दुनियाँ के सबसे पुराने बंदरगाह की पहचान रखने वाले लोथल में बन रहे राष्ट्रीय समुद्री विरासत परिसर के कार्यों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 अक्टूबर, 2022 की शाम वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए समीक्षा की।
उल्लेखनीय है कि यह देश का पहला नेशनल मैरीटाइम हेरिटेज म्यूजियम कॉम्प्लेक्स होगा। केंद्र सरकार की सागरमाला परियोजना के अंतर्गत बनने वाले म्यूजियम में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस परियोजना का पहला चरण वर्ष 2023 में पूरा हो जाएगा। कॉम्प्लेक्स में मैरीटाइम हेरिटेज म्यूजियम के अलावा थीम पार्क, मैरीटाइम रिसर्च सेंटर, नेचर कंजरवेशन पार्क और होटल भी शामिल है।
इस अवसर पर पीएम मोदी ने लाल किले की प्राचीर से दिए अपने ‘पंच प्रणों’ का जिक्र किया और कहा, “हमारे इतिहास के कई ऐसे किस्से हैं, जिन्हें भुला दिया गया है और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए उन्हें संरक्षित करने के तरीके नहीं खोजे गए हैं। इतिहास की उन घटनाओं से हम कितना कुछ सीख सकते हैं। भारत की समुद्री विरासत एक ऐसा ही विषय है जिस पर पर्याप्त रूप से बात नहीं की गई है।”
प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर पर लोथल और धोलावीरा के गौरवपूर्ण इतिहास का जिक्र करते हुए कहा, “विरासत के प्रति उदासीनता ने देश को बहुत नुकसान पहुँचाया है”।
जिस समुद्री विरासत का जिक्र प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में किया, वह करीब 2400 ईसा पूर्व की है। जिस इतिहास में लोथल दुनिया का सबसे पुराना बंदरगाह था। जहाँ के इतिहास में विदेशों से व्यापारिक सम्बंध थे, एक सु-समृद्ध समुद्री व्यवस्था थी और आर्थिक सुदृढ़ता तो थी ही।
हालाँकि, समय के साथ यह गरिमामय इतिहास भुला दिया गया। दुनियाँ के अन्य देशों को देखें तो पता चलेगा की वहाँ की संस्कृति को ऐसे संग्रहालयों द्वारा संजोकर रखा गया है लेकिन, देश में यह पहला संग्रहालय होगा जो समुद्री इतिहास से आम जन का परिचय करवाएगा।
विकास की परिभाषा को अपने हिसाब से गढ़ने वाले इसे भी मोदी सरकार के निजी हितों का कार्यक्रम बता देंगे, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जिस देश का समुद्री इतिहास 4500 वर्ष पुराना है, जिसकी समुद्री सीमा 7500 किमी से अधिक फैली हुई है, वहाँ आज तक ऐसा संग्रहालय अस्तित्व में क्यों नहीं था, जो आने वाली पीढ़ी को उसके गौरवशाली इतिहास से जोड़ सके?
क्या है संग्रहालय का महत्व
संग्रहालय बनाने से क्या अंतर पड़ जाएगा? वस्तुतः संग्रहालय झरोखा होते हैं इतिहास को देखने का। हम जो आज कर रहे हैं, हमारे पूर्वज उसे हजारों वर्ष पहले कर चुके हैं। अगर बंदरगाह की ही बात कर लें तो आज से करीब 3 सहस्त्राब्दियों पहले सिंधु सभ्यता के लोग मेसोपोटामिया के साथ समुद्र के रास्ते व्यापारिक संबंध बना रहे थे।
वैदिक अभिलेखों के अनुसार, भारतीय व्यापारियों ने पूर्व तक और अरबों के साथ व्यापार किया। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य काल के दौरान जहाजों और व्यापार की निगरानी के लिए एक निश्चित ‘नौसेना विभाग’ था। समुद्र के जरिए देश के वाणिज्यिक संबंध आज से नहीं हैं, ये वर्षों पहले ही स्थापित हो चुके थे पर औपनिवेशिकता से बंधी हमारी बेड़ियों ने हमें यह विश्वास दिला दिया की समुद्र के जरिए व्यापार सिर्फ अंग्रेजों द्वारा ही किया गया है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था सुसंगठित हो, इसमें व्यापार के साथ बंदरगाह भी महत्वपूर्ण होते हैं। इसका उदाहरण संपन्न हड़प्पा और सिंधु सभ्यता से लिया जा सकता है। समुद्र पर राज करने के लिए तो इतिहास में कई युद्ध लड़े गए हैं। हजारों वर्षों से अपने भौगोलिक स्थिति और उद्यमशीलता के चलते भारत विश्व के केंद्र में रहा था। यही वजह है कि आक्रांताओं से लड़ते-लड़ते देश में व्यापार के लिए बंदरगाह बचे ही नहीं थे।
इस दौरान, चीन, जापान, यूएई, नीदरलैंड और बाकी के देश अपने विकसित पोर्ट्स के जरिए प्रगति की राह पर आगे बढ़ते गए। हाल ही में, मोदी सरकार ने विझिंजम पोर्ट को पुनर्जीवित करने के लिए कार्य आरंभ किया।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह भारत का सबसे गौरवशाली बंदरगाह रहा है। यह अखंड भारत, खाड़ी, यूरोप, चीन और दुनिया के लिए व्यापार का केंद्र रहा था।
हालाँकि, केरल में मत्स्य पालन से जुड़े लोगों द्वारा योजना का विरोध भी किया जा रहा है, लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि ऐतिहासिक विरासतों की रक्षा और आवश्यकतानुसार उनका पुनर्जीवन आवश्यक है। संग्रहालय बनने का फायदा देश को आर्थिक और सामाजिक, दोनों रूपों में मिलता है। दुबई का 90% राजस्व पोर्ट व्यापार के जरिए ही प्राप्त करता है।
तो ऐसे में जब इतिहास के पुनरुत्थान के कार्यों में विरोध सामने आता है तो उन लोगों को स्वयं से सवाल करना चाहिए कि भारत जिसके पास संसाधन है, संख्या बल है और जो समुद्री व्यापार के इतिहास के केंद्र में रहा है वो ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन क्यों न करे?