केंद्र सरकार पर विपक्ष को भ्रष्टाचार के नाम पर निशाना बनाने के आरोप और केंद्रीय जांच एजेंसियों को मोटिवेटेड बताने के बाद अब विपक्षी नेताओं ने जांच से बचने का उपाय ढूंढ़ लिया है। कई राज्यों में सीबीआई को जांच की मंजूरी देने के लिए मना करने के संबंध में आए आदेशों के बीच अब कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के खिलाफ चल रहे 74 करोड़ रुपये की आय से अधिक संपत्ति के मामले की सीबीआई जांच के संबंध में उस फैसले को वापस ले लिया है जिसे पिछली भाजपा के येदियुरप्पा सरकार द्वारा 25 सितंबर, 2019 को मंजूरी दी गई थी।
कैबिनेट का निर्णय है कि भाजपा सरकार द्वारा दी गई मंजूरी ‘कानून के अनुरूप नहीं’ थी क्योंकि शिवकुमार उस समय विधायक थे और उनके खिलाफ जांच की अनुमति देने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से मंजूरी नहीं ली गई थी।
अब जाहिर है कि राज्य सरकार के इस फैसले के बाद सरकार इस मामले में सीबीआई को दी गई अनुमति वापस ले लेगी। इस संबंध में कैबिनेट बैठक के बाद कानून एवं संसदीय कार्य मंत्री एच.के. पाटिल ने कहा कि “सीबीआई को मामला सौंपने की मंजूरी तत्कालीन मुख्यमंत्री (बी.एस. येदियुरप्पा) के मौखिक निर्देश के बाद ली गई थी। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष की अनिवार्य मंजूरी नहीं ली गई थी।
यहां देखने वाली बात है कि डीके शिवकुमार के खिलाफ जांच के लिए सीबीआई को अनुमति देने की मंजूरी 2019 में येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार ने दी थी। इसके बाद शिवकुमार ने मंजूरी की वैधता पर सवाल उठाते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। हालाँकि, उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने मंजूरी की वैधता को बरकरार रखा था।
कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल में शिवकुमार की याचिका खारिज करते हुए कहा गया था कि सरकार द्वारा दी गई सहमति एक कार्यकारी आदेश था, जिसने सीबीआई को जांच करने के लिए सामान्य सहमति दी थी। यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दिया गया आदेश नहीं है जिसमें अध्यक्ष से मंजूरी को लेना अनिवार्य होता है।
ज्ञात हो कि सीबीआई वर्तमान में 2013-2018 की अवधि के दौरान कथित तौर पर आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक ₹74.93 करोड़ की संपत्ति रखने के लिए शिवकुमार की जांच कर रही है। इस मामले में हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने शिवकुमार के खिलाफ सीबीआई द्वारा दर्ज मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया था।
हालांकि, कर्नाटक उच्च न्यायालय 29 नवंबर (बुधवार) को उस अपील पर सुनवाई करने वाला है जो शिवकुमार ने अप्रैल के आदेश के खिलाफ दायर की थी। फिर भी राज्य सरकार ने भाजपा सरकार द्वारा लाए पूराने आदेश को अवैध बताते हुए सीबीआई को मिली मंजूरी के फैसले को वापस लेने का मन बना लिया है।
संभव है कि आगामी सुनवाई में कोर्ट से डीके शिवकुमार को मनमुताबिक फैसला न भी मिले फिर भी राज्य सरकार के फैसले से उन्हें कुछ राहत अवश्य मिलेगी। शिवकुमार राज्य सरकार में फिलहाल 2 नंबर पर है। वर्तमान राज्य सरकार बनने के समय वे उपमुख्यमंत्री पद के लिए तो सहमत हो गए पर जाहिर है कि नंबर 2 से 1 पर आने के लिए उन्हें भ्रष्टाचार के मुकदमों से निपटना होगा।
भ्रष्टाचार की जांच से बचने के लिए कर्नाटक सरकार का फैसला इसलिए भी आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है क्योंकि हाल ही में भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच को लेकर केंद्र पर ईडी और सीबीआई का गलत इस्तेमाल करने के आरोप लगाने के बाद कई राज्यों ने जांच प्रक्रिया में असहयोगात्मक रवैया अपनाया है। यहां तक कि छत्तीसगढ़, झारखंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, राजस्थान सहित करीब 9 राज्यों ने तो सीबीआई को दी जाने वाली सामान्य सहमति को वापस ले लिया है।
ऐसा लग रहा है कि विपक्ष के दलों को भ्रष्ट्राचार की जांच प्रक्रिया की आदत नहीं है और अब वे इस जांच को उनके राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के रास्ते में बाधा के रूप में देखते हैं। 2004 के बाद यूपीए सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए लालू प्रसाद यादव के खिलाफ चल रहे कई मामलों को वापस ले लिया था। 2004 से 2009 की अवधि के दौरान लालू यादव ने रेलवे के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रुप डी पदों पर ‘स्थानापन्न’ की नियुक्ति के बदले अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर भूमि संपत्ति के हस्तांतरण के रूप जो आर्थिक लाभ प्राप्त किया था, उस मामले में भी पिछले वर्ष ही जांच शुरू हो पाई है।
अब यूपीए सरकार द्वारा खींची गई लकीर पर चलते हुए कई राज्यों ने भ्रष्टाचार की जांच को टालने लिए पेचीदा कानूनी तरीक़े ढूंढ़कर जांच एजेंसियों को ही राज्य में प्रवेश से रोक दिया है। कर्नाटक सरकार के मामले को ही देख लें तो उन्होंने उपमुख्यमंत्री पर चल रहे मामले की जांच लोकायुक्त से करवाने की बात कही है।
जांच एजेंसियों का असहयोग ही नहीं राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार के मामलों को वापस लेने, दागदार नेताओं का मंत्री पद देने या जांच के साथ छेड़छाड़ करने के लिए जाने जाते हैं। तमिलनाडु में स्टालिन सरकार हो या दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार, भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जा चुके नेताओं को मंत्री पद पर बनाए रखकर पारदर्शी सरकार का दावा कर रहे हैं।
सीबीआई या ईडी द्वारा की जा रही जांचों को विपक्ष उनको डराने का हथियार और राजनीतिक रूप से प्रेरित बताते हैं। ऐसे में क्या यही दल जांच प्रक्रिया को बाधित करने वाले उनके निर्णयों को राजनीतिक पद बनाए रखने का साधन घोषित करेंगे?
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