मंगलवार (11 अक्टूबर, 2022) को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर उनकी जन्मभूमि सिताब दियारा पहुँचे, जहाँ उन्होंने एक बयान देकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की राजनीतिक विरासत पर नया विमर्श छेड़ा।
जेपी को याद करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, “जेपी का नाम लेकर राजनीति में आए लोग अब पाँच-पाँच बार पाला बदलकर जेपी के सिद्धांतों को दरकिनार कर चुके हैं। आज सत्ता सुख के लिए उसी कॉन्ग्रेस की गोदी में बैठ गए हैं।”
देखा जाए तो अमित शाह की बात सही हैं। अब यह किस से छिपा है कि आपातकाल के दौर में शुरू हुई जेपी की और उनके पहले डॉक्टर लोहिया की गैर कॉन्ग्रेसवाद के बहुचर्चित राजनीतिक दर्शन की विरासत को वारिस तो मिले पर कालांतर में इन वारिसों ने अपनी राजनीतिक यात्रा के दौरान अपनी सुविधानुसार इस राजनीतिक दर्शन को दरकिनार कर दिया।
इन महान विचारकों और राजनीतिज्ञों के निधन के बाद उनके समाजवादी वारिसों ने उत्तर प्रदेश और बिहार में जेपी और लोहिया के दर्शन को आगे बढ़ाने के नाम पर सत्ता हासिल तो कर ली पर सत्ता में टिके रहने की अपनी कवायद में उन्हीं के सिद्धातों को भूल गए जिन सिद्धांतों ने इनकी राजनीतिक नींव रखी। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर जेपी और लोहिया का नाम लेना नहीं भूले।
वर्ष 1990 में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने पर उसका परिणाम यह रहा कि सामाजिक न्याय की आड़ में बिहार में लगातार बाहुबलियों का उदय हुआ। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि न्यायालय तक को कहना पड़ा कि बिहार में जंगलराज हो गया है। बिहार राजनीतिक और प्रशासनिक विफलता का ऐसा मॉडल बना, जिसकी चर्चा पूरी दुनियाँ में हुई।
बड़े राजनीतिज्ञों और विचारकों के नाम के इस्तेमाल के सहारे सत्ता तक न केवल पहुँचना, बल्कि उसमें बने रहने के लिए उनका लगातार इस्तेमाल पुरानी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा रहा है और यह चलन सिर्फ समाजवादी नेताओं तक सीमित नहीं रहा।
दरअसल, यह प्रचलन शुरु करने का श्रेय कॉन्ग्रेस को दिया जा सकता है। आजादी के बाद से अब तक कॉन्ग्रेस पार्टी महात्मा गाँधी को अपना आदर्श बताने के साथ ही बापू के पदचिन्हों पर चलने का दावा करती रही पर व्यवहारिकता में उनके सिद्धांतों और उन पर आधारित योजनाओं का क्रियान्वयन करने में विफल दिखाई दी। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर बापू का नाम लेने से कभी नहीं चूकी।
जेपी और लोहिया के समाजवाद के सिद्धांत में गरीबों की आवाज थी। जेपी और लोहिया ने विपक्ष की राजनीति चुनी। वहीं, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में आरजेडी सिर्फ एक परिवार की सत्ता तक ही सीमित रह गई। कई बार सत्ता हेतु गठबंधन परिवर्तन कर चुके नीतीश कुमार ने जेपी के विचारों की बलि दी है। जेपी और लोहिया, समाज में जाति व्यवस्था पर राजनीति के खिलाफ थे। वहीं, बिहार में लालू और नीतीश ने जाति मतगणना के मुद्दे को वोट बैंक बना दिया है।
आज कॉन्ग्रेस अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है और महात्मा गाँधी के सिंद्धान्तों पर न चलने की सजा भुगत रही है, पर जेपी के सिंद्धान्तों को दरकिनार करने वाले आज भी बिहार की राजनीति में बने हुए हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक राजनीति और उसकी प्रक्रिया के परिष्कृत होने का परिणाम यदि महापुरुषों के नाम और आवश्यकतानुसार उनके नाम के आह्वान को रोक पाएँगे तो यह इन विचारकों और महापुरुषों को असली श्रद्धांजलि होगी।