दिल्ली सेवा विधेयक बिल जैसे ही लोकसभा में पेश हुआ I.N.D.I.A गठबंधन के सदस्य मणिपुर पर गतिरोध छोड़ कर तुरंत सदन में उपस्थित भी हुए और चर्चा में हिस्सा भी लिया। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा दिल्ली सेवा बिल पर संवैधानिक स्थिति को सदन के समक्ष रखा गया। सदन में पेश होने से पहले से ही गठबंधन में शामिल दल इस बिल का विरोध कर रहे थे। दिल्ली सरकार के अधिकारों की पैरवी कर रहे ये दल सदन में गृहमंत्री अमित शाह से असहमति नहीं जता सके। हां, यह अलग बात है कि विपक्षी एकता दिखाने के लिए सभी ने वॉकआउट जरूर किया। विपक्षी दल इस बिल पर वॉकआउट से अधिक कुछ कर भी नहीं सकते थे क्योंकि उनको भान है कि बिल संविधान सम्मत है।
अनुच्छेद 239एए (बी) दिल्ली को लेकर किसी भी मुद्दे पर केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार देता है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल केंद्र सरकार पर दिल्ली के साथ खिलवाड़ करने की बात फैलाकर जनता को गुमराह करना चाह रहे हैं।
दिल्ली कोई राज्य नहीं बल्कि संघ राज्य है और उससे भी अधिक देश की राजधानी है। इसके लिए संविधान में अलग से प्रावधान है। समस्या यह है कि अरविंद केजरीवाल राजधानी में राज्य जैसे अधिकार चाहते हैं। प्रश्न भी यही है कि केजरीवाल दिल्ली पर संपूर्ण अधिकार क्यों चाहते हैं? साथ ही आप सरकार के होते हुए यह बिल लाने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी।
दिल्ली सेवा अधिनियम बिल की आवश्यकता की जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि केजरीवाल सरकार का शासन विफलता और अनियमितताओं से भरा हुआ है। यह सरकार जबसे सत्ता में आई है, इसने नियमों के अंतर्गत कभी काम किया ही नहीं। ट्रांसफर-पोस्टिंग सेवा मामलों में केजरीवाल सरकार ने कार्यकारी शक्तियों का उपयोग अपने निजी लाभ के लिए किया है। नियमों और सरकारी कार्यों के प्रति यह सरकार कितनी ईमानदार रही है यह इससे पता चल जाता है कि सरकार के किसी पत्र या कैबिनेट नोट पर सचिव के हस्ताक्षर नहीं होते बल्कि सीधा मंत्री के हस्ताक्षर के साथ वो केंद्र के पास जाता है।
ट्रांसफर-पोस्टिंग सेवा पर नियंत्रण भी आप सरकार के दिल्ली पर शासन सुधार के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के लिए ही रहा है। इस सरकार के अधिकतर मंत्री भ्रष्टाचार के मामलों में जवाबदेह हैं। ऐसे में विजिलेंस विभाग को अपने पास रखकर यह सरकार जनता का नहीं स्वयं का भला करना चाह रही है। शराब घोटाला, दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामले, दिल्ली सरकार की ओर से प्रायोजित विज्ञापनों और निजी कंपनियों को दी गई बिजली सब्सिडी और केजरीवाल के शीशमहल को बचाने के लिए सरकार को केंद्र सरकार के अधिकार चाहिए।
अधिकार मिल भी जाए तो क्या होगा? एक सरकार होने की जिम्मेदारी केजरीवाल और उनकी पार्टी ने कितनी गंभीरता से निभाई है यह उल्लेखनीय है। जिस सरकार में कैबिनेट बैठक जैसे महत्वपूर्ण अधिकार का प्रयोग नहीं किया जाता उससे किस प्रकार सुशासन की उम्मीद की जा सकती है। जनता की भलाई और योजनाओं का निर्णय सरकार कहां लेती है, यह उससे पूछा जाना चाहिए क्योंकि विधानसभा का उपयोग वहां राजनीतिक बयानबाजी के अलावा कभी किया ही नहीं गया है। बजट सत्र पर औपचारिकता पूरी करने के अलावा दिल्ली सरकार विधानसभा की अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कभी गंभीर रही ही नहीं है।
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ट्रांसफर-पोस्टिंग सेवा जैसे मामलों पर अधिकार चाहने वाली केजरीवाल सरकार अपने अधिकार क्षेत्र के कार्य भी नहीं कर पा रही है। ऐसे में नए अधिकार मांगना निजी लाभ के लिए उठाया गया कदम ही माना जाएगा।
दिल्ली विधानसभा को निजी मंच के रूप में तब्दील करने वाले अरविंद केजरीवाल के लिए संविधान के नियमों का उल्लंघन करना उनके आंदोलनजीवी चरित्र की खूबी है। लोकसभा सुनवाई के दौरान आदेश के कागज फाड़ने पर दिल्ली के एकमात्र सांसद को सदन से निलंबित कर दिया गया है। असंसदीय व्यवहार के प्रदर्शन और दिल्ली विधानसभा के संचालन में पूर्णतया विफल रही इस सरकार के लिए पहले अपने अधिकार सम्मत नियमों का पालना करना सीखना जरूरी है।
विधानसभा पटल पर चर्चा, बिल और रिपोर्ट्स तक नहीं रखने वाली सरकार जनता के कार्य करने का कभी दावा ही नहीं कर सकती। मुख्यमंत्री अपने दायित्व का निर्वाहन विधानसभा के बाहर से नहीं कर सकते। दिल्ली सेवा अधिनियम बिल को आधार बनाकर केंद्र पर दबाव की राजनीति करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता क्योंकि केजरीवाल सरकार की विफलता ने यह स्थिति उत्पन्न की है।
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