ये विचित्र सी कहानी है लुइस विक्टर एटिंज की, जो कि बचपन से ही आपराधिक प्रवृति का था। भारत में भी अगर थानों के कागजात देखें तो उसमें अलग-अलग प्रकार के अपराधियों का जिक्र मिलता है। एक होते हैं टाइप सी, जिन्हें करियर क्रिमिनल, या पेशेवर अपराधी माना जाता है। इनके बारे में पुलिस भी मानकर चलती है कि इन अपराधियों को सुधारा नहीं जा सकता।
ये जीविकोपार्जन के लिए भी अपराध ही करेंगे। इनमें अपराधबोध लगभग शून्य होता है। नहीं, ये लोग लाल या सफेद टोपी लगाए या एक विशेष उजड़ी सी वेशभूषा, गन्दी जीन्स, मुड़ा-तुड़ा कुर्ता और दाढ़ी वगैरह में भी नहीं होते। आप जिनके बारे में सोच रहे हैं वो समाजवादी-साम्यवादी नेता हैं, वो अलग प्राणी होते हैं।
लुइस ने भी शुरू से ही अपराधों का रास्ता पकड़ रखा था। ये 1878-1938 के दौर का था, जब बहुत से अविष्कार हो ही रहे थे, औद्योगिकीकरण अपने शुरूआती दौर में था। जब लुइस कॉलेज में था, तभी इसने फर्जी चेक बनाने शुरू कर दिए। पकड़े जाने पर उसे निकाल दिया गया तो वह अमेरिकी नौसेना में भर्ती हुआ।
यहाँ से उसे चोरी के जुर्म में कोर्ट मार्शल किया गया। कुछ दिन बाद इसे फर्जीवाड़े के लिए कुछ साल की जेल हो गयी। जेल से छूटने पर इसने एक दमे के मरीज से दोस्ती की और फिर एक दिन ये मरीज गायब हो गया। लुइस के चेक फिर से फर्जी निकलने लगे थे। जिससे उसने दोस्ती गांठी थी, उसकी लाश मिली तो हत्या का मुकदमा भी चला।
हत्या के जुर्म में लुइस को उम्रकैद की सजा हुई और जेल में उसे दमा भी हो गया। बीमारी में जैसा भोजन चाहिए था, वैसा बिना पैसों के तो मिलता नहीं, और जेल में कमाने के तरीके कितने होते हैं? जेल में बंद अपराधी बेल्ट इत्यादि के बकल, टोपियों पर लगने वाले बैंड जैसी चीजें बनाते थे।
इन्हें जेल में लोगों से मिलने आने वालों को बेचकर थोड़ी आय होती थी, लेकिन इसी में लुइस को मौक़ा नजर आया। उसने संभावित ग्राहकों को चिट्ठियां लिखनी शुरू की। टेक्सास, कैलिफोर्निया और न्यू मेक्सिको में ऐसी चीजों के लिए बड़ा बाजार था और लुइस लिखने में इतना अच्छा था कि उसके प्रयास सफल होने लगे।
युमा की जेल से उसे फ्लोरेंस भेज दिया गया। वहां भी उसने प्रचार करने-लिखने की अपनी क्षमता से फिर से कामयाबी पानी शुरू कर दी। प्रचार में जो लिखा हुआ होता है, उसमें कम से कम शब्दों में अपनी बात से लोगों को राजी करना होता है। इस कला को “कॉपीराइटिंग” कहते हैं। हिंदी में इसके लिए कोई शब्द नहीं गढ़ा गया, मैं जबरदस्ती बनाऊ तो वह विज्ञापन-लेखन जैसा कुछ होगा।
आज कॉपीराइटिंग से ही निकल कर आये “कंटेंट राइटिंग” की कला का वेबसाइट पर कंटेंट लिखने में इस्तेमाल होता है। इसके लिए कोर्स होते हैं, यू-ट्यूब पर कई वीडियो मिल जायेंगे। कई किताबें कॉपीराइटिंग और कंटेंट राइटिंग सिखाने के लिए लिखी गयी हैं। करीब सौ वर्ष पहले के दौर में जेल में बंद लुइस ने यही कला अभ्यास से सीख ली थी।
आज भी अभ्यास से ही कॉपीराइटिंग या कंटेंट राइटिंग सीखते हैं। लुइस उस सौ साल पुराने दौर में अपनी इस क्षमता से सालाना 5000 पौंड तक कमाने लगा था। जेल में बंद कोई इतना अमीर होने लगे तो लोगों का ध्यान जायेगा ही। इलाके के गवर्नर लुइस से कैदियों के भले पर चर्चा करने लगे। अख़बारों में उसकी सफलता की ख़बरें भी आने लगीं।
तबतक लुइस का ध्यान डायरेक्ट मेलिंग के धंधे पर गया। पुराने दौर में टीवी-रेडियो आदि के जरिये विज्ञापन कम ही होते थे। उस दौर में संभावित ग्राहकों को चिट्ठियां भेजी जाती थीं। इस व्यापार में जब लुइस सफल होने लगा तो उसे फिल्मों में स्क्रीन प्ले लिखने का काम भी मिला। उसे छुड़ाने के लिए 1922 में अभियान चलाया गया। जेल से ही चिट्ठी लिख लिख कर उसने पौलीन नाम की युवती से दोस्ती भी कर ली थी, जिससे उसने जेल से छूटने पर शादी कर ली।
इतने किस्से पर हो सकता है कुछ लोगों को रत्नाकर नाम के डाकू की कहानी याद आ रही हो, जो कि किसी भी रामायण में नहीं आती। कथित तौर पर ये रत्नाकर नाम का डाकू आगे एक प्रसिद्ध साधू बना था। हाल में ही जिन लोगों की जज्बात आपा को रावण की दाढ़ी देखकर ठेस लग गयी थी, उनमें से किसी को रत्नाकर डाकू के किस्से पर पता नहीं क्यों ठेस नहीं लगती।
अज्ञात कारणों से फिल्म से तो उनकी सेंटिमेंट सिस्टर को चोट आई मगर रामायण में न मिलने वाली कहानी से वाल्मीकि को डाकू बताने पर उन्हें दिक्कत नहीं होती। हो सकता है कि रावण उन्हें ज्यादा प्रिय हो, वाल्मीकि अप्रिय हों, इसलिए ऐसा होता हो।
खैर तो हमलोग लुइस नाम के अपराधी पर थे जो कि अब जेल से छूट चुका था, शादी कर चुका था और प्रसिद्धि भी उसे मिल गयी थी। अपराधी प्रवृति के लुइस का कुछ ही वर्षों में अपनी पत्नी से तलाक हो गया और अय्याशी का जीवन जीने के लिए वो फिर से अपराधों पर उतर आया। उसे एक बड़ी चोरी के मामले में 1931 में फिर से गिरफ्तार किया गया। बीमार वो पहले से ही था, और पेन्सिल्वेनिया के एक अस्पताल में 1938 में लुइस की मौत हो गयी।
विपणन अर्थात मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग पढ़ने वाले छात्रों को लुइस विक्टर एटिंज की ये कहानी पता होती है क्योंकि कॉपीराइटिंग की विधा को जिन लोगों ने बनाया, परिष्कृत किया, उनमें से एक बड़ा नाम लुइस विक्टर एटिंज का है। उसके लिखे से “ऑलवेज बी क्लोजिंग” या “कॉल टू एक्शन” के जुमलों वाली कंटेंट मार्केटिंग की विधाएँ ही सीखी जाएँ, ये जरूरी नहीं होता।
लुइस की कहानी से ये भी सीखा जा सकता है कि अभ्यास से कोई भी विधा सीखी जा सकती है। आप जेल में बंद होने जैसे बुरे हाल में हैं, इस बात से कोई बहुत अंतर नहीं पड़ता। इसका उल्टा भी सीख सकते हैं। उल्टा ये है कि जीवन से जो सबक आप नहीं सीखते, उसे जीवन में बार बार दोहराया जाता है। अगर एक बार कंटेंट राइटिंग से भला जीवन जीना लुइस ने सीखा होता, तो उसे दोबारा जेल नहीं जाना पड़ता।
इतिहास अपने आप को दोहराता है कि कहावत अधिकांश उन व्यक्तियों, उन्हीं समाजों पर लागू होती है, जिन्होंने अपने इतिहास को भुला दिया। बाकी अपने इतिहास से सीखना है, या परिस्थितियों के अनुकूल न होने का रोना रोना है, ये तो हमारी अपनी ही मर्जी है! स्वयं ही तय करना होगा!