स्वामी विवेकानंद ने 1893 की 11 सितम्बर को शिकागो के धर्म सभा के मंच से एक उद्बोधन दिया। उसका प्रभाव संसार के अन्य देशों पर क्या हुआ, कह नहीं सकते, पर भारत की जनता में उसने एक नई चेतना और नई जागृति को जन्म दिया।
कई वर्षों से अपने धर्म पर होते आ रहे हमलों के कारण भारतीय जनमानस थक सा गया था, उसकी आस टूटती जा रही थी। उस समय भारत में एक नई सत्ता का आगमन हुआ था, और उसके साथ ही एक नई धार्मिक व्यवस्था ने भी भारतीय समाज में जन्म लेना शुरू कर दिया था।
भारत का एक वर्ग अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर अपनी ही संस्कृति, अपनी ही सभ्यता और अपनी ही जननी का विरोधी हो गया था। उसे अपनी ही सभ्यता से घृणा होने लगी थी। एक हीन भावना भारत में अपने ही धर्म और संस्कृति को लेकर जन्म लेने लगी थी।
यह भावना उन्हें कमज़ोर भी कर रही थी और घरों में पिता और पुत्र के बीच में दूरियाँ भी बढ़ा रही थी। अंग्रेजों को ही सर्वेसर्वा और अंग्रेजी भाषा को ही उत्तम भाषा समझने वाला ये वर्ग तेज़ी से बढ़ रहा था। ऐसे में जब शिकागो में स्वामी विवेकानंद ने जागृति का उद्बोधन दिया, तो उसने यहाँ भारत में जैसे वर्षों से सोई हुई किसी अचेत मूर्त में चेतनता भरने का कार्य किया।
अंग्रेजों ने भारतीय ग्रंथों का कुछ ऐसा अनुवाद किया था, जिससे हमारे देवताओं का चित्रण गलत होता था। बंकिमचंद्र चटर्जी ने उन सभी का विस्तार से अपनी पुस्तक ‘कृष्ण चरित्र’ में खंडन किया और तर्क सहित बताया कि क्यों अंग्रेजों द्वारा किया गया अधिकतर अनुवाद गलत है।
बंगाल में 1770 के वर्ष भीषण आकाल पड़ा, कुछ दिन महीनों की बात होती तो शायद ऐसा असर नहीं होता, लेकिन 3 वर्ष लगातार वर्षा नहीं हुई। खेत सूखे थे, घर में अन्न का एक दाना नहीं, बच्चों को भूख से चिल्लाता देख माँ-बाप के आँसू नहीं रुकते थे।
उस समय बंगाल पर कम्पनी राज था, उन्होंने उस भीषण आकाल में भी किसानों से बराबर लगान वसूल किया। जब लाखों शव गंगा घाट पर चिता की प्रतीक्षा में थे, तब लगान न देने वाले भूखे शरीरों पर कोड़े बरसाए जा रहे थे। वर्षा न होने और अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार से त्रस्त जनता ने गाँव से पलायन करना शुरू कर दिया था। गाँव के गाँव खाली होते चले जा रहे थे।
इस तरह अपने ही देश से लोगों को पलायन करते देख, वहाँ के सन्यासियों ने जान लिया कि सामाजिक जीवन में रहने वाला भारतीय जन मानस, समाज अपना आत्मबल खो चुका है। इस राष्ट्र को जागृति की आवश्यकता है। उन्होंने शक्ति का आह्वान किया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया।
उन्होंने जनता से कहा कि अपने ही देश को त्याग कर कहाँ सहारा पाओगे, जब स्वयं के लिए, अपनी भूमि के लिए, अपने बच्चों के लिए लड़ने का सामर्थ नहीं जुटा पा रहे हो, तो कहीं भी ठोर न पाओगे। उन शक्ति उपासक सन्यासियों ने सोए हुए आत्मबल को जगाया और अंग्रेजों से लड़ने के लिए उन्हें एक जुट किया।
अनेक युवाओं ने सन्यास आश्रम की शपथ ली और विद्रोह की तैयारी में जुट गए। जो अंग्रेज़ गाँव को लूटते, ये उन्हें लूटने लगे, पीड़ित जन की सेवा करने लगे। आखिर में अंग्रेजों की बंदूक और तोप के गोलों का सामना करते हुए, इन सन्यासियों ने अपने प्राण त्याग दिए।
उस दिन उनकी मृत्यु पर आकाश में भी कोई रोया होगा और वर्षा ने उस सूखी धरती को जहाँ उनके शव पड़े थे, हरा कर दिया। अकाल वाले काले दिन चले गए थे, गाँव फिर बसने लगे थे, खेत फिर लहलहाने लगे थे, अन्न घरों में आने लगा था।
इसी सन्यासी विद्रोह पर बंकिमचन्द्र चटर्जी जी ने ‘आनंदमठ’ की रचना की, जो आगे चलकर क्रांतिकारियों की गीता बनी। ‘वंदेमातरम्’ क्रांति का नारा हुआ, घर-घर में क्रांति के सुर उठने लगे। अंग्रेजों ने खतरा भाँप लिया और पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। तब तक क्रांति की मशाल जल चुकी थी, और अब वह रुकने वाली नहीं थी।
कुछ वर्षों बाद एक गाँव में एक 15-16 वर्ष का युवक विवेकानंद और बंकिमचंद्र का साहित्य पढ़ते हुए बड़ा हो रहा था।
उसके मन में यही विचार आते थे कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? उसकी पहचान क्या है? वह कैसे अपनी इस मातृभूमि की सेवा कर सकता है? इन्हीं सब विचारों के साथ वह एक दिन घर से सन्यासी बनने के लिए निकल गया।
उसका विचार था कि सन्यासी होकर ही मातृभूमि की सेवा की जा सकती है। थका हारा जब वह एक जगह प्यास बुझाने के लिए पानी ढूंढने लगा, तब एक बुज़ुर्ग उसे अपने साथ घर लिवा ले गए। बुज़ुर्ग ने देखा कि बच्चा घर से भागा है और भूखा प्यासा लग रहा है, तो उन्होंने उसे भोजन और जल करवाया।
बाद में दोनों की बातें हुईं, जिसमें उस युवक को यह पता लगा कि बुज़ुर्ग के दो जवान बेटे काल के ग्रास हो चुके हैं, और खेतों में काम करने वाला अब कोई नहीं है। जिससे समय पर लगान न भर पाने के कारण उनके आधे से अधिक खेत जब्त कर लिए गए हैं।
उस बुज़ुर्ग की समस्या सुनकर वह युवक, उन्हीं के साथ रुक गया और खेतों में काम करने लगा। उस गाँव में किसानों के साथ रहकर, उसे किसानों की समस्याएँ समझ आने लगी थीं। वह कुछ समय बाद वापस अपने घर लौट आया और यहाँ उसका परिचय किसी गुप्त क्रांतिकारी दल के साथ हो गया।
अपनी पहचान और मातृभूमि की सेवा करने के लिए घर से निकला यह युवक ‘खुदीराम बोस’ था। दिसम्बर 3, 1889 के दिन शाम 5 बजे, इनका जन्म बंगाल के मेदनीपुर जिल्ले में मोह्बनी गाँव में हुआ था। पीछे परिवार के दो पुत्र जन्म लेने के कुछ समय में ही काल के ग्रास हो चुके थे, इसलिए जब इनका जन्म हुआ तो इनके पिता को इनके लिए चिंता होने लगी।
उस समय और कहीं-कहीं आज भी ये परम्परा चली आ रही है कि यदि पीछे किसी बच्चे की जन्म के समय या बाद में आकस्मिक मृत्यु हो जाती है, तो अगले बच्चे को किसी को बेच दिया जाए तो उसपर जो भी दैवीय संकट होगा, वह दूर हो जाएगा।
बेचने का अर्थ केवल उस दैवीय संकट को दूर करने के लिए ही होता है, उसका लालन पालन तो उसके माता पिता ही करते हैं। उनकी तीन बहने थीं, उन्होंने कहा हम खरीदेंगे अपने भाई को, और तीनों बहनों ने एक एक मुट्ठी खुद्दी देकर, तीन मुट्ठी खुद्दी से अपने भाई को ख़रीद लिया। संकट दूर करने के लिए खुद्दी (चावल) से ख़रीदे जाने के कारण ही, उसी खुद्दी पर इनका नाम ‘खुदीराम’ रखा गया।
खुदीराम मातृभूमि के लिए कुछ करना चाहते थे, किसानों पर किस तरह अंग्रेजी सरकार अत्याचार करती है, ये वह स्वयं ही उस गाँव में रहते हुए देख आए थे। उन्होंने मन बना लिया था कि किसी भी प्रकार से अपनी भूमि पर से इन आक्रान्ताओं को खदेड़ बाहर करना है।
उस समय सत्येन्द्रनाथ बोस एक क्रांतिकारी दल का गठन कर रहे थे, खुदीराम भी उसी दल में शामिल हो गए। संगठन के लिए उन्होंने गाँव-गाँव जाकर प्रचार किया, जहाँ सेवा का मौका मिला सेवा की, विदेशी सामानों का बहिष्कार किया और संगठन से जुड़ने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया।
प्रचार करते हुए उन्हें पुलिस द्वारा पकड़ा गया और उनपर मुकदमा चला, पर कम उम्र होने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। उनकी उम्र 16 वर्ष की रही होगी। एक समय संगठन को चलाने के लिए धन की आवश्यकता हुई, तब इन्होंने सरकारी ख़जाने को लूटने का सुझाव दिया। न केवल सुझाव ही दिया बल्कि दल के एक साथी के साथ वह उस डाकघर पर नज़र भी रखने लगे, जहाँ से चौकीदार सरकारी धन को लेकर निकला करता था।
एक दिन मौका मिलते ही उन्होंने उस चौकीदार से सरकारी राजकोष, जो जनता से लूटा हुआ ही धन था, उसे उन्होंने सरकार से लूट लिया और संगठन के काम के लिए दे दिया।
उनके जिस काम ने अंग्रेजों को हिला दिया वह था, अप्रैल 30, 1908 की शाम को मजिस्ट्रेट किंग्स्फोर्ड की हत्या के प्रयास के लिए किया गया बम का धमाका। उस धमाके ने उन्हें 1857 की क्रांति की याद दिला दी, जब अंग्रेजों को भारत से खदेड़ बाहर करने का सबसे उग्र प्रयास हुआ था।
उस क्रांति के बाद उन्होंने अधिनियम लाकर भारतीयों के हथियार रखने पर प्रतिबंध लगा दिया था। पर तब भी 1897 में चाफेकर बंधुओं ने पुणे में जिस दिन रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की हीरक जयंती मनाई जा रही थी, उसमें दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या गोली मारकर कर दी थी।
वह दिन भी अंग्रेजों के लिए चौकाने वाला था, पर 30 अप्रैल 1908 के दिन बम का धमाका था। यदि आम नागरिकों तक बम बनाने की विधि पहुँच चुकी है, तो वह अंग्रेजी सत्ता का किस हद तक नुकसान कर सकता है, ये सोचकर ही वह कांप उठे थे। उस समय खुदीराम की उम्र 18 वर्ष और 4 महीने रही होगी।
11 अगस्त 1908 के दिन जब उन्हें फांसी के फंदे की तरफ़ ले जाया जा रहा था, तब उनके होंठों पर आनंदमठ का गीत था। वही गीत आज हमारा राष्ट्रगीत है।
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्यश्यामलाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्!
शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
जिस पहचान, जिस उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने उस दिन घर छोड़ा था, वह उन्हें आज प्राप्त होने वाला था। उस उद्देश्य की प्राप्ति को निकट देखते हुए उनके मन में प्रसन्नता थी, चेहरे पर तेज़ था, और होंठों पर गीत था।
(यह लेख प्रदीप राजपूत द्वारा लिखा गया है।)