क्या है पूरा मामला ?
गणेश पूजन को लेकर कर्नाटक के दो जिलों बेंगलुरु और हुबली के दो कथित ईदगाह मैदानों पर विवाद था। इन दोनों मामलों को अलग अलग देखेना होगा तब इनका तकनीकी पक्ष पूरा समझ आएगा। क्या कारण रहा कि हुबली में तो कोर्ट के आदेश से गणेश प्रतिमा स्थापित हो गई है, लेकिन बेंगलुरु में कोर्ट के आदेश से प्रतिमा स्थापित नहीं हुई है। आइये देखते हैं दोनों मामले…
बेंगलुरु के चामराजपेट के कथित ईदगाह मैदान पर विवाद यह था कि वक्फ बोर्ड दावा करता है कि यह जमीन उसकी है, जबकि नगर निगम कहता है कि यह सरकारी जमीन है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद विवाद हल होने तक यहाँ गणेश पूजा पर रोक लगा दी थी। अब इस कथित ईदगाह जमीन के स्वामित्व का फैसला कर्नाटक हाईकोर्ट करेगा। सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को आधार बनाकर मुस्लिम पक्ष हुबली मामले में कोर्ट गया था।
हुबली ईदगाह मैदान का मसला यह है कि वह जिले के नगर निगम की जमीन है जिसे उसने 99 साल के पट्टे पर ईदगाह को दे रखा है। चूंकि स्वामित्व अभी भी नगर निगम का है और इस अधिकार से निगम ने वह जमीन गणेशोत्सव के लिए आवंटित कर दी थी, इसलिए कर्नाटक हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने वहां गणपति पूजन की अनुमति का आदेश गणेश चतुर्थी से ठीक एक दिन पहले दे दिया था। मंगलवार को सभी पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की गणेशोत्सव रोकने की याचिका ख़ारिज कर दी थी।
हुबली में अब क्या हो रहा है ?
हुबली में कोर्ट के आदेश के बाद बुधवार को श्रीराम सेना के प्रमोद मुतालिक की देखरेख में गणेश प्रतिमा स्थापित कर दी गयी और गणेशोत्सव का आगाज़ हुआ। इस बीच कथित ईदगाह मैदान पर भारी सुरक्षाबल तैनात किया गया था। अब मुस्लिम संगठन ‘अंजुमन ए इस्लाम’ आदेश के खिलाफ फिर से हाईकोर्ट जाने की बात कह रहा है।
‘अंजुमन ए इस्लाम’ ने धारवाड़ एकल खण्डपीठ के आदेश को दो दिन के अंदर अंदर कर्नाटक हाईकोर्ट में चुनौती देने की बात की है। इसके साथ ही मुस्लिम संगठन गणेशोत्सव की अनुमति देने वाले निगम आयुक्त के खिलाफ भी मजिस्ट्रेट कोर्ट में याचिका दायर करेगा।
संगठन का कहना है कि वह गणेशोत्सव को रोकना नहीं चाहता, पर इस प्रथा को बढ़ने देना भी नहीं चाहता। संगठन ने ईदगाह की जमीन पर गणेशोत्सव की अनुमति को मुस्लिम भावनाओं के खिलाफ बताया है।
इससे पहले बेंगलुरु के चामराजपेट की विवादित जमीन पर गणेशोत्सव मनाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो रोक लगाई थी, उस पर हिन्दू संगठनों की ओर से कोई तीव्र प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली है, न ही हिन्दू संगठनों ने कोर्ट के फैसले को चुनौती दी है। भारी सुरक्षा के बीच हिन्दू संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का शांति से पालन किया है।
कोर्ट के फैसले को चुनौती देने में मुस्लिम संगठनों में होड़
वैसे, ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि मुस्लिम पक्ष अक्सर कोर्ट के फैसलों को चुनौती देने की जल्दबाजी में रहता है। रामजन्मभूमि का मसला भी जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, तो ही अमल में आया।
हालाँकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में होना तो यह चाहिए कि सभी पक्षों को सुनकर दिए गए कोर्ट के संवैधानिक आदेश का शांति से पालन किया जाए। पर छोटे छोटे मुद्दों को नाक का सवाल बनाकर समाज में भ्रम और असंतोष का वातावरण बनाया जाता है। आइए देखते हैं, कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले, जिनसे बिफरा मुस्लिम पक्ष.
- 1985 में शाहबानो के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तिलमिला गया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस्लामी मामलों में दखल बताकर उग्र विरोध-प्रदर्शन शुरू किया गया। अंततः राजीव गाँधी की सरकार नाजायज़ मांगों के आगे झुकी और सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर ‘मुस्लिम महिला कानून’ पारित कर दिया।
- मई 2020 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मस्जिदों से अजान मामले में कहा था कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग नहीं है इसलिए बिना लाउडस्पीकर अजान दे सकते हैं, कोर्ट ने जिलाधिकारियों से इसकी अनुपालना कराने का आदेश दिया था। इससे मुस्लिम उलेमा सहमत नहीं हुए और बरेलवी उलमा ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही थी।
- मई 2022 में ज्ञानवापी मस्जिद – शृंगारगौरी विवाद मामले में वाराणसी सिविल कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की अपीलें ख़ारिज करते हुए परिसर के सर्वे और वीडियोग्राफी का आदेश दिया था। पर कोर्ट के सर्वे के आदेश से मुस्लिम पक्ष खफा रहा और सर्वे रुकवाने को लेकर सीधा सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया, जबकि यह सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया थी, फाइनल आदेश नहीं।