लाइव कवरेज के कारण कारगिल युद्ध को ’भारत का प्रथम टेलीविजन युद्ध’ भी कहा जाता है। रियल टाइम कवरेज ने पूरे देश को इस युद्ध और उसके घटनाक्रमों से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया था। वहीं दूसरी तरफ, इस युद्ध के दौरान भारतीय मीडिया के एक हिस्से ने इसे मीडिया-इवेंट में तब्दील करने की कोशिश की और भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच की तर्ज पर प्रसारण किया। राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक संचार के प्रति इस तरह की अनभिज्ञता के कारण तब भारतीय मीडिया को लेकर कई गंभीर प्रश्न उठ खड़े हुए थे।
इसी कारण कारगिल युद्ध के समाप्त होने के बाद जब इस युद्ध का विश्लेषण करने के लिए 29 जुलाई, 1999 को के. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में चार सदस्यीय ’कारगिल समीक्षा समिति’ बनी तो उसने विस्तृत रूप से इस युद्ध में न केवल मीडिया की भूमिका का आकलन किया बल्कि आवश्यक सुझाव दिए।
समिति ने अपने विश्लेषण में पाया कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मीडियाकर्मियों को सैन्य-मामलों और युद्ध-रिपोर्टिंग का कोई अनुभव नहीं था। समिति ने इस बात को भी रेखांकित किया कि भारतीय सेना के ’कमांड-स्ट्रक्चर’ की समझ नहीं होने के कारण मीडिया अपने रिपोर्टिंग अभियान में सूचनाओं को उनके महत्व के अनुसार उचित स्थान निर्धारण करने में कठिनाई महसूस कर रही थी।
इसके कारण बहुत सारी ऐसी गलत खबरों ने जन्म लिया, जो भारतीय सेना के साथ राष्ट्रीय मनोबल को प्रभावित करने वाली थीं। ऐसी ही गलत खबर थी कि दुश्मन ने भारतीय सेना के कई बंकरों पर कब्जा कर लिया था, जबकि सच्चाई यह थी कि दुश्मन ने केवल एक ऐसे स्थायी पेट्रोल पोस्ट पर आधिपत्य जमाया था, जिसे भारतीय सेना मौसम सम्बन्धी दुश्वारियों के कारण पहले ही छोड चुकी थी। एक अन्य खबर यह सामने आई कि घुसपैठियों ने टेलीविजन सेट से लैस तीन मंजिले बंकर बना रखे हैं। यह खबर पूरी तरह गलत और निराधार थी। इसी तरह भारतीय सेना के मई 1999 के पोलैंड के दौरे को लेकर भी तथ्यहीन एवं त्रुटिपूर्ण खबरें सामने आईं थी।
कारगिल समीक्षा समिति ने इस बात की तरफ संकेत किया था कि युद्ध अथवा छद्म-युद्ध से नागरिक-समाज भी अछूता नहीं रह सकता। ऐसे समय में मानवाधिकार, मौतें, संपत्ति का नुकसान और शरणार्थी समस्याएं पैदा होती हैं। इसलिए युद्ध के दौरान ऐसे नागरिक और सैन्य प्रशासन को इन मुद्दों को मिलकर अधिक तत्परता और संवेदनशीलता के साथ निपटाना चाहिए। इस संकेत में अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया को भी यह संदेश देने की कोशिश की गई थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा और युद्ध को अधिक संवेदनशीलता के साथ कवर किया जाना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कारगिल सुरक्षा समिति ने यह सुझाव दिया था कि मीडिया को महू स्थित कॉलेज ऑफ कम्बैट (आर्मी वार कॉलेज) के ’वार कॉरेसपांडेट कोर्स’ का लाभ उठाना चाहिए, ताकि प्रशिक्षित युद्ध संवाददाता उपलब्ध हो सकें।
2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले और 2008 में हुए मुम्बई हमलों का मीडिया-कवरेज यह स्पष्ट करता है कि भारतीय मीडिया ऐसे निर्णायक मौकों पर न तो राष्ट्रीय सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता बना सका है और न ही युद्धकाल की मीडिया-नैतिकता के नए मापदंडों को गढ़ सका है। सामान्य स्थितियों में सूचना का स्वतंत्र प्रवाह एक मीडिया नैतिकता है, लेकिन रियल टाइम सूचना का लाभ उठाकर आतंकवादी निर्दोष नागरिकों की हत्या कर रहे हों, तो किसी घटनाक्रम की कवरेज में रणनीतिक-मूल्यों का समावेश आवश्यक हो जाता है।
कारगिल युद्ध के बाद युद्ध में सूचना और संचार की महत्ता और भी अधिक बढ़ी है। बल्कि अब तो हायब्रिड वारफेयर जैसी पूरी तरह सूचना और संचार केन्द्रित युद्धशैलियां अस्तित्व में आ गई हैं। यू़क्रेन युद्ध ने इस बात को लगभग स्थापित कर दिया है कि युद्ध अब एक अनवरत प्रक्रिया में परिवर्तित हो गया है और यह रणभूमि में कभी-कभी होने वाले संघर्षों के साथ मनोभूमि में भी निरंतर लड़ा जा रहा है।
भारत की विशिष्ट स्थिति इसे सूचना-संचार युद्ध के लिए अधिक सुभेद्य बना देती है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली, वैश्विक स्तर पर निरंतर मजबूत होती स्थिति, परम्परागत सैन्य मोर्चे पर भारतीय सेना की बढ़ती ताकत के कारण प्रतिस्पर्धी राष्ट्र सूचना-संचार के माध्यम से भारत को अस्थिर करने की कोशिशों को और भी अधिक गति प्रदान करेंगे।
भारत की इस विशिष्ट स्थिति और युद्ध की प्रकृति में आए बदलावों को सही अभिव्यक्ति देते हुए वायु सेना अध्यक्ष विवेक राम चौधरी ने 12 अप्रैल 2022 को यह कहा कि नए तरह के युद्ध में दुश्मन को क्षति पहुंचाने के लिए सूचना-क्षेत्र में गढ़े गए सुनियोजित आख्यान का विध्वंशकारी प्रभाव हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि नए तरह के युद्ध में पहली गोली चलने और पहले लड़ाकू को सीमा पार करने से पहले बहुत सारे मोर्चों पर युद्ध लड़ा जा चुका होगा।
ऐसी स्थिति में कारगिल विजय दिवस हमें यह अवसर प्रदान करता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, हायब्रिड वारफेयर, सूचना-संचार युद्ध के परिप्रेक्ष्य में भारतीय मीडिया की स्थिति का अनवरत आकलन करते रहे। यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि मीडिया के आकलन में मीडिया-शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष उत्पन्न हो रही नई चुनौतियों का सामना मीडिया-शिक्षा में बदलाव किए बगैर नहीं किया जा सकता।
यह लेख डॉ जयप्रकाश सिंह द्वारा लिखा गया है। डॉ सिंह हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केंद्र में सहायक आचार्य और हायब्रिड वारफेयर के विशेषज्ञ हैं।
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