एक समुदाय विशेष के वोटों पर पैनी नजर बनाए बैठी केरल सरकार ने मोइनकुट्टी वाइडर के नाम पर ‘इस्लामिक त्योहार’ वाइडर महोत्सवम् मनाये जाने की घोषणा कर दी है। इस वर्ष मोइनकुट्टी वाइडर के नाम पर मनाया जाने वाला ये महोत्सव 11 से 15 मई, 2023 को मनाया जाएगा जिसे भरपूर सरकारी सहयोग भी मिलेगा। ऐसा नहीं है कि ये त्योहार कोई पहली बार मनाया जा रहा है, या मोपला नरसंहार को परोक्ष रूप से मुख्यधारा में शामिल किये जाने का ये कोई पहला प्रयास है।
सीपीआई(एम) नेता और केरल के मुख्यमंत्री रहे ई.के. नयनार ने 1999 में ही मोइनकुट्टी वाइडर की रचना ‘बदर पडापट्टू’ को बढ़ावा देते हुए मोइनकुट्टी वाइडर के जन्मस्थान माने जाने वाले कोनडोट्टी में आयोजनों की शुरुआत कर दी थी। ये स्मारक संस्थान हर वर्ष तीन दिवसीय वाइडर महोत्सव मनाता है। केरल के संस्कृति विभाग ने सन 2005 में महाकवि मोइनकुट्टी वाइडर की दो भागों में कृतियों की शृंखला छापी है। केरल साहित्य अकादमी ने 2010 में मोइनकुट्टी वाइडर की जीवनी भी छापी है।
मोइनकुट्टी वाइडर (1852 से 1892) ने कविताएँ लिखने की शुरुआत प्रेम की कविताओं से की थी। उसे काल्पनिक रचना ही माना जाता है क्योंकि उसके नायक के पक्षी में बदलने जैसी बातें और कई बार जिन्नातों का जिक्र भी उस कविता में आता है। बाद में जो ‘बदर पटापट्टू’ जैसी रचनाएँ थी, उनका मुख्य विषय युद्ध था। पैगम्बर मुहम्मद ने 13 मार्च, 624 (उस वर्ष का सत्रहवां रमजान का दिन) को बदर की जंग छेड़ी थी। पता नहीं कुछ कम जानने वाले लोग क्यों कहते हैं कि रमजान के महीने में हिंसा नहीं की जाती, जबकि अब भी पैगम्बर मुहम्मद की इसी बदर की जंग का जिक्र रमजान के महीने में करीब-करीब हर उर्दू अख़बार में आता है।
मोइनकुट्टी वाइडर की दूसरी रचना ‘मलप्पुरम पडापट्टू’ भी युद्ध विषयक ही है। उसमें 1763 में एक जमींदार पारा नम्बी और उसके एक महतात अली मरक्कर की लड़ाई का जिक्र है। कथित रूप से इस लड़ाई में 44 मप्पिला और एक थात्तन (सुनार) मारे गए थे। इसमें किसी राजा चेरामन पेरूमल का जिक्र भी आता है जो हज पर जाता है और इस्लाम अपना लेता है। जाहिर है मोपला में हुए हिन्दुओं के नरसंहार को वैध बताने, उसका उचित कारण दर्शाने में इस मलयालम कविता का प्रयोग होता होगा।
एक समुदाय विशेष के वोट बटोरने की इस कोशिश से मोपला क्षेत्र के लोगों में खासी नाराजगी है। इसके पीछे वहाँ के एक मंत्री मोहम्मद रियाज़ को कारण भी बताया जा रहा है। ये घाटना ताली मंदिर का नामकरण ‘मरकजउद्दावा’ (मरकज-उल-दावा) कर दिए जाने के तुरंत बाद हुई है। शिव मंदिर के क्षेत्र का नाम ‘मरकजउद्दावा’ कर दिए जाने का स्थानीय स्तर पर व्यापक विरोध भी हुआ था। इसी समय मंदिर क्षेत्र के अन्दर स्थित एक हॉल का नाम भी ‘अब्दुर्रहमान साहिब मेमोरियल हॉल’ कर दिया गया। जनता और विशेषकर हिन्दुओं के व्यापक विरोध से कम्युनिस्ट सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। इसका विरोध सोशल मीडिया पर भी आसानी से दिख जाता है क्योंकि पिछले शनिवार (29 अप्रैल) को ही ये नामकरण हुआ है।
केरल के संस्कृति विभाग ने इस कार्यक्रम का जो पोस्टर जारी किया है, उसमें भी नजर आ ही जाता है कि ये कार्यक्रम कैसा है। जो लोग कथित रूप से ‘धर्म अफीम है’ कहते हैं, वही किसी समुदाय विशेष के नाम पर त्योहार मनाने बैठें तो मंशा क्या है, इसका अनुमान लगाना कोई कठिन भी नहीं होता।
इन सब के बीच एक और विवाद ‘द केरल स्टोरी’ नाम की एक फिल्म को लेकर भी शुरू हो गया है। भाषा और दिल्ली से दूरी की वजह से कई बार लोगों को ये पता नही होता कि ‘लव जिहाद’ या ‘रोमियो जिहाद’ किन्हीं हिन्दुत्ववादी संगठनों का दिया हुआ नाम नहीं है। ये मिशनरी संगठनो का दिया हुआ नाम था जिस पर कम्युनिस्टों ने मुहर लगाई थी।
मेरे विचार से हिन्दुत्ववादी संगठनों के पास न तो इतने संसाधन हैं, न इतनी वाक्पटुता कि अपने किसी मुद्दे को मुख्यधारा की चर्चाओं में ला सकें। केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंद 2010 में अपने एक इंटरव्यू में कह चुके हैं कि वहाँ का सत्ताधारी दल अगले 20 वर्षों में केरल को एक मुस्लिम राज्य बना देने की योजना पर काम कर रहा है। जब इस पर कई मुस्लिम संगठनों ने आपत्ति जताई, तो उन्होंने कहा था कि मैं कट्टरपंथी जमातों की बात कर रहा था।
कुल मिलकर कहा जा सकता है कि केरल के चुनावों में ‘धर्म अफीम है’ कहने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी धर्म और मजहब को मुद्दा बनाने वाली हैं। कल तक जो राजनैतिक दल ‘जात के नाम पर वोट’ मांगते थे, वो अब धर्म-मजहब को मुद्दा बना रहे हैं। तथाकथित केरल विकास मॉडल की पोल खुल जाने के बाद ऐसा होना तो तय ही था! बाकी भारतीय राजनीति में बदलाव के इस काल का भी समाजवाद के मॉडल के उदय जैसा ही स्वागत किया जाना चाहिए।