अपराधियों यानि दूसरों को दुःख देने वालों की पराजय पर उत्सव मनाना भारतीय संस्कृति का अंग रहा है। दुर्गा सप्तशती भी ऐसा ही बताती है, जिसका अभी लाखों हिन्दू शारदीय नवरात्रि के दौरान श्रद्धापूर्वक पाठ कर रहे हैं। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गा सप्तशती में माँ दुर्गा की विभिन्न लीलाओं को बताया गया है।
कुछ बुद्धिजीवी और वामपंथी ज्ञान देते हैं कि अपराधियों की मृत्यु पर भी खुश नहीं होना चाहिए, जो मर गया उसका पाप भी उसके साथ चला गया? कोई इनसे पूछे कैसे भाई? अपने जीवन में उसने जो नुकसान कर दिया उसे तो वह पीड़ित लोग अब तक भोग रहे हैं। अपराध और अपराधी, दोनों का अंत आनंद का अवसर है।
हिन्दू धर्म में एक ओर बच्चे प्रह्लाद को मारने की कोशिश करने वाली होलिका के नाश पर होली पर्व मनाया जाता है, तो दूसरी ओर महिला सीता माता पर बुरी दृष्टि डालने वाले रावण की पराजय पर विजयादशमी मनाई जाती है। महिला और बाल सुरक्षा के प्रति इतनी सजगता और कहीं नहीं दिखती, ताकि हमेशा इन दोनों अपराधियों का हश्र देखकर लोग सीख लेते रहें।
ऐसे ही दुष्टों की मृत्यु का आनन्दोल्लास है नवरात्र, उसका गीत है श्रीदुर्गा सप्तशती। संसार में लोगों को तरह-तरह से सताने वाले आतंकवादियों की मृत्यु का हर्षोल्लास और उन्हें मारने वालों की महिमा का गान है रामायण, महाभारत और पुराण।
इसीलिए महर्षि वेदव्यास के ग्रंथों के लिए कहा गया है, “अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।” यानि अठारह पुराणों में ऋषि व्यास ने दो ही बातें कही हैं, दूसरों पर उपकार करना पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है। राक्षसों के मरने पर देवता भी पुष्पवर्षा करते हैं। अप्सराएं नृत्य करतीं हैं, गन्धर्व गाते हैं।
फिर, मनुष्य क्यों दुष्टों की मृत्यु पर हर्ष नहीं करेंगे? गाते हैं वेद वृत्रासुर के हन्ता असुरारि इन्द्र की महिमा।
नादानी से भरी आत्मघातक नैतिकता, जिससे व्यक्ति अपराधियों द्वारा बनाए गए सोशल नॉर्म्स से दबकर अपनी स्वाभाविक भावनाओं को दबाता है उसे सावरकर ने सद्गुण विकृति कहा है। इसके कारण कई अच्छे लोग भी अपनी बेहिसाब हीनभावना के कारण नैतिकता और इंसानियत जैसे भारी-भरकम शब्दों के फेर में पड़कर शत्रुओं के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
श्रीदुर्गा सप्तशती में पापियों की मृत्यु पर बार-बार देवता बहुत प्रसन्न होते हैं। भगवती स्वयं कहती हैं कि जब मैं दैत्यों को मारूँगी तो देवता हर्ष गर्जना करेंगे। आइए देखते हैं श्रीदुर्गा सप्तशती में कहाँ-कहाँ हुआ है ऐसा उत्सव :-
महिषासुर वध के समय सप्तशती तृतीय अध्याय में
दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाले महिषासुर के वध के समय सप्तशती तृतीय अध्याय में वर्णन आता है
देव्युवाच॥ ३७॥
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः॥३८॥
अर्थात्, देवी ने कहा — ओ मूढ़ ! मैं जब तक मधु पीती हूँ, तबतक तू क्षणभर के लिये खूब गर्ज ले। मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे॥
ऋषिरुवाच॥३९॥
एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत्॥ ४०॥
अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः॥४२॥
ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः॥४३॥
तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥४४॥
ऋषि कहते हैं – यों कहकर देवी उछलीं और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कण्ठ में आघात किया॥ आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया॥ फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्यों की सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये॥ देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गादेवी का स्तवन किया। गन्धर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं॥
सप्तशती के आठवें अध्याय में रक्तबीज का वध
तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिॠष्टिभिः॥६०॥
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहितः॥६१॥
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः॥६३॥
काली के मुख में उत्पन्न सब दैत्यों को भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुण्डा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ॠष्टि आदि से मार डाला। राजन् ! इस प्रकार शस्त्रों के समुदाय से आहत एवं रक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा । नरेश्वर ! इससे देवताओं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई॥ और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत सा होकर नृत्य करने लगा॥
सप्तशती का दसवां अध्याय जिसमें देवी ने शुम्भ को मारा
शुम्भ और निशुम्भ नाम के असुर की भगवती दुर्गा पर बुरी दृष्टि थी और वह उनका अपहरण करना चाहता था, इसलिए देवी पर हमला करने के लिए रक्तबीज और चंड मुंड जैसे दुष्टों को भेज रहा था, तब घोर युद्ध के बाद देवी दुर्गा ने उन सबको दण्डित किया:-
ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः॥३०॥
अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
ववुः पुण्यास्तथा वाता: सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः॥३१॥
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः॥३२॥
उस समय शुम्भ की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण देवताओं का हृदय हर्ष से भर गया और गन्धर्वगण मधुर गीत गाने लगे॥ दूसरे गन्धर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वायु बहने लगी। सूर्य की प्रभा उत्तम हो गयी॥ बुझी हुई आग अपने आप प्रज्वलित हो उठी तथा सम्पूर्ण दिशाओं के भयंकर शब्द शान्त हो गये॥
ऐसे ही बहुत से विवरण रामायण महाभारत में भी मिलते हैं। प्रसिद्ध अपराधियों की मृत्यु पर राज्यसभा सांसदों जैसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रखने वाले लोग दरअसल समाज में अपराधों के प्रति नफरत को दबाना चाहते हैं। वास्तव में ऐसे लोग अपराधियों के ही पक्ष में होते हैं। किसी घोर अपराध करने वाले भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, समाज तोड़ने वाले, विषैली विचारधारा वाले या किसी और तरह के अपराधी के प्रसिद्ध होने मात्र से उसका अपराध कम नहीं हो जाता।
इसका अर्थ तो यह हुआ कि समाज बलात्कारियों, आग लगाने वाले, चोर डकैतों, दंगाइयों, हत्यारों की मृत्यु पर भी प्रसन्न न हो, और इंसानियत की माला जपे। मरने के बाद व्यक्ति के अपराधों की आलोचना नहीं करनी चाहिए, यह भी एक भ्रम ही है। इनके अनुसार अपराधियों की मृत्यु पर सज्जनों का प्रसन्न होना और सज्जनों की मृत्यु पर अपराधियों का प्रसन्न होना एक ही बात है, जबकि अपराधी सज्जनों की मृत्यु से अच्छाई के अंत का आनन्द लेता है और सज्जन अपराधी की मृत्यु पर सत्य की जीत का आनन्द लेता है, दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।
इसलिए आततायियों और अपराधियों की मृत्यु पर प्रसन्नता व्यक्त करना एक विश्वव्यापी परिपाटी है, हिन्दू धर्म में तो यह परम्परा के रूप में है, यह आपके स्वाभाविक आनन्द का अवसर है। सप्तशती से भी हमें सीख मिलती है कि अपराधियों के विनाश पर हम प्रसन्न हों।