एक शेर था, जिसका नाम था- गधा। कभी-कभी उसे ‘ऐ गधे!’ करके भी पुकारा जाता था। एक बार वो जंगल में शिकार पर निकला। उसे हिरन बहुत पसंद थे। उनका माँस बहुत नरम और स्वादिष्ट होता था, और उनकी खाल से शेरनी के लिए बेहतरीन कुर्ता और पौंचू बनता था। हालाँकि वह और भी बहुत कुछ खाता था, पर आज बात ही कुछ और थी।
तो हुआ ये कि आज दोपहर में वह पन्ना के जंगलों से निकल कर देवरा गाँव में घुस गया, और वहाँ उसने परसिया के घर पर धावा बोला। गाँव के अधिकांश व्यक्तियों की तरह परसिया भी मजदूरी करने सपरिवार दिल्ली गया हुआ था और उसका पूर्व से ही खाली घर और खाली हो गया था। गधे को (अर्थात शेर को) वहाँ पर और कुछ तो नहीं मिला, पर खपरों के एक चट्टे में जब उसने गुस्से से पंजा मारा तो उसके नीचे एक अजीब सी महक वाला तरल निकला।
तरल दरअसल महुए का लाहन था, जिसे परसिया ने आबकारी विभाग की नज़रों से बचाकर रखा था, जिससे वक़्त ज़रूरत के लिये शोकमर्दिनी आसव प्राप्त किया जा सके। दिल्ली जाते वक़्त वह उसे नष्ट करना भूल गया था।
गधे ने (अर्थात शेर ने) उसे सूँघा तो उसे तीक्ष्ण दुर्गंध आई। वह तत्काल पीछे मुड़ा और बाहर जाने लगा। फिर उसे लगा कि गंध में कुछ अनूठी बात है। वह उसे फिर सूँघने पहुँच गया। निरन्तर लहान से नाक लगाए रखने पर उसे ज्ञात हुआ कि दरअसल वह दुर्गंध नहीं, सुगंध है, और उसे ग़लतफ़हमी हो गई थी। फिर उसने उस लहान में जीभ मारी। उसे बहुत कसैला-कड़वा स्वाद मिला। “छी! कितना घटिया है।” वह पुनः मुड़ा और जाने लगा। पर पुनः रुक भी गया।
गंध की ही तरह उसे लगा कि उसके स्वाद में भी कुछ अनूठी बात है। चप्प! उसने एक और जीभ मारी। “उतना बुरा भी नहीं है।” फिर चप्प-चप्प, लपर-लपर करके वह सारा लहान चट कर गया और वापस जंगल की ओर चल पड़ा। परन्तु इस बार गधे (शेर) के लिए अनूठी बात हुई।
शेर को अपनी चाल में मस्ती का अहसास हुआ। उसे अपने शेर होने का अहसास हुआ। उसे लगा कि जैसे वह भूल गया था कि वो शेर है। और भी अनेक बातें जो पाठकों को बाद में पता चलेंगी। पर एक तात्कालिक बात ऐसी थी जिसे पाठकों को तत्काल बताना आवश्यक है।
पाठक जानते हैं कि शेर भूखा था (हमेशा की तरह)। रास्ते में उसे जंगली सुअर, नील गाय, जंगली भैंसा सब मिले, पर शेर की इनमें से किसी को खाने की इच्छा नहीं हुई।
शेर ने यह अनुभव किया कि जबसे उसने वह लहान पिया है उसकी हिरन खाने की इच्छा बलवती हो गई है। अन्य कोई भी भोजन उसे साधारण लग रहा था। नशा मदिरा का हो या सत्ता का, नशे के बाद शिकार शानदार होना चाहिये। अब वह हिरन खोजने लगा। पर तभी उसके सामने एक अन्य जानवर आ खड़ा हुआ। खड़ा क्या हुआ, अड़ गया। वह जानवर था गधा।
गधे ने(जो शेर था) कहा ,“ऐ गधे, सामने से हट! आज मेरा तुझे खाने का मन नहीं है।”
गधे ने( जो सच में गधा था) कहा, “ तो साइड से निकल जा, रोका किसने है!”
यह बात सुन कर शेर सन्न रह गया। शेर से इस तरह बात करने का किसका साहस हो सकता था भला, और वो भी एक गधा? शेर का नाम भले ही गधा हो, था तो वो शेर ही।
उसने आर्यावर्त में छद्म भेष में घूमने वाले ऋषि-मुनियों की बहुत कहानियां सुनी थीं। जो कहीं भी, कभी भी, बिना किसी पूर्व-सूचना के परीक्षा लेने प्रगट हो जाते थे। शेर को लगा कि हो सकता है ये गधा भी उन्हीं चलित परीक्षकों में से एक हो। महुए का लाहन पीने के बाद से उसके अंदर श्रद्धा भाव भी बहुत प्रबल हो रहा था। उसने कहा, “हे गर्दभवेषधारी आप कौन हैं, और इस निर्जन वनप्रान्तर में क्यों भटकते हैं? अपना परिचय दें मुनिवर।”
गधे ने कहा, “मैं शेर हूँ, और तुम लगता है गधे हो।”
यह सुन कर शेर पुनः सन्न रह गया। उसने सोचा कि इन्हें मेरे घर का नाम कैसे मालूम? हो न हो, ये ज़रूर कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं। अब उसके मन में वरदान पाने की इच्छा बलवती हो गई। उसने महात्मा जी (जो गधा था) से कहा, “ आप सत्य कहते हैं भगवन। मैं गधा हूँ, और आप शेर।” फिर वह वरदान पाने के लिये उद्यत हुआ।
एक आदर्श याचक की एक विशेषता होती है। वह सीधे याचना नहीं करता। जैसे उसे आपसे पैसे उधार लेने हैं तो वह कहेगा कि आज का मौसम कितना अच्छा है। आप कितने सुंदर हैं। पाँच सौ उधार मिलेंगे क्या? तो इसी तरह शेर बोला, “ऋषिवर ये भी क्या संयोग मात्र है कि आप गधे हैं और आपका नाम शेर है और मैं शेर हूँ परन्तु मेरा नाम गधा है? इस गूढ़ रहस्य को उजागर करें!”
शेर (जो वास्तव में गधा था) बोला, “राजन इस सकल चराचर जगत की कोई भी घटना संयोग से नहीं होती। सभी कुछ कार्य-कारण से संचालित है। इसी तरह तुम्हारा मुझसे मिलना भी किसी प्रयोजन से है। शेर(वही गधा) अब दार्शनिक के रूप में था, “राजन इस दुनिया में दो प्रकार के लोग पाये जाते हैं। प्रथम वे जो घर में शेर और बाहर गधे होते हैं। द्वितीय वे जो घर में गधे और बाहर शेर होते हैं।”
गधा (अर्थात शेर) पूर्व से ही लहान के प्रभाव में था, यह सुनकर शेर (अर्थात गधे) के चरणों में बैठ गया, “मुनिवर यदि प्रत्येक घटना का कारण है तो इसका अर्थ है कि मेरे शेर से गधे होने का भी कारण होगा।”
“अवश्य है!” शेर (मल्लब गधा) बोला, “तुम पहले शेर ही थे, जब तक तुम्हारा राजतिलक नहीं हुआ था। एक शेर का गधे में परिवर्तन ही वह मूल्य है जो वह राजा के रूप में अपनी पदस्थापना के बदले चुकाता है। पद पर बने रहने की लालसा, निकट सम्बन्धियों की आशाएँ-इच्छायें, नीतिगत दबाब, सम्पत्ति की सुरक्षा, शत्रुओं की मित्रता, मित्रों की शत्रुता – ये सभी वे बोझ हैं जो किसी भी शेर को गधा बनाने के लिये पर्याप्त हैं।”
यह सुन कर गधा (अरे वही शेर, यार!) जो पहले से ही शेर (अरे वही गधा,यार!) के चरणों में बैठा था, उसके पैर पकड़ कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। शेर ( कितनी बार बताऊँ) ने अपना प्रवचन जारी रखा –
‘राजन अब तुम्हारे पास खोने के लिये पर्याप्त सामिग्री है। सबसे प्रथम तो तुम्हारा शेर होना ही है। तुम स्वयं अपने शेर होने के भार से दबे जा रहे हो। तुम्हारी सुबह से शाम यही साबित करने में चली जाती है कि मैं शेर हूँ। प्रातः घर से बाहर निकलते ही तुम इसी कार्य में जुटते हो। मार्ग पर, कार्यालय में, बैठक में, मित्रों में ,जनता में सभी जगह तुम यही प्रमाणित करते रहते हो कि मैं शेर हूँ। फिर शाम को जैसे ही तुम घर पहुँचते हो ,शेरनी कहती है- आ गया गधे!
गधा अब हिचकियाँ ले-ले कर रोने लगा। बोला, “आप सही कहते हैं शेर महाराज। जंगल में दो नये शेर आ गए हैं। दोनों मिल कर मेरी सरकार गिराने में लगे हैं। उनके साथ मेरा साला भी मिल गया है। साले के नाम पर मैंने बहुत प्रॉपर्टी ली। वो चाहता था कि उसके माल को जंगल में प्रवेश पर कर से छूट मिले। मैंने कह दिया ये सम्भव नहीं है। भ्रष्टाचार नहीं चलेगा। तो उसने ये बोल कर बग़ावत कर दी कि बड़े उद्योगपतियों को तो संसद में बिल पास करा कर छूट दे रहे हो, हमें ऐसे ही नहीं दे सकते। अब उसे कौन समझाये की ये नीतिगत निर्णय है। पार्टी चलाने के लिये सरकार को बड़े नीतिगत निर्णय लेने पड़ते हैं। मैंने अपनी शेरनी को बोला कि अपने भाई को समझाये। इधर इन सब के बीच, काम के इस तनाव में मुझे किसी ने बहुत ‘भावनात्मक’ सहारा दिया। वो एक नये मीडिया चैनल की तेज-तर्रार ख़ूबसूरत पत्रकार थी। पर शेरनी को उस पत्रकार के बारे में पता चल गया, तो वो भी अपने भाई के साथ हो गई है। उधर वो पत्रकार जो मुझे भावनात्मक सहारा दे रही थी, अब भावनात्मक ब्लैकमेल कर रही है। कहती है मुझे राज्यसभा में भेजो, नहीं तो मैं, हमारे ‘भावनात्मक’ सम्बन्धों का भांडा फोड़ दूँगी। अगर उसे राज्यसभा भेजता हूँ तो सहयोगी दल के सदस्य को नहीं भेज पाऊँगा, और सरकार गिर जाएगी। सरकार तो दोनों सूरतों में गिरनी …… मैं क्या-क्या बताऊँ महाराज! मैं सच में शेर नहीं, गधा हूँ, गधा!”
इतना बोल कर गधा, अपना जूता, अपने ही सिर पर ज़ोर-ज़ोर से मारने लगा। फिर जब थक गया तो उसने अपने पंजे से अपनी बहती नाक पौंछी और बोला , “पर महाराज आप तो गधे थे, आप शेर किस प्रकार बने?”
“राजन मेरे पास खोने के लिये कुछ नहीं है। जिनके पास खोने के लिये कुछ नहीं होता, वो शेर होते हैं। उन्हें मित्रामित्र का कोई भय नहीं होता। वे मानापमान से ऊपर हो जाते हैं। मेरे मालिक ने मुझे एक-दो बार टोका तो मैंने उससे स्पष्ट कह दिया- काम करवाना हो तो करवा, वरना मैं जाता हूँ। मेरा क्या खर्चा है, कुछ नहीं! मुझ मलंग को तू क्या डराएगा! अपनी पर आया तो तेरी सब लंका ढहा दूँगा। मेरी मेहनत को कम मत आँकियो, समझा!”
“यह बोलते हुए आपको डर नहीं लगा? मालिक ने नौकरी से निकाल दिया होगा?”
“सच कहूँ? बोल तो दिया, पर अंदर से डर बहुत लगा। क्योंकि मुझसे कम कीमत पर भी बहुत से गधे काम करने को तैयार थे। हम गधों में कभी एका नहीं हो सकता। साले अपने श्रम की कीमत ही नहीं समझते। पर एक बात को लेकर मैं आश्वस्त था..”
“वो क्या महाराज?”
“कि श्रम को पूँजी की ज़रूरत है, पर उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरत पूँजी को श्रम की है। पूँजी की निर्भरता श्रम पर अधिक है, बनिस्बत श्रम की पूँजी पर निर्भरता के।”
“परन्तु महाराज तकनीकि नवाचार से ये निर्भरता कम नहीं हो रही क्या?” गधे ने प्रतिवाद किया।
यह सुन कर शेर ने गधे को घूर कर देखा, “तू ज़्यादा होशियार मत बन! दो दुलत्ती में ठीक हो जायेगा। गधा है, गधे की तरह रह!” शेर ने बात जारी रखी, “तो मैं जानता था मालिक मुझे यूँ ही आसानी से नहीं छोड़ सकता। उसने तुरंत मुझसे मिन्नत की कि देख तू चला गया तो मेरे लिये नदी से मिट्टी कौन लाएगा? फिर वो कहता- तू गधा नहीं है, तू तो मेरा शेर है, शेर!”
यह कह कर उस खुर वाले शेर ने बोलना जारी रखा, और पंजे वाला गधा सुनता रहा –
“किसी व्यक्ति के लिये गधा बनने के दो निर्माण स्थल हैं, पहला है कार्यालय और दूसरा है उसका घर। कार्यालय की बात तो तुम सुन चुके हो राजन, अब घर की बात सुनो! घर पर शेर बनना सबसे ख़तरनाक है। कार्यालय में शेर बनने पर गधा बनने की जो प्रायिकता है, घर पर वही प्रायिकता दुगनी हो जाती है। घर पर शेर होने के नाते तुमने शेरनी से कहा- तुम बाहर काम नहीं करोगी, गृहणी बन कर रहो। बस! समझो वहीं से तुम्हारे गधे बनने की शुरुआत हो गई। ये पितृसत्ता बहुत भारी पड़ती है। ये गृहणियां इस पितृसत्ता का बहुत कुशलता से उपयोग करना जानती हैं। कुछ समय बाद इस पितृसत्ता में से पुरुष के पास केवल पितृ-पितृ रह जाता है। सत्ता इन गृहणियों के पास पहुँच जाती है। इसलिये घर पर गधे बन कर रहने वाले ही शेर बन सकते हैं। तुमसे यही गलती हुई।”
यह सुन कर गधा फिर से, जो बंद हो गईं थीं, वही हिचकियाँ ले-ले कर रोने लगा, मानो शेरनी की कोई बात याद आ गई हो। शेर ने बोलना जारी रखा –
“मैंने अपनी गधैया से साफ कह दिया कि देख मैं तो हूँ गधा। मेरे पास कुछ नहीं है। मैं तो मलँग हूँ। मुझे कुछ नहीं आता। जो घर चलाना है तो तुझे भी काम करना होगा। अब गधैया घबरा गई।”
“घबरा गई?”
“हाँ! नारीवादी बनना कोई मज़ाक थोड़े ही है। काम करना पड़ता है। वो बोली- नहीं,नहीं, मुझसे न होगा। तुम जो कमा कर लाओगे, उसी से घर चला लूँगी। तुम तो मेरे शेर हो,शेर! ….मैंने भी गधैया को बोल दिया- तो मुझसे कोई डिमांड मती करियो। जो कुछ चाहिये, तो ख़ुद कमाओ। मेरे ऊपर वैसे ही कुम्हार की मिट्टी का बोझ है। तू मती लदै!”
ओठों से बाहर आते, बड़े कृन्तक वाले इस शेर के भाषण से वो नुकीले रदनक वाला गधा अत्यंत अभिभूत था। उसने बात आगे बढ़ाई, “तो महाराज आप अपने मालिक के पास जा रहे हैं?”
“अरे नहीं रे! मालिकों का तो तुम जानते ही हो; छोटे गांव का बुर्जुआ, क्या करता गांव में? कहता था- यहाँ क्या बचा है अब? गया है दिल्ली ,बड़ा आदमी बनने। साला लालची! मैंने बहुत समझाया कि हम फिर से गाँव को जीवित करेंगे। लेकिन नहीं! वहाँ मजदूरी करेंगे साहब, पर गाँव में नहीं रहेंगे। हर छोटे बुर्जुआ की यही नियति है ,उसे अंत में सर्वहारा में शामिल होना ही है।’
“पर हुज़ूर ऐसा भी तो हो सकता है कि वो शहर जाकर मध्यम वर्ग में शामिल हो जाय, सर्वहारा बने ही नहीं।” उस अयाल वाले गधे ने कहा।
“तूने फिर होशियारी दिखाई! दूँ दुलत्ती तुझे? साले क्रांति के दुश्मन!” बड़े, खड़े कान वाला सिंह क्रोधित हुआ।
इससे वो दहाड़ने वाला गधा सहम गया। आख़िर उसे वरदान जो लेना था। उसने बात नहीं काटने का निश्चय किया। फिर वह बोला , “आपका बुर्जुआ, मतलब मालिक कहाँ गया? अब आप क्या करते हैं?”
रैंकने वाले शेर ने बताया, “दिल्ली चला गया साला, अपनी कुल्हड़-सकोरे की फैक्ट्री बंद कर गया। हम सब ने कहा- मालिक हमारे परिवारों का क्या होगा? तो साला अपनी गलतियों की बजाय, तालाबंदी के लिये हम मजदूरों को ज़िम्मेदार ठहराने लगा कि तुम लोगों के कारण यह हुआ है।”
“अरे! फिर?”
“हमने कहा कि ये प्लास्टिक वाले कुल्हड़-सकोरे का अविष्कार हमने किया है क्या?”
“तो क्या महाराज आपको भी अंदेशा नहीं था कि आपके साथ ऐसा होगा? आप तो शेर हो!” केसरी गर्दभ ने पूछा।
“तू क्या क्रांति की विफलता का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने आया है रे!” वैशाखनन्दन सिंह नाराज़ हुआ।
“अरे नहीं प्रभु! मैं तो बस जानना चाहता हूँ। तो फिर कुछ मुआवज़ा वगैरह मिला आपको?”
“मुआवज़ा कितने दिन चलता! मालिक हम लोगों की कमज़ोरी जानता था। मुझसे बोला- देख मुआवज़ा तो ज़्यादा नहीं है पर अच्छा-खासा महुए का लाहन इकट्ठा है। तेरे दो-तीन महीने का काम चल जायेगा। वही तो तुम्हारा सबसे बड़ा खर्चा है। दो-तीन महीने में मैं लौट कर आऊँगा, फिर कुछ देखते हैं।”
“लाहन क्या होता है महाराज?” शेरनी के गधे ने सवाल किया।
“महुए को सड़ाकर ,या कह ले किण्वन कर के बनता है। बाद में आसवन से उससे शराब भी बना सकते हैं,” गधैया के शेर ने बताया।
“अरे वो जो खपरों के नीचे रखा था, मीठी सी महक वाला, वही? वो घर खाली पड़ा था, उसमें?”
“हाँ वही! पर तुझे कैसे पता?”
“अरे अभी मैं भटकता-भटकता वहीं पहुँच गया था। क्या शानदार चीज़ थी। पूरा चट कर गया। उसके बाद से आनन्द ही आनन्द है!”
“क्या पूरा पी लिया?”
“हाँ!”
यह सुन कर उस सिंह ने संयम की साँस ली और धैर्य से थूक गटक कर ख़ुद को काबू में रखा। फिर वह वनराज गधा, सिंह से बोला, “महाराज आप तो अन्तर्यामी हैं। सिद्ध हैं। मुझे कोई ऐसा वरदान दीजिये जिससे मैं, आपकी तरह, सिंह बन जाऊँ।”
“अवश्य राजन, तुम्हें वरदान अवश्य मिलेगा,” यह कह कर वह सिंह, उस पूर्व से ही धूलधूसरित गर्दभ पर दनादन दुलत्ती बरसाने लगा, “साले मेरा तीन महीने का लहान एक दिन में चट कर गया , गरीबों की मिट्टी पर टैक्स लगाता है, बड़ी कम्पनियों को छूट देता है,” वह दुलत्ती बरसाता जा रहा था, “कोई एक बोरी कोयला खदान से निकाल ले तो चोर, और खुद कम्पनियों के साथ खदान की खदान खाली कर दे तो कुछ नहीं! साले! न मेरे कारण, न मेरे मालिक के कारण, तेरी नीतियों से बरबाद हुआ है हमारा धंधा और हमारा गाँव! ले एक दुलत्ती और खा! ले एक और! एक और! अरे औकात नहीं थी तो इतनी क्यों पी? नशे में धूल में लोट रहा है। जानता है धूल में कौन लोटता है? गधा ही है तू! किसी काम का नहीं है! तेरे सालों से बोला था सस्ती मिट्टी दिलवा दो वरना मालिक काम बंद कर देगा, पर तुझसे वो भी न हुआ। शेरनी ठीक ही कहती थी मुझसे कि वो तो गधा है ,गधा! आप आते रहना।”
गधा इतने नशे में था कि वो कुछ नहीं कर सकता था। उसके अयाल के बालों में पहले से ही लगे लाहन पर ढेर सारी मिट्टी चिपक गई थी। वह ज़मीन पर पड़ा था। सिंह उस पर दनादन दुलत्ती बरसा कर चला गया। अर्धचेतन अवस्था में वह यही सोचता रहा कि– ये महाराज शेरनी को कैसे जानते हैं?