कर्नाटक चुनाव परिणाम आ चुके हैं। कांग्रेस पार्टी बड़े बहुमत के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार है। हालाँकि मुख्यमंत्री कौन होगा, इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए कांग्रेस पार्टी को दो तीन दिन का समय और चाहिए। फ़िलहाल मुख्यमंत्री इस रेस में तीन नाम हैं। पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, प्रदेश पार्टी अध्यक्ष डीके शिवकुमार और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे।
कर्नाटक में मुख्यमंत्री जो भी हो लेकिन यह तय है कि भारतीय जनता पार्टी अगले 5 वर्ष के लिए विपक्ष में ही बैठेगी। ऐसे में प्रश्न यह है कि एक लम्बी अवधि के प्रचार और स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा आक्रामक प्रचार के बाद कर्नाटक चुनाव से भाजपा के हिस्से में क्या आया है? भाजपा के हिस्से में आयी है हार की समीक्षा!
मंथन से क्या निकलेगा?
कर्नाटक में भाजपा 104 सीट से 64 सीट पर सिमट कर रह गयी है। हालाँकि वोट शेयर की बात करें तो पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार भी भाजपा का वोट शेयर लगभग बराबर रहा। लेकिन वर्ष 2014 के बाद शायद यह पहला मौका होगा जब भाजपा रणनीतिक तौर पर कुछ अलग सोचेगी। जब भाजपा हार के कारणों का विश्लेषण करेगी तो यह आगामी चुनावों के फायदेमंद साबित हो सकता है।
आगामी लोकसभा चुनाव से पहले इस वर्ष नवम्बर माह में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश सहित मिजोरम में चुनाव हैं। और फिर दिसंबर में राजस्थान में। फिर अगले वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव के लगभग साथ आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और ओडिशा में भी विधानसभा चुनाव हैं।
ऐसे में इन राज्यों की चुनावी रणनीति के लिए भाजपा अब उन बिंदुओं पर चर्चा कर पाएगी जिन्हें पार्टी शायद लम्बे समय से मिल रही जीत के चलते शायद नज़रअंदाज़ कर रही थी।
जैसे कुछ राज्यों में एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व की सक्रियता, कर्नाटक चुनाव में मिली हार के बाद भाजपा अन्य राज्यों में भी उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ जैसी एक लीडरशिप तैयार करने का प्रयास कर सकती है ताकि चुनाव प्रधानमंत्री के चेहरे पर तो लड़े जाएँ लेकिन सिर्फ प्रधानमंत्री के भरोसे न लड़े जाएँ।
क्या हैं अन्य फैक्टर
वहीं एक फैक्टर यह है कि इन आगामी चुनावों में भाजपा को मध्य प्रदेश में एंटी इंकम्बेंसी का सामना तो करना पड़ सकता है लेकिन कर्नाटक की हार के बाद देश में ओवरआल एंटीइंकम्बेंसी से पार्टी बच सकती है।
वहीं कर्नाटक चुनाव की एक हार का कारण कई विश्लेषकों द्वारा भाजपा से हिन्दू मतदाताओं की नाराज़गी को बताया गया। हालाँकि जमीनी तौर यह स्पष्ट रूप से देखने को मिला नहीं लेकिन हार के बाद सोशल मीडिया पर भाजपा के एक समर्थक वर्ग द्वारा इस हार को ‘हिन्दुओं से कथित धोखे’ का परिणाम बताया गया।
अब परिणामों के बाद शायद इस वर्ग की कथित नाराज़गी जरूर दूर हुई होगी और आगामी चुनावों में नाराज़गी पीछे छोड़ यह वर्ग फिर से कैडर के रूप में भाजपा की जीत के लिए प्रयास कर सकता है। यह प्रयास इसलिए भी मजबूत होगा क्योंकि कर्नाटक में सरकार बदलते ही जो बदलाव देखने को मिलेंगे उनके आधार पर पार्टी अन्य राज्यों में कांग्रेस के प्रशासन का चेहरा आगे रख सकती है।
इसका एक उदहारण ये है कि परिणाम आने की शाम को ही कांग्रेस समर्थकों पर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने के आरोप लगे। इस मामले में बाकायदा कर्नाटक पुलिस ने एफआईआर भी दर्ज़ की है। कर्नाटक की जीत से कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण जरूर जागी है लेकिन इस जीत से 2024 के लोकसभा चुनाव पर कुछ असर होगा, फिलहाल ऐसा कहना उचित नहीं दिखता।
ऐसा इसलिए क्योंकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व भी भाजपा को कईं राज्यों में जीत नहीं मिली जैसे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा या फिर दिल्ली तो इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। जहाँ विधानसभा चुनाव परिणाम पक्ष में नहीं थे लेकिन भाजपा ने लोकसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन किया।
कांग्रेस के लिए ‘खिड़की’ तो जरूर खुली होगी लेकिन खिड़की से बाहर झाँकने पर दिल्ली नहीं दिखाई दे रही क्योंकि कर्नाटक से दिल्ली बहुत दूर है।
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