लव जिहाद यानि मुस्लिम युवकों द्वारा पहचान छिपा कर हिन्दू और अन्य धर्मों की युवतियों को प्रेम जाल में फंसाना और पहचान जाहिर होने पर लड़की को ब्लैकमेल करना और शादी करके धर्म परिवर्तन का दबाव डालना आदि आदि। लव जिहाद ने मुस्लिम समाज को आतंकवाद से कम बदनामी नहीं दी है और यह मामला भारत में प्रगतिशील हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच में आपसी संदेह को बढ़ाने वाला बनता जा रहा है और जहाँ प्रगतिशीलता के बीच धार्मिक पहचान आ जाये उसको प्रगतिशीलता नहीं कहा जा सकता। तो संक्षेप में, धार्मिक आचरण ने प्रगतिशील आचरण को प्रतिस्थापित करना शुरू कर दिया है और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योकि प्रगतिशील लोग पहचान खोने के डर से दबे हुए हैं। सिर्फ इसीलिए लव जिहाद जैसे मुद्दे पर प्रगतिशील लोगों को बहस करने की आवश्यकता है, ताकि मामला धर्मांधों के कब्जे में न रह जाये, जिनका मतलब मुद्दे को बनाये रखने से है।
इस मुद्दे पर प्रगतिशील कहे जाने वाले लोगों की जिस बिरादरी ने सबसे ज्यादा निराश किया है वो है शैक्षणिक जगत। धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले शैक्षणिक जगत के लम्बरदारों ने क्योंकि लव जिहाद जैसी किसी भी चीज़ के अस्तित्व को नकार दिया है, और इसे मुस्लिम समाज के खिलाफ एक अभियान के तौर पर देखा है, तो यह जिम्मेदारी खुद को पीड़ित कह रहे पक्ष के बौद्धिकों की है कि लव जिहाद को परिभाषित करें और इससे निपटने के प्रयासों के बारे में सोचें। दुःख इस बात का है कि पीड़ित कहे जाने पक्ष के बौद्धिक लोग भी इस समस्या के मूल कारणों के बारे में चर्चा नहीं करना चाहते। लव जिहाद जैसे विषय का विरोध करने वाले दर्जनों अध्ययन मिल जायेंगे लेकिन पीड़ित पक्ष के तर्क का वस्तुनिष्ट विश्लेषण करने वाला कोई अध्ययन ढूंढने पर भी नहीं मिलता। पीड़ित हिन्दू पक्ष के एक्टिविस्ट इन मामलों को लगातार उठा तो रहे हैं लेकिन अगर पीड़ित पक्ष के एक्टिविस्टों को लगता है कि लव जिहाद से पीड़ित महिलाओं की लिस्ट या संख्या जारी करना पर्याप्त है, तो उनको ये समझ लेना चाहिए कि समाज को इसकी भयावहता से परिचित करा कर डराने और इससे सावधान करने के लिए ऐसी कोई लिस्ट पर्याप्त हो सकती है, लेकिन जब तक लव जिहाद को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया जायेगा तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकलने वाला। सुस्पष्ट परिभाषा के आभाव में लव जिहाद जैसी घटना का प्रचार कहीं अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित इस्लामॉफ़ोबिया के नैरेटिव की मदद ही करेगा।
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हालाँकि एक्टिविस्टों से परिभाषा की उम्मीद करना बेमानी है, फिर भी पीड़ित हिन्दू पक्ष के एक्टिविस्टों के बहुमुखी प्रचार ने लव जिहाद की परिभाषा को कितना उलझा रखा है, इसको उदाहरण से समझिये। एक महिला जिसकी शादी को १० वर्ष हो चुके हैं और जिसने अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन भी किया हो, और जो शादी के बाद बच्चे की मां भी बनी हो, क्या उस महिला की उसके पति या पति के परिवार द्वारा हत्या या उत्पीड़न लव जिहाद कहा जायेगा या सामान्य उत्पीड़न या सामान्य हत्या कहा जायेगा? एक और उदाहरण देखते हैं। क्या कोई लड़की जिसको झूठ बोलकर पहचान छिपा कर प्रेम जाल में फंसा कर धर्म परिवर्तन के लिए तैयार कर लिया गया है, और वो धर्म परिवर्तन कर भी लेती है लेकिन शादी के तुरंत बाद खुद को झूठ बोलकर फंसाने का आरोप लगाती है, क्या यह लड़की लव जिहाद का शिकार मानी जाएगी? एक और उदाहरण देखिये। एक लड़की जिसको झूठ बोलकर प्रेम जाल में फंसाया गया है और जैसे ही उसको वास्तविकता का पता चलता है वो सम्बन्ध विच्छेद करना चाहती है लेकिन उसको ब्लैकमेल किया जाता है और उसपर बदनाम करने का दबाव डाला जाता है, क्या ऐसी लड़की लव जिहाद का शिकार मानी जाएगी? ऐसे कई और उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं और हर उदाहरण लव जिहाद का एक नया स्वरुप प्रस्तुत करेगा।
अब इस लेख को आगे पढ़ने से पहले अगर आप ये मानते हैं कि हर हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के बीच सम्बन्ध को लव जिहाद के नजरिये से ही देखा जाना चाहिए और इसको अपराध मानना चाहिए लेकिन इसके विपरीत सम्बन्ध को घर वापसी कहा जाना चाहिए जो अपराध नहीं है, तो यह लेख पढ़ना बंद कीजिये। ये लेख आपके लिए नहीं है। अगर उत्सुकता एक गंभीर होती समस्या की पड़ताल करने की है तो आगे पढ़ने से आपको भारतीय समाज के बारे में नयी जानकारियां मिल सकती हैं और आपका स्वागत है।
भारत में लव जिहाद
लव जिहाद शब्द की ऐतिहासिक उत्पत्ति केरल राज्य से हुई और वहां हुयी एक घटना का वाद उच्चतम न्यायालय तक पंहुचा जिसके बाद लव जिहाद एक राष्ट्रीय वार्तालाप का विषय हो गया। अभी हाल ही में केरल में इस्लामिक स्टेट के सदस्यों द्वारा इस्लाम में धर्मान्तरित करवा कर सीरिया ले जाई गयी तीन महिलाओं की जिंदगी पर बनी फिल्म द केरल स्टोरी ने लव जिहाद को घर-घर तक पंहुचा दिया, जिसके लिए फिल्म को धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले तबके की आलोचना का शिकार होना पड़ा और तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल की सरकारों द्वारा फिल्म को प्रतिबंधित करने के प्रयास भी हुए। ये वही धर्म निरपेक्ष तबके हैं जो विदेशों में जाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भाषण करते हैं और भारत में खुद को प्रताड़ित बताते हैं। उक्त फिल्म के बारे में जो सार्वजानिक बहस हुई उसमें मजेदार बात ये है कि धर्म निरपेक्ष तबका तीन लड़कियों को जिहाद के उपकरण के तौर पर उद्देश्यपूर्ण तरीके से किये गए धर्म परिवर्तन, जो कि वास्तविक है, को लव जिहाद का पर्याप्त सबूत नहीं मानता। तो क्या ये लड़कियां, जिनके साथ इस प्रकार का अन्यायपूर्ण व्यवहार हुआ, वो धर्म निरपेक्ष तबके से प्रमाण पत्र मिलने तक चुप रहें? किस आधार पर? यही प्रश्न आज भारत के प्रगतिशील समाज के सामने मुँह बाए खड़ा है और इस सवाल ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों तबकों के प्रगतिशील कहे जाने वाले धड़े को नंगा कर दिया है, ताकि खतना और गैर खतना किये हुए लोग पहचान में आ सकें। प्रगतिशीलता के सामने इससे बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता कि उसको नंगा होकर अपनी पहचान का परिचय देना पड़े।
खैर, मुस्लिम लड़कों द्वारा पहचान छुपा कर अन्य धर्म की लड़कियों को प्रेम में फंसाने को व्यक्तिगत प्रयास माना जाये या लव जिहाद का इस्लामिक षड़यंत्र? ये इंकार करना कि ये कोई समस्या ही नहीं है, मूर्खता है। क्योकि ये स्वीकार कर लिया गया है कि इससे केवल गैर मुस्लिम समाज प्रभावित होता है, इसलिए ये गैर मुस्लिम समाज की जिम्मेदारी है कि इस समस्या के कारणों और इससे जुड़े कानूनों के बारे में सार्थक चर्चा करे। वहीँ यह भी सही है और जैसा कि ऊपर के उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि दो व्यक्तियों के बीच के हर सम्बन्ध को लव जिहाद बोलकर राजनीति करने और एक्टिविज्म की दुकान चमकाने के लिए तो ठीक है, लेकिन इस सामाजिक विद्वेष बढ़ाने वाली समस्या की रोकथाम करना तब तक संभव नहीं है, जब तक कि इसको समुचित तौर पर और सुस्पष्ट रूप से परिभाषित न किया जाये। इस सन्दर्भ में स्पष्ट परिभाषा का आभाव लव जिहाद रोकने के लिए बने कानूनों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
उत्तर प्रदेश का लव जिहाद कानून सिर्फ खाना पूर्ति करता है
लव जिहाद की समस्या के गंभीर अध्ययन की कमी समस्या के रोकथाम के लिए बने कानूनों में स्पष्ट दिखाई देती है। अब उत्तर प्रदेश के इस सन्दर्भ में बनाये गए कानून को ही देखिये। ये कानून विवाह के माध्यम से हुए धर्म परिवर्तन को रोकने की बात करता है लेकिन शादी और धर्म परिवर्तन होने तक बात पहुंचने के पहले अगर यह पता चले कि दो में से किसी एक व्यक्ति द्वारा पहचान छिपाई गयी है, और इसके बाद लड़की को युवक द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है, तो ऐसे मामलों में यह कानून चुप है, जबकि पहचान छुपा कर प्रेम करना, धर्म परिवर्तन और विवाह की पूर्वशर्त है। क्या सरकार कोई हेल्पलाइन नहीं शुरू कर सकती थी? क्या ऐसे अंतर धार्मिक विवाहों को विशेष विवाह अधिनियम में पंजीकृत करना आवश्यक बनाना उचित कदम न होता, ताकि लड़की के अधिकार सुनिश्चित किये जा सकें?
बजाय इसके कि उत्तर प्रदेश सरकार गंभीर होकर सोचती, जल्दीबाज़ी में एक कानून ला दिया गया, जिसकी संवैधानिकता खुद प्रश्नों से परे नहीं है। आखिर राज्य सरकार कैसे किसी कानून के माध्यम से दो बालिग व्यक्तियों के मध्य विवाह जैसे व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर सकता है? क्या यह कानून व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है? यह कानून पीड़िता के अतिरिक्त उसके सम्बन्धियों को भी लव जिहाद के मामले में केस दर्ज़ कराने की अनुमति देता है, जो अन्य प्रकार की न्यायिक बाधाओं को उत्पन्न करेगा। उदाहरण के लिए, जिस महिला को लव जिहाद का शिकार कहा जा रहा है, वो अपनी शादी को लव जिहाद मानने के लिए तैयार नहीं है लेकिन उसके सम्बन्धी उसकी शादी को लव जिहाद ही मान रहे हैं, तो ऐसा मामला किसी भी कोर्ट में कितने दिन टिकेगा? केरल में ऐसे ही एक मामले, जिसने लव जिहाद के वाद-विवाद को जन्म दिया, के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायलय का निर्णय ही कम से कम उत्तर प्रदेश के न्यायविदों ने देख लिया होता तो ऐसा कानून बनाने के पहले सोचा होता।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश जैसे ही अन्य राज्यों में जो कानून लाये गए हैं उनका उद्देश्य हिन्दू मुस्लिम विवाह को हतोत्साहित करना है, लेकिन क्या इस प्रकार के कानून हिन्दू-मुस्लिम शादियों को रोक पाने में प्रभावी हैं? क्या किसी ने इन कानूनों के प्रभावी होने के बाद इनके कारण उत्पन्न हुए परिणामों का अध्ययन किया है? क्या पीड़ित हिन्दू पक्ष यह मानता है कि लव जिहाद की समस्या हिन्दू लड़कियों की मुस्लिम लड़कों से शादियों पर रोक लगा देने तक सीमित है? शादी के पहले हिन्दू लड़कियों की जिंदगी ख़राब होती रहे, वो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक संत्रास झेलती रहें, क्या यह समस्या नहीं है। इस मामले के साथ जुड़े बाकी पहलुओं का क्या, जो राजनैतिक दृष्टि से भले ही उतने शानदार न दिखते हों लेकिन जिनके सामाजिक और व्यक्तिपरक परिणाम राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से दूरगामी हैं।
खैर, इस लेख का मुद्दा लव जिहाद को परिभाषित करना या लव जिहाद के सन्दर्भ में बने कानूनों की कमियों या खूबियों का मूल्याङ्कन करना नहीं है बल्कि यह समझने का प्रयास करना है कि आखिर ऐसे कौन से सामाजिक या आर्थिक कारण है जो मुस्लिम युवकों को झूठ बोलकर या तथ्य छिपाकर किसी विधर्मी लड़की को प्रेम जाल में फसाने के लिए प्रेरित करते हैं और चारो तरफ ऐसे मामलों में बढ़ती जागरूकता देख कर भी मुस्लिम युवक पहचान छिपाने जैसी बेवकूफियां करने पर क्यों आमादा हैं जिससे उनके समाज का नाम ख़राब होता हो?
भारत जैसे रूढ़िवादी देश में अगर कोई धार्मिकता द्वारा प्रेरित नहीं है तो विधर्मी लड़की को झूठ बोलकर प्रेम में फंसाने का सिर्फ और सिर्फ एक कारण हो सकता है, और वो हैं अपने धार्मिक समाज में लड़कियों की कमी, इसलिए हम भारत में लिंग अनुपात समझने से ही अपनी बात शुरू करते हैं।
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भारत में महिला-पुरुष अनुपात
भारत में, विशेष तौर पर हिन्दू समाज में, लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा काफी कम है (चित्र १ देखिये) इसलिए ये सोचना कि किसी दूसरे धार्मिक समुदाय के युवकों द्वारा हिन्दू लड़कियों से ब्याह करने का विरोध नहीं होगा, खुद को बहलाने वाली बात होगी और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ब्याह झूठ बोलकर किये जा रहे हैं या सच बोलकर। मुस्लिम समाज अपनी लड़कियों को ऐसे विवाहों से बचा कर रखने के लिए ही परदे जैसी अधोगामी परम्पराओं की धार्मिक मान्यता की वकालत करता है तो हिन्दू समाज अपनी लड़कियों को मुस्लिम लड़कों से बचा कर रखना चाहता है तो इसमें क्या बुराई है? जहाँ तक बात पितृसत्ता थोपने की है, तो लोगों को ये समझना चाहिए कि परदे में लिपटी लड़कियों पर पितृसत्ता की परत दोहरी होती है जबकि बिना परदे में बाहर निकल रही लड़कियों को मुस्लिम लड़कों से बचाने की पितृसत्तात्मक परत इकहरी ही है, क्योकि वो बिना परदे के लड़कियों को बाहर निकलने देने के लिए तैयार है। महिलाओं में समानता के दृष्टिकोण से पहले मुस्लिम लड़कियों को उस दोहरी परत से इकहरी परत में लाने की आवश्यकता है, और इसलिए हिज़ाब का विरोध किया जाना चाहिए ताकि हिन्दू और मुस्लिम लड़कियां मिल कर ज्यादा ताकत से उस इकहरी परत को भी उतार सकें जो उनको प्रेमी चयन करने के अधिकार से वंचित करती है।
लव जिहाद को नकारने वाले ये तर्क देते हैं कि लव जिहाद का मुद्दा मुस्लिम समुदाय को प्रताड़ित करने की साजिश है लेकिन ऐसे लोगों को भी ये तो मानना पड़ेगा कि उनसे भी कोई झूठ बोलकर या पहचान छिपा कर सम्बन्ध बनाएगा तो उनको भी बुरा लगेगा। तो पहचान छुपा कर किया गया कार्य समुदाय द्वारा प्रेरित न भी हो तो अपराध ही कहा जायेगा। लोग यह भी तर्क देते हैं कि झूठ बोलकर हिन्दू लड़के भी यही काम करते हैं। बिलकुल सही बात है, हिन्दू लड़के भी ऐसे काम करते ही होंगे लेकिन झूठ बोलकर खुद को प्रेमिका की निगाह में नायक बनाना और पहचान छुपाने के उद्देश्य से झूठ बोलने में फर्क है।
अब हिन्दू समाज में लड़कियों की कमी को रेखांकित करने के बाद इस परिकल्पना पर गौर करते हैं कि क्या मुस्लिम समाज में महिलाओं की कमी लव जिहाद के मूल में है जो लड़कों को मुस्लिम समाज से बाहर झाँकने पर विवश करती है? इस सन्दर्भ में देखते हैं कि जनगणना के आंकड़ें क्या कहते हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 15-19 आयु वर्ग में प्रति एक हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 883 के लगभग थी, 20-24 आयु वर्ग में यह अनुपात 935 के लगभग और 25-29 आयुवर्ग में लिंग अनुपात 975 के लगभग था। इन्हीं तीन आयु वर्गों में हिन्दू समुदाय में प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या क्रमशः 873, 928 और 970 के लगभग थी, जबकि मुस्लिम समुदाय में प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या क्रमशः 929, 947, और 988 थी। ये वो आयु वर्ग हैं जिनमें अधिकांश लोगों के विवाह संपन्न होते हैं और लोग प्रेम इत्यादि करते हैं। आंकड़ों से यह पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में इस आयु वर्ग में स्त्रियों की संख्या हिन्दू समुदाय में इसी आयु वर्ग में स्त्रियों की संख्या की अपेक्षा अधिक है।
चित्र 1: भारत में लिंग अनुपात (आंकड़े: भारत की जनगणना 2011)
जैसा कि पहले ही बताया गया कि हिन्दू समाज में प्रति हज़ार पुरषों पर महिलों की संख्या कम है और आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं, तो अगर महिलाओं की कमी से किसी समाज को चिंतित होने की आवश्यकता है तो वो हिन्दू समाज है। इसलिए हिन्दू समाज का लव जिहाद जैसी घटना, जो हिन्दू महिलाओं को निशाना बनाती है, को लेकर संवेदनशील होना तो नितांत उचित है लेकिन लिंग अनुपात के आंकड़े कहीं से भी इस परिकल्पना की पुष्टि करते नहीं दिखते कि मुस्लिम समाज में महिलाओं की कमी के कारण मुस्लिम युवकों को झूठ बोलकर हिन्दू लड़कियों के पीछे जाना पड़ता है। अगर लिंग अनुपात लव जिहाद की समस्या का सामाजिक कारण स्पष्ट नहीं करता तो फिर हमें देखना होगा कि क्या मुस्लिम और हिन्दू समाज के सामाजिक कानूनों में अंतर लव जिहाद जैसे कृत्य कि मुख्य वजह है? इस सन्दर्भ में हम भारत में बहुविवाह और विवाह कानून का विश्लेषण करेंगे।
मुस्लिम समाज में बहुविवाह परंपरा
मुस्लिम समाज में बहु विवाह परंपरा को कानूनी स्वीकृति है और इस परम्परा के कारण प्रति हज़ार पुरुषों पर औरतों की संख्या हिन्दुओं और अन्य धर्मावलम्बी समाजों की अपेक्षा मुस्लिम समाज में महिलाओं की संख्या ज्यादा होने के बाद भी मुस्लिम पुरुषों के लिए उपलब्ध विवाह योग्य महिलाओं की प्रभावी संख्या कम हो सकती है, जो मुस्लिम पुरुषों को समाज से बाहर देखने पर विवश करती है।
इस तर्क पर विचार करने के लिए भारतीय समाज में बहु विवाह प्रथा के प्रसार को देखना जरूरी है, ताकि योग्य तर्क रखा जा सके।
इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े सबसे वस्तुनिष्ठ सूचना उपलब्ध कराते हैं। इस सन्दर्भ में ये बताना जरूरी है कि इस सर्वेक्षण के आंकड़े प्रतिदर्श (सैंपल) पर आधारित होते हैं, जनगणना पर नहीं। दूसरी बात यह कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तीसरे दौर (2005-06) से वर्तमान पांचवें दौर (2019-20) के मध्य जो संकेत मिले हैं, वो दिखाते हैं कि भारत में बहुविवाह लगातार कम हुए हैं (चित्र 2 देखें)। जहाँ 2005-06 के सर्वेक्षण में 1,9 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि उनके पति ने एक से अधिक शादियां की थी, वहीँ 2019-20 के दौर में ऐसी महिलाओं की संख्या घट कर 1,4 प्रतिशत हो गई। हालाँकि, जब धार्मिक आधार पर वर्गीकरण कर के आंकड़ों को देखा जाये तो मुस्लिम समाज में बहुविवाह का प्रसार हिन्दुओं की तुलना में ज्यादा मिलता है। जहाँ सर्वेक्षण के 2019-20 चरण में सिर्फ 1.3 प्रतिशत हिन्दू महिलाओं ने बहुविवाह प्रथा में होने को स्वीकार किया, वहीँ मुस्लिम समाज में ऐसी महिलाओं की संख्या 1.9 प्रतिशत थी। यहाँ यह भी बता देना आवश्यक है कि स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार बहुविवाह प्रथा में जीवन गुजार रही अधिकांश महिलाएं आदिवासी, कम शिक्षित, ग्रामीण, गरीब पृष्ठ्भूमि से आती हैं और 35 वर्ष से अधिक उम्र की हैं।
चित्र 2: भारत में बहुविवाह (आंकड़े: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण)
धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने वाले ये आरोप लगा सकते हैं कि बहुविवाह परंपरा तो मुस्लिमों में भी कम हो रही है और संख्या की दृष्टि से बहुविवाह में रह रही हिन्दू महिलाएं बहुविवाह संस्था में रह रही महिलाओं की तुलना में बहुत ज्यादा होंगी और इसलिए बहुविवाह के कारण मुस्लिम लड़कों के लिए मुस्लिम समाज में कम उपलब्धता का तर्क गलत तर्क है। मैं दोनों तर्कों को सहज स्वीकार करता हूँ लेकिन मेरा भी एक तर्क है, जो जनगणना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों को सही तरीके से देखने पर दिखाई देता है और मुस्लिम समाज में बहुविवाह लव जिहाद के लिए उत्तरदायी है, को एक प्रबल तर्क बनाता है। तर्क इस प्रकार है –
ये याद रखना चाहिए कि आयु वर्गीकरण के आंकड़े (चित्र 1 देखें) ये दिखाते हैं कि हिन्दू समाज में 55 आयु वर्ष के बाद महिलाओं की संख्या प्रति हज़ार पुरुषों पर मुस्लिम समाज की अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है जबकि 40 आयु वर्ष तक, जो कि सामान्य तौर पर महिलाओं की प्रजनन योग्य आयु है, हिन्दू समाज में प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मुस्लिम समाज की अपेक्षा कम है। अगर इस आयु वितरण को जनसँख्या के अर्थों में अनुवादित करें तो ये नतीजा निकलेगा कि हिन्दू समाज में अधिकांश महिलाएं 55 वर्ष से अधिक आयु की हैं जबकि मुस्लिम समाज में अधिकांश महिलाएं 40 वर्ष से कम आयु की हैं। अब 2019-20 के सर्वेक्षण में बहुविवाह और 2011 की जनगणना के आंकड़ों से निकले नतीजे को देश भर में बहुविवाह की घटती संख्या के साथ मिला कर देखा जाये तो यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दू महिलाओं में बहुविवाह को स्वीकार करने वाली अधिकांश महिलाएं 55 वर्ष के ज्यादा उम्र की होनी चाहिये जबकि मुस्लिम समाज में बहुविवाह को स्वीकार करने वाली महिलाओं की संख्या 55 वर्ष से कम आयुवर्ग की महिलाओं की होनी चाहिये, अर्थात मुस्लिम समाज में बहुविवाह युवा महिलाओं की समस्या बनी हुई है। इसी कारण यह कथन शत प्रतिशत सही है कि प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या हिन्दू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज में ज्यादा होने के बाद भी विवाह योग्य मुस्लिम लड़के के लिए मुस्लिम समाज के अंदर लड़कियों की प्रभावी उपलब्धता हिन्दू समाज की अपेक्षा कहीं कम है और इसलिए यह तर्क कि मूर्खतापूर्ण सामाजिक कानूनों के कारण मुस्लिम लड़के समाज के बाहर पहचान छिपा कर प्रेम कर रहे हैं।
अब अगर लव जिहाद सीधे तौर पर एक सोची समझी साजिश नहीं है, तो भी लव जिहाद मुस्लिम समाज के पहरेदारों और भारत के धर्मनिरपेक्ष नेताओं, जिन्होंने ऐसे बेहूदा कानून बनाये हैं, उनपर अपरोक्ष षड़यंत्र करने का आरोप तो बनता ही है, और क्योंकि कानून समूह पर लागू होते हैं, इसलिए लव जिहाद एक संगठित साजिश हो जाता है, जिसके परिणाम केवल हिन्दू समाज को ही नहीं बल्कि मुस्लिम समाज के लड़कों को भुगतने पड़ रहे हैं। मुस्लिम समाज में प्रचलित बहुविवाह लव जिहाद कही जाने वाली समस्या के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से है और इसके लिए सीधे सीधे मुस्लिम समाज के सामाजिक कानून और इन कानूनों को बनाने वाले मौलाना और धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं।
सामाजिक कानूनों का व्यक्तियों और समाज पर प्रभाव
सामाजिक कानून किस प्रकार किसी समाज के विकास और उसकी प्रवृत्तियों को निर्धारित करते हैं, इसको समझने का प्रयास अनेक समाजशास्त्रियों ने किया है। इन समाजशास्त्रियों में मैक्स वेबर सबसे प्रमुख हैं जिन्होंने अपनी प्रसिद्द पुस्तक प्रोटेस्टैंट एथिक्स में इस विषय की विशद विवेचना की कि किस प्रकार कैथोलिक रूढ़िवाद से प्रोटेस्टैंट उदारवाद की तरफ प्रयाण ने पश्चिमी यूरोपीय समाज में औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक चिंतन की आधारशिला रखी। सामाजिक कानूनों के बारे में इतना वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने के बाद भी मुस्लिम सामाजिक कानूनों के मुस्लिम समाज के विकास पर प्रभाव को भारत में ठीक तरीके से अध्ययन नहीं किया गया है, जो दुखद है। सच्चर समिति की जिस रिपोर्ट के आधार पर मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन और धर्मनिरपेक्षता के तर्क गढ़े जाते हैं वह रिपोर्ट किसी कार्य-कारण प्रभाव का अध्ययन नहीं करती, जिसके आधार पर यह तर्क दिया जा सके कि धन की कमी, न कि सामाजिक कानून मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार हैं।
मुस्लिम समाज हो या हिन्दू समाज, बहुविवाह सामाजिक कानूनों द्वारा स्वीकृति के कारण ही होता है। हिन्दू समाज में ही आदिवासियों और दक्षिण भारतीयों के मध्य ऐतिहासिक सामाजिक परम्पराओं के कारण बहुविवाह कहीं अधिक है जबकि उत्तर भारत में हमेशा से बहुविवाह कम प्रचलित रहा है। आज़ादी के बाद भीमराव आंबेडकर के आग्रह पर हिन्दू कोड बिल संसद से पारित हुआ जिसके बाद हिन्दू समाज में बहुविवाह तभी संभव है, जब पहली पत्नी की सहमति हो अन्यथा हिन्दू समाज में बहुविवाह आपराधिक कृत्य के तौर पर १९५६ से ही स्थापित व्यवस्था है। वहीँ दूसरी ओर मुस्लिम समाज में ४ पत्नियों तक बहु विवाह कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त है और इस्लामिक शादियों में तलाक की सरलता के कारण किसी भी समय ४ पत्नियों में से किसी एक को तलाक बोलकर पांचवी पत्नी की जा सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के वर्तमान दौर के आंकड़े ही ये भी बताते हैं कि बहुविवाह प्रथा में महिलाओं को कहीं अधिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। जबकि हिन्दू समाज में कानूनी रूप से अवैध होने के कारण बहुविवाह केवल पहली पत्नी की सहमति से ही हो सकता है और हिन्दू तलाक के बाद भी पति के ऊपर अनेक उत्तरदायित्व बने रहते हैं। वहीँ दूसरी ओर मुस्लिम समाज में विवाह के कानूनों में तलाक पति की पत्नी के प्रति जिम्मेदारियों एकमुश्त निपटारा कर देता है और एकमुश्त निपटारे की राशि भी शादी के समय तय की जाती है इसलिए बहुविवाह में फंसी मुस्लिम महिलाएं और उनके बच्चे सामाजिक अपवंचन का शिकार होते हैं जो राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिए लेकिन दुःख की बात है कि देश के मानव संसाधनों का ऐसा दुरूपयोग धर्म निरपेक्षता के कारण चर्चा का विषय नहीं है।
संवैधानिक तौर पर मुस्लिम सामाजिक कानून मुस्लिम महिलाओं के समानता के मौलिक अधिकारों का हनन है और इस विरोधाभास को अनदेखा करके इस देश कि संसद स्वयं मान चुकी है कि मुस्लिम महिलाएं हिन्दू महिलाओं की अपेक्षा कमतर नागरिक हैं क्योंकि मौलाना वर्ग इस देश को धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र तभी देता है जब उसको सामाजिक कानूनों के नाम पर दूकान चलाने दी जाये। न्यायालय संविधान के साथ समझौता करने की तोहमत से इसलिए मुक्त है क्योंकि किसी ज़माने में न्यायालय ने हिम्मत दिखाई थी और शाहबानो को गुजरा भत्ता देने का आदेश दिया था। उस समय मोहब्बत की दुकान खोले बैठे राहुल गाँधी के पिता राजीव गाँधी ने आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मोहब्बत भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फाइल्स को पलट कर खरीद ली। इस प्रकार के मोहब्बती तौर तरीकों में धर्म निरपेक्षता देखने वाला हर व्यक्ति और नेता, देश और समाज का द्रोही है। राजीव गाँधी के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटने के बाद कबीलाई कानून की शिकार हुयी महिलाएं देश के लिए प्रभावी मानव संसाधन हो सकती थीं। शायद शाहबानो जैसी हज़ारों, लाखों औरतों की आहों ने ही राजीव गाँधी को दोबारा सत्ता पर काबिज नहीं होने दिया।
2011 की जनगणना के अनुसार हर 1000 शादीशुदा औरतों में 2.6 हिन्दू औरतें जबकि 5.6 मुस्लिम औरतें तलाकशुदा थीं (चित्र 3 देखें)। ऐसा कहा जा सकता है कि अधिकांश मुस्लिम महिलाएं आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर कमजोर तबके से आती हैं इसलिए मुस्लिम समाज में तलाक के मामले ज्यादा हैं। हालाँकि यह बात हिन्दू महिलाओं के लिए भी कही जा सकती है लेकिन इस तर्क को वस्तुनिष्ठ तरीके से जांचने की आवश्यकता है कि क्या शिक्षा और आर्थिक स्तर तलाकशुदा महिलाओं की संख्या कम करता है?
चित्र 3: भारत में तलाक (आंकड़े: भारत की जनगणना 2011)
इसके लिए हमने भारत के सबसे विद्वान और आर्थिक-सामाजिक रूप से उन्नत राज्य केरल की जनगणना के आंकड़े लिए और केरल में हिन्दुओं और मुस्लिमों के मध्य तलाक का अंतर देखा (चित्र 4 देखें)। केरल के आंकड़े आँखें खोलने वाले हैं और यह दिखाते हैं कि आर्थिक दशा, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकास के साथ तलाक के मामले घटते नहीं बल्कि बढ़ते हैं, हालाँकि इतने के बाद भी मुस्लिम समाज में तलाक केरल में हिन्दुओं की अपेक्षा बहुत ज्यादा है। केरल में 1000 शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं पर 9.3 महिलाएं तलाकशुदा हैं जबकि हिन्दुओं के लिए प्रति 1000 शादीशुदा महिलाओं पर तलाकशुदा महिलाओं की संख्या 4.2 है। जो लोग तलाक को महिला सशक्तिकरण से जोड़ते हैं, उनको या तो ये मानना पड़ेगा कि मुस्लिम महिलाएं देश भर में ज्यादा सशक्त हैं या फिर मुस्लिम समुदाय में अलग सामाजिक कानून के परिणामों को स्वीकार करना होगा।
चित्र 4: केरल राज्य में तलाक (आंकड़े: भारत की जनगणना 2011)
अब यहाँ से आगे बढ़ने के लिए एक घोर सांप्रदायिक प्रश्न खड़ा करना जरूरी है और वो सवाल किसी समाज में प्रजनन से जुड़ा हुआ है। कोई भी समाज स्त्री के माध्यम से ही वंशवृद्धि कर सकता है और अपनी पहचान बनाये रख सकता है। कम से कम जब तक मनुष्यों का औद्योगिक उत्पादन नहीं शुरू हो जाता तब तक तो स्त्री की आवश्यकता समाज को रहेगी। तो ऐसे देश में जहाँ अलग-अलग पहचान वाले समूह रह रहे हैं वहां किसी भी पक्ष से उत्पादन के एक साधन का दूसरी तरफ जाना दोगुना असंतुलन उत्पन्न करेगा और राजनीतिक दलों के लिए राजनीति का मसाला उपलब्ध कराएगा। अब जिन महिलावादियों को औरत को उत्पादन का साधन बताये जाने में पितृसत्ता दिखती है उनको पहले इस सवाल का जवाब ढूंढना चाहिए कि वो क्या कर रहे थे, जब 8-9 साल की लड़की को किसी पैगम्बर द्वारा औरत की तरह उपयोग करने पर सवाल उठाने वाली महिला की गर्दन काटने की घोषणा की जा रही थी? जिनका कहना ये है कि सब भारत के नागरिक हैं और इसलिए हिन्दू पहचान को खतरा जैसा तर्क वाहिआत है, उनको इस बात का जवाब देना चाहिए कि अगर सारे नागरिक एक हैं और नागरिकों के मध्य धार्मिक आधार पर भेदभाव करने वाला सांप्रदायिक घृणा से भरा हुआ है, तो सभी नागरिकों को सामान देखने वाले इस देश में नागरिकों के लिए सामाजिक कानून दो क्यों हैं?
अगर इसी तर्क को आधार मान लिया जाये तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को कानूनी दर्जा देने वाली इंदिरा गाँधी और शाहबानो के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला बदलने वाले राजीव गाँधी धार्मिक घृणा के सबसे बड़े उदाहरण हैं।
निष्कर्ष
लव जिहाद का मुद्दा एक संगठित षड़यंत्र न भी हो तो भी ये एक आपराधिक कृत्य है लेकिन जैसे दहेज़ कानून दहेज़ के लेन-देन को समाप्त नहीं कर सका, उसी प्रकार लव जिहाद के कानून भी लव जिहाद को नहीं रोक पाएंगे। इसका मतलब ये नहीं है कि लव जिहाद के कानून बेकार हैं लेकिन उनकी उपयोगिता सीमित है। जिस प्रकार दहेज़ हिंदुस्तान के उच्चजातीय समाज में एक मध्यकालीन सामाजिक बुराई थी, उसी प्रकार लव जिहाद का मूल भी इस्लामिक कुरीतियां हैं, जिनको दुर्भाग्य से कानून का दर्जा मिला हुआ है ताकि मौलाना लोगों की दुकान चलती रहे और इसके बदले मौलाना लोग धर्म निरपेक्ष दलों के पक्ष में मतदान कराते रहें। लव जिहाद की समस्या का समाधान तभी सम्भव है जब मुस्लिम समाज में पुरुषों के विशेषाधिकार चिन्हित करके समाप्त किये जाएं।
इस समस्या से पीड़ित मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हो चुकी किसी पूर्व हिन्दू महिला को ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए और मुस्लिम समाज में व्याप्त इस अन्याय को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए और न्यायविदों को ऐसी किसी भी महिला की सहायता करने के लिए तत्पर होना चाहिए।
व्यक्तिगत प्रयासों कि आवश्यकता को रेखांकित करते हुए ये भी कहना पड़ेगा कि मुस्लिम समाज में विवाह सम्बन्धी सुधारों को नकारने की पूरी जिम्मेदारी संसद और विशेष तौर पर संसद में बैठे धर्म निरपेक्ष दलों की है। इसीलिए ये संसद की जिम्मेदारी है कि मुस्लिम समाज में बहुविवाह और जिम्मेदारीविहीन तलाक की परंपरा को समाप्त करने के लिए कठोर कानून बनाये। जहाँ तक ऐसे कानूनों की संवैधानिकता का प्रश्न है तो उच्चतम न्यायालय ने पहले भी सामाजिक प्रगतिशीलता को बढ़ावा दिया है और आगे भी देता रहेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।