सरकार और न्यायपालिका के बीच के मतभेद अब सार्वजनिक हो चुके हैं। प्रतिदिन दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। न्यायपालिका का तर्क है कि वर्तमान में जारी उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली उपयुक्त है और यदि सरकार द्वारा इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप होता है तो इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर खतरा है।
इसके ठीक विपरीत सरकार का मानना है कि कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर यदि नया और पारदर्शी नियुक्ति प्रणाली लाई जाए तो न्यायपालिका और इसके कार्य-प्रणाली में व्याप्त विसंगतियों को दूरकर न्यायिक व्यवस्था को और सुदृढ़ बनाया जा सकता है।
जहाँ एक ओर न्यायपालिका के पक्ष में से मुख्य न्यायाधीश सहित अन्य न्यायाधीशों ने सरकार को इस विषय पर कई मंचों से भी निशाने पर लिया है, वहीं सरकार की ओर से सर्वोच्च पदों पर बैठे राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति के अलावा विधि मंत्री भी कॉलेजियम प्रणाली में सुधार को लेकर अडिग दिख रहे हैं।
सरकार द्वारा इस विषय में पहले भी प्रयास किए जा चुके हैं, जिसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मानने से इनकार कर दिया गया था।
इसी कड़ी में अब केंद्रीय कानून एवं विधि मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को पत्राचार के माध्यम से अवगत कराया कि केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति वाले कॉलेजियम पैनल में अपने लिए प्रतिनिधित्व चाह रही है जिससे इस प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया जा सके।
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कॉलेजियम की सिफारिशों के बावजूद न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी के लिए केंद्र के खिलाफ अवमानना की माँग करने वाली एडवोकेट्स एसोसिएशन बेंगलुरु की याचिका पर शीर्ष अदालत में पिछली सुनवाई के बाद केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा यह पत्र मुख्य न्यायाधीश का भेजा गया। हालाँकि कॉलेजियम द्वारा अभी तक इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी गई है।
साथ ही सर्च-कम-एलिवेशन पैनल (नियुक्ति और प्रोन्नति) का भी गठन किए जाने का प्रस्ताव रखा है यद्यपि वर्तमान में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है,, जिसके अंतर्गत उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पैनल में राज्य सरकार के प्रतिनिधि जबकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और प्रोन्नति के लिए केंद्र सरकार के प्रतिनिधि का स्थान देने पर विचार करने का आग्रह किया गया है।
इस गतिरोध का जिम्मेदार?
यह बात सत्य है कि सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उनके नामों की अनुशंसा की जाती है जिसे सरकार द्वारा मंज़ूरी नहीं मिल पाने से नियुक्ति पूरी नहीं हो पाती लेकिन इन सिफारिशों में उनके भी नाम शामिल होते हैं जिनकी पात्रता पर सरकार द्वारा सवाल उठाए जाते रहे हैं। इस विषय पर सरकार द्वारा न्यायपालिका को इन नामों पर पुन: विचार किए जाने का भी आग्रह किया जा चुका है लेकिन न्यायपालिका का अड़ियल रवैया सरकार को भी इसके लिए मजबूर कर देती है।
लोकतंत्र में किसी एक अंग की सर्वोच्चता का निर्धारण नहीं किया गया है लेकिन मौजूदा परिस्थिति में न्यायपालिका ऑर्गनाइजेशनल ऑटोक्रेसी की ओर बढ़ता दिख रहा है और यदि सरकार और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्रों का निर्धारण उचित ढंग से नहीं किया गया तो यह देश और जनता दोनों के लिए हितकर नहीं ही होगा।
यह भी देखा गया है कि न्यायपालिका द्वारा बार-बार सरकार के क्षेत्राधिकार में आकर गैर-जरुरी हस्तक्षेप किया जाता रहा है। जबकि स्वयं न्यायपालिका पर उठते सवालों पर अवमानना की तलवार चला दी जाती है और तो और स्वतंत्र न्यायपालिका की दुहाई दी जाती रही है।
सरकार द्वारा न्यायाधीशों के वेतन और सुविधाओं में लगातार बढ़ोतरी की गई है। बावजूद, पोस्ट-रिटायरमेंट में मिलने वाली सुविधाओं और भत्तों की लालसा में कॉलेजियम द्वारा दिनों के लिए मुख्य न्यायाधीशों का चुनाव कर लिया जाता है। जबकि कॉलेजियम प्रणाली पर सबसे बड़ा आरोप तो भाई-भतीजेवाद का है। जिसको लेकर ना ही न्यायपालिका ने कभी स्पष्टीकरण दिया है और ना ही इसमें किसी प्रकार के सुधार के प्रयास किए गए हैं।
केंद्रीय मंत्री द्वारा भी कई सार्वजनिक मंचों से इस विषय पर सरकार का पक्ष मुखरता से रखा गया है। उनका कहना है “यदि कॉलेजियम चाहती है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और प्रोन्नति में सरकार की कोई भूमिका ही ना रहे तो फिर अनुशंसित नामों को सरकार को भेजने का क्या अर्थ है? कॉलेजियम द्वारा स्वयं ही न्यायाधीशों की नियुक्ति कर ली जाए।”
ऐसा कहना तर्कपूर्ण भी है क्योंकि जब नियुक्ति और प्रोन्नति में सरकार की कोई भूमिका है ही नहीं तो क्यों सरकार उन नामों पर अपनी सहमति देकर न्यायपालिका में व्याप्त विसंगतियों को लेकर जवाबदेह हो? सरकार क्यों इसका मौलिक भार अपने कांधे पर ढोए?
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सबसे हास्यास्पद बात यह है कि न्यायालय ने सरकार द्वारा अनुशंसित नामों पर अपनी सहमति नहीं देने पर सरकार के खिलाफ ही दायर अवमानना याचिका की सुनवाई पर जस्टिस एसके कौल ने मंजूरी देकर सरकार को नोटिस जारी कर दिया है। जबकि इस गतिरोध के मूल में स्वयं न्यायपालिका की कॉलेजियम है। यह गतिरोध न्यायपालिका और सरकार द्वारा साझा प्रयासों से दूर होंगें ना कि सरकार के विरुद्ध न्यायिक अवमानना की कार्रवाई से।
ऐसे में यदि सरकार द्वारा भी कॉलेजियम को इसमें जिम्मेदार बताया जाए तो क्या न्यायाधीश महोदय कॉलेजियम को भी नोटिस जारी करने का साहस जुटा पाएँगे, जिसके वह स्वयं सदस्य हैं?