। इधर दुर्योधन के पक्ष वाले भी अपने शस्त्र तेज कर रहे थे।
वे तो कृष्ण को खोजने निकले थे कि उन्हें मना कर, उनके क्रोध को शांत करने का प्रयास करेंगे, पर वे तो उनके अपने घर में बैठे थे। प्रसन्नचित, केले के छिलके खाते हुए! कृष्ण ने उन्हें देखा तो हँसते हुए बोले, “आओ, आओ काका। तुम्हारे ही घर में तुम्हारा स्वागत है। लो, फल खाओ।” और छिलका बढ़ा दिया।
विदुर हाथ जोड़कर बोले, “क्षमा द्वारकाधीश, क्षमा। दुर्योधन के कृत्य के लिए भी और इस आतिथ्य के लिए भी। मैं अभी ताजे फल ले आता हूँ।”
कृष्ण उन्हें रोकते और अपने निकट बैठाते हुए बोले, “काका, पहली बात कि मैं द्वारिकाधीश नहीं। वह तो मातामह उग्रसेन हैं। और दूजी बात, मैं यहाँ आपके घर में यादव नायक बनकर नहीं, बल्कि आपके पुत्रों, पांडवों का भाई बनकर आया हूँ। तो मैं भी आपका पुत्र ही हुआ न? अतः यह औपचारिकता छोड़िये। राजनीति फिर कभी कर लेंगे।” विदुर मुस्कुराकर रह गए। तभी कृष्ण तनिक ऊँची आवाज में बोले, “अरी काकी! आज मुझे भूखा ही मार दोगी क्या? जल्दी कुछ लाओ, नहीं तो मैं चला कहीं और। भैया भीम बता रहे थे कि माता गांधारी की रसोई बड़ी स्वादिष्ट होती है।”
मेरा दामोदर मेरे घर से भूखा चला जाये और कहीं और भोजन करें, यह बड़ी पीड़ाजनक बात थी। पारंसवी ने फटाफट कुछ बनाया और थाली सजाकर लाई।
विदुर चौंक पड़े। नाममात्र के वस्त्र पहने थी वो। थाली में सूखा साग और बाजरे की मोटी-मोटी रोटी।
कृष्ण उत्साह से उछल पड़े, जैसे कई दिनों के भूखे को खाना दिख गया हो, और लपक-लपक कर वे सूखा साग और मोटी रोटी खाने लगे।
पारंसवी रह-रह कर भोजन करते कृष्ण का सिर सहला रही थी। ऐसा करने से माधव के बाल बिखर रहे थे।
यह दृश्य देख कृष्ण के निकट ही रखे मुकुट पर लगा मोरपंख मुस्कुरा उठा और विदुर त्रेता के राम-शबरी को देख हाथ जोड़े अश्रु बहाते बैठे रहे