इतिहास का लेखन कुछ इस रूप में किया गया है कि जयपुर रियासत और उसके शासकों को सदा नकारात्मक दृष्टिकोण से ही देखा गया है। पर इतिहास एकाकी नहीं है, बहुत विशाल है और हम महानायकों का विश्लेषण कुछ अनुच्छेदों में नहीं कर सकते। ऐसे ही एक नायक हैं जयपुर के महाराज निर्माता सवाई जयसिंह। 21 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि है।
सवाई जय सिंह का जन्म तत्कालीन आमेर रियासत में मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु के 20 साल बाद 3 नवंबर 1688 में पिता बिशन सिंह के घर हुआ। बचपन में इनका नाम जय सिंह और इनके छोटे भाई का नाम विजय सिंह था, पर मिर्जा जय सिंह की तरह इनमें वीरता और वाक्पटुता ज्यादा थी, इसलिए इनका नाम जय सिंह कर दिया गया।
महाराज सवाई जय सिंह की कुंडली
जन्मदिन – 14 नवंबर 1688
जन्मसमय – 04:31 ए.एम.
जन्मस्थान – आमेर, जयपुर
सबसे पहले जयपुर के राजवंश का थोड़ा क्रम जान लें। मिर्जा राजा जयसिंह, उनके पुत्र हुए रामसिंह, उनके बाद बिशनसिंह, और फिर आए सवाई जय सिंह।
राज्य की खस्ता हालत में बने राजा
सवाई जय सिंह का बचपन इतना आसान था नहीं। मिर्जा जय सिंह के बाद जयपुर रियासत अँधेरे में चली गई थी। मुगल बादशाह राजपूताने के राजाओं को असम, दक्षिण और सुदूर अफगानिस्तान जैसे कठिन अभियानों पर भेज देते थे, जिसमें जोधपुर के जसवंत सिंह, जयपुर के जगतसिंह, और बिशनसिंह जैसे अनेक राजा विपरीत परिस्थितियों में मारे जा चुके थे।
मिर्जा जय सिंह के बेटे रामसिंह को औरंगजेब ने दक्कन जाने को कहा जिसे, पूर्वजों के हाल को याद कर रामसिंह ने नकार दिया और इस तरह औरंगजेब का गुस्सा जयपुर पर फूटा और उसने जयपुर राज को सभी पदों और भूमि से हटाकर जयपुर की भूमि को खालसा घोषित कर दिया गया। राज्य का प्रशासन छिन्न भिन्न हो गया और आर्थिक स्थिति रसातल में पहुँच गई।
राज्य की दयनीय स्थिति से तंग होकर बिशनसिंह को औरंगजेब की बात मानकर अफगानिस्तान जाना पड़ा। जयसिंह को औरंगजेब ने अपने पास रख लिया और केवल 10 वर्ष की उम्र में 1698 में दक्षिण भारत के युद्ध में धकेल दिया। यहाँ जय सिंह की वीरता देख औरंगजेब ने उन्हें उनके परदादा मिर्जा सिंह से सवा गुणा कहकर सवाई कह दिया। वहीं अफगानिस्तान की कड़ाके की सर्दी में बिशन सिंह मारे गए। केवल 12 वर्ष की उम्र में जयसिंह आमेर के राजा बने। उन्होंने आमेर को स्थानांतरित कर एक नया शहर जयपुर बसाया और उसे राजस्थान में शीर्ष पर पहुँचाया।
जय सिंह का मुगलों से संघर्ष
इस राज्य में न प्रशासन था न पैसा था न शक्ति थी, राजनीति के दांवपेंच में घिरा एक 12 साल का राजा जरुर था। औरंगजेब के आदेशों की निरंतर अवहेलना के कारण उसने इनका पद मामूली मनसबदार का कर दिया और बार-बार अपमानित किया जा रहा थ।, जिसमें बालक जयसिंह अपनी कूटनीतिक चालों से औरंगजेब को छका रहा था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुए उत्तराधिकार संघर्ष में बहादुर शाह प्रथम ने जय सिंह से ईर्ष्यावश आमेर पर हमला किया और इसका नाम मोमिनाबाद कर दिया।
जयसिंह ने सूझबूझ से काम लेकर राजपूत शक्तियों को एकत्रित कर मेवाड़ और मारवाड़ के राजाओं अमर सिंह-II और अजीत सिंह से संयुक्त समझौता किया ताकि जयपुर पर अधिकार किया जा सके। मारवाड़ के दुर्गादास राठौड़ की सहायता से मुगल सेना के फौजदारों हुसैन खां, सैयद हुसेन खां, अहमद खां और गारात खां को हराकर आमेर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद सवाई जय सिंह की शक्ति बढ़ती चली गई।
दो करोड़ ठुकराकर हिन्दुओं पर से हटवाया जजिया कर
दिल्ली में उस समय फर्रुखसियर का शासन था और सैयदों और बादशाहों के बीच तलवारें खिंच चुकी थी। जयसिंह ने बादशाह फर्रुखसियर को बहुत समझाया कि अविश्वनीय सैयदों से युद्ध करके उन्हें रास्ते से हटा दे नहीं तो वह तुम्हें मार देंगे, पर फर्रुखसियर सैयदों की खुशामद में लगा रहा और जय सिंह को दिल्ली से भेज दिया। इसके कुछ ही दिन बाद सैयद भाइयों ने दिल्ली में बादशाह फर्रूखसियर की हत्या करदी।
इस खबर से जयसिंह की दूरदर्शिता और समझदारी के चर्चे फैल गए और राजपुताना, मालवा, बुन्देलखण्ड के राजा और मराठे तक इनकी राय और सलाह मानने लग गए। सैय्यदों के पतन के बाद मुहम्मदशाह मुगल शासक बना, उसने महत्वपूर्ण मुद्दों पर सलाह लेने के लिए सवाई जय सिंह को दिल्ली बुलाया।
बदले में दो करोड़ देने की पेशकश की पर सवाई जयसिंह जी ने इसे ठुकराकर हिन्दुओं पर से जजिया कर हटाने की शर्त रखदी, जिसे मुहम्मदशाह ने मान लिया। इस सफलता पर मेवाड़ के महाराणा समेत अनेक हिन्दू राजा प्रसन्न हुए और जय सिंह का अभिनन्दन किया।
जयपुर का निर्माण
पहाड़ों के बीच बसे छोटे से किले रूप आमेर राज्य को जय सिंह ने भविष्य की संभावनाओं के लिए बहुत छोटा पाया, और 1727 में अपनी राजधानी आमेर से जयपुर स्थानांतरित कर दी। सवाई जय सिंह की भविष्य दृष्टि और एक सुंदर और शास्त्रीय शहर बनाने की परिकल्पना को साकार करने के लिए महान वास्तुकार विघाधर भट़टाचार्य ने चतुर्भुज आकार वाले नियोजन से एक सात द्वारों वाला शानदार नगर बनाया। इतनी चौड़ी सड़कें बनवाई कि आज के ट्रैफिक को भी वह सम्भाल ले रही हैं। जयपुर की गली गली में जय सिंह ने इतने मंदिर बनाए और इतने विद्वानों को बसाया कि थोड़े ही समय में जयपुर छोटी काशी कहलाने लगा।
विभिन्न व्यवसायों के लिए अलग अलग क्षेत्र चुनकर बसाए। चौपड़ों पर महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती के यंत्र बड़े अनुष्ठान करके स्थापित करके जलस्रोत बनाए और उनका अभिमंत्रित जल उन उन समुदायों तक पहुँचाया। सवाई जयसिंह ने जयपुर को हर कला में अग्रणी बनाने के लिये देशभर से कलाकार, व्यवसायी, विद्वान और विशेषज्ञ बुलाकर उन्हें जयपुर में बसाया। इससे जयपुर शिल्पकला, चित्रकारी, मीनाकारी, जवाहरात, नक्काशी, हस्त निर्मित कागज, रत्नाभूषण, ब्ल्यू पॉटरी, छीपाकला, धर्मक्षेत्र, ज्योतिष, व्यापार से लेकर सभी व्यवसायों में श्रेष्ठ बन गया।
हिन्दू साहित्य में सवाई जय सिंह
हिन्दुओं के विशाल ग्रन्थों के कारण विद्वानों के लिए भी धर्म की हर बात का निर्णय आसान नहीं था, इसके लिए सवाई जयसिंह ने सभी शास्त्रों पर शोध करवाकर ‘जय सिंह कल्पद्रुम’ की रचना करवाई जो आजतक राजस्थान में प्रचलित है। उनके राज्य में पंडित जगन्नाथ सम्राट, पंडित पुण्डरीक रत्नाकर, विद्याधर चक्रवर्ती, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि, ब्रजनाथ भट्ट जैसे मूर्धन्य विद्वान रहते थे।
इसलिए उनके समय संस्कृत, ब्रजभाषा, वास्तु, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, खगोल, इतिहास, धर्म के ऊपर ‘ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति’, ‘पद्मतरंगिणी’, ‘ईश्वर विलास’, ‘वैराग्य शतक’, ‘साहित्यसार संग्रह’ जैसे अनेक ग्रन्थ लिखे गए। महाराज जय सिंह स्वयं एक बहुत बड़े ज्योतिषी थे और उन्होंने ‘जयसिंह कारिका’ नाम का ज्योतिष ग्रन्थ लिखा था। सब जानते हैं कि इन्होंने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, बनारस और मथुरा में सौर वेधशालाएं बनवाई थीं। इन्होंने जयपुर से एक सूर्यसिद्धान्त पर आधारित एक पंचांग छपवाया ‘जयविनोदी पंचांग’ जो आज 280 वर्ष बाद भी छप रहा है।
भारत का अन्तिम अश्वमेध यज्ञ करने वाले जयसिंह
महाराजा सवाई जयसिंह ने ‘व्रात्यस्तोम यज्ञ’, ‘पुरुषमेध यज्ञ’, ‘सम्राट यज्ञ’, ‘सर्वमेध यज्ञ’, ‘सोम यज्ञ’ जैसे अत्यंत कठिन कर्मकांड पुनः जीवित किए और रत्नाकर भट और जगन्नाथ सम्राट जैसे विद्वान ब्राह्मणों द्वारा संपन्न कराए। 1734 में जयसिंह ने जो पहला अश्वमेध यज्ञ किया और इसके बाद 1742 में बहुत बड़े स्तर पर दूसरा अश्वमेध यज्ञ करवाया। इस यज्ञ में जयपुर में अनेक मंदिर बने, और सोने चांदी का इतना दान दिया गया कि किंवदन्ती बन गई कि सवाई जय सिंह ने अपने यज्ञ में तीन करोड़ ब्राह्मणों को भोजन करवाया।
कर्नल जेम्स टॉड को लिखना पड़ा कि, “महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दू-विद्याओं का शरणस्थल बना दिया था। इस तरह भारत में सदियों से यज्ञादि की जो परम्परा लगभग बन्द हो चुकी थी, उन्हें महाराजा सवाई जय सिंह ने जयपुर राज्य में फिर से प्रारम्भ किया।” इन यज्ञों से सवाई जय सिंह देशभर में धर्म के प्रतीक के रूप में देखे जाने लगे।
अनेक मंदिरों का पुनरुद्धार और निर्माण
औरंगजेब ने अपने शासन काल में पूरे मथुरा वृन्दावन के ब्रजक्षेत्र का विध्वंस कर दिया था। अनेक मन्दिरों की मूर्तियाँ लेकर भक्तों को भागना पड़ा था। इन्हीं में से एक थे गोविन्ददेव जी, जिनका 7 मंजिला मंदिर औरंगजेब ने तुडवा दिया था, उनका मंदिर जयसिंह ने अपने महल के ठीक सामने जयपुर में बनवाया।
इसके बाद जयसिंह ने मथुरा वृन्दावन की पूरी धार्मिक व्यवस्था का निरीक्षण करके उसे सुव्यवस्थित किया और पूरे ब्रजक्षेत्र का पुनरुद्धार करवाया, गोवर्धन पर गोवर्धन मन्दिर, मथुरा में सीताराम मंदिर मन्दिर और यमुना पर घाटों समेत मथुरा वृन्दावन का कायाकल्प कर दिया।
सवाई जयसिंह ने अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि को मुक्त कराने का भी प्रयास किया और उस पूरे क्षेत्र को खरीद लिया, पर बीच में ही उनकी मृत्यु हो जाने से योजना पूरी नहीं हो सकी। आज भी अयोध्या में रामजन्मभूमि क्षेत्र का नाम जयसिंहपुरा है।
देश में राजस्थान से लेकर अवध और पुरी तक अनेक मंदिरों पर पाँच रंगों की ध्वजा दिखाई देती है, उसका अर्थ था यह मंदिर जयपुर राज्य द्वारा संरक्षित हैं इसलिए इनपर कोई अपनी आँख उठाकर न देखे। इसलिए इतिहास में देखने से पता चल जाता है कि जिन क्षेत्रों में जयपुर राज्य प्रभावहीन था पर जब औरंगजेब के मुगल दरबार में जयपुर की शक्ति कमजोर थी। उसी समय अधिकांश हिन्दू मंदिरों का विध्वंस हुआ, मिर्जा राजा जय सिंह की मृत्यु के बाद मुगल दरबार में जयपुर का प्रभाव खत्म हो गया था जिससे औरंगजेब निरंकुश हो गया और उसी समय सर्वाधिक मंदिर तोड़े गए।
महाराज सवाई जय सिंह वह कड़ी हैं जो मध्यकाल और आधुनिककाल को जोड़ती हैं, जो परंपरा की दृष्टि रखकर भी दूर देख लिया करते थे। इसलिए वह प्रथम हिन्दू शासक थे जिन्होंने सतीप्रथा को रोकने और विधवाओं को सम्मान दिलाने की कोशिश की। उन्होंने एक ऐसा नगर बसाया जो 300 साल बाद की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। उन्होंने उन विद्वानों और कलाकारों को शरण दी, जिससे वो अपनी विद्या को बचा सकें और बढ़ा सकें। उन्होंने उन मंदिरों को बनवाया जिनके शिखर तोड़ दिए गए थे।
श्रीकृष्णभट्ट ने लिखा कि ‘सवाई जय सिंह अन्तिम दिनों में गोविन्ददेव जी के ध्यान में ही लीन रहने लग गए थे।’ इस तरह सितम्बर 21, सन 1743 को जयपुर में हिन्दू संस्कृति के पुनरुद्धारकर्ता महाराजा सवाई जय सिंह का निधन हो गया। हमें चाहिए कि अपनी दृष्टि बड़ी करें और इतिहास समझें। उन्हें नमन।
दुनिया के प्राचीन मंदिर, जो भारत में नहीं हैं
ज्ञानवापी – शिव जिसमें जल बनकर रहते हैं.