फिल्म की कहानी में नायक होगा ही, और नायक है तो नायिका भी होगी। जिन्हें तथाकथित कला फ़िल्में कहते हैं, वो न हो, तो फिल्म की कहानी में नायक को नायिका से और नायिका को नायक से ही प्रेम होगा। किसी दूसरे से नहीं होता। फिर भला ‘कांतारा’ फिल्म में दर्शाए प्रेम की बात क्यों? क्योंकि जैसा प्रेम ‘कांतारा’ फिल्म में दिखाते हैं, उसके लिए ‘रॉ’ सही शब्द है।
जो भाव ‘रॉ’ से निकलता है, उसके लिए शाब्दिक अनुवाद करके कच्चा, या विशुद्ध नहीं कहा जा सकता। पुरुष को जबरन नारीवाद नहीं ओढ़ाया गया, स्त्री कोई फर्जी क्रांति की मशाल नहीं जलाती। जैसा समाज है, करीब करीब वैसे ही समाज में प्रेम का हो जाना दर्शा देते हैं।
दक्षिणी भारत की फिल्मों से आमतौर पर मेरी अपेक्षा होती है कि नायिका कुछ पांच फुट की, थोड़ी गोल-मटोल या जिसे बॉलीवुड की भाषा में ‘गदराया हुआ बदन’ कहते हैं, गोरी सी होगी, जिसे गहनों का भी थोड़ा शौक दिखेगा। जब इस फिल्म की नायिका परदे पर आई तो ऐसा कुछ भी नहीं था! ये तो साधारण सी साज-सज्जा में, कुछ सांवली सी, बला की खूबसूरत भी नहीं, इकहरे बदन की, लम्बी सी लगती लड़की थी। नायक पहले ही बढ़ी हुई अव्यवस्थित दाढ़ी-मूँछ वाला, उज्जड़, माँ से पिट के भागने वाला और भैंसों की दौड़ में जीतने के बाद न देख रहे लोगों को जबरन अपना मैडल दिखाता, बिलकुल देहाती-गंवार सा नौजवान है।
फिल्म में नायक ने नायिका को पहले नहीं देखा हो, ऐसा नहीं है, दोनों एक ही गाँव के थे। इसके बाद भी जब किसी मेले में, कहीं ट्रेनिंग से, नायिका के लौट के आने की खबर मिलती है तो नायक सिर्फ दौड़कर वहाँ पहुँचता भर नहीं है। मेले में आई नायिका हल्की सी साज-सज्जा में है, जैसा गाँव के मेले में होता भी है और नायक की उसे देखकर प्रतिक्रिया वही होती है जो पहली बार देखने और पहली नजर के प्यार में होती। आँखे गुजरती हुई नायिका पर जमी हुई और मुँह खुला का खुला! कोई अनजान, बिलकुल अनभिज्ञ भी देख ले तो कह दे कि इस लड़के पर तो बिजली गिरी है। कुछ दबाया, छुपाया, ढका हुआ सा नहीं, प्रेम अपने उद्दात यौवन पर दिखता है।
प्रेम के इस पहले दृश्य के बाद ही नायक वैसे ही सहमा हुआ दिखता है, जैसे गाँव का कोई युवक, जो ये सोच रहा हो कि कहीं इसने पिता-भाइयों से शिकायत न की हो। युवक किसी योग्य है भी, ‘मैरिज मटेरियल’ है या केवल डींगे मारने, शो ऑफ के काम का है, ये तय करती नायिका भी दिखती है। बिना सजावट वाले कपड़ों-मेकअप के, आम लड़की के से कपड़ों-हुलिए में नायक का व्यवहार बदलता है या नहीं, ये भी दर्शक महसूस कर सकते हैं।
भारत के हर क्षेत्र में वन और वनवासी समुदाय नहीं होते, इसलिए हर जगह दर्शक फिल्म से ‘कनेक्ट’ नहीं करेंगे, ऐसा भी नहीं होगा। एक ‘आशा’ नाम की स्वास्थ्य सेवा की नौकरी करती स्त्री, और उसे दूर-दराज के गावों में छोड़ने जाते पुरुष से भारत के ग्रामों का अच्छा परिचय है, इसलिए फारेस्ट गार्ड को मोटरसाइकिल से छोड़ने आया नायक बिलकुल आम ही लगता है।
खाना पहुँचाने आई नायिका पर भड़ककर थाली फेंकने, खाना छोड़ने वाले युवक में नारीवादियों को हिंसा दिख जाएगी। जी हाँ, नारीवादियों के अनुसार स्त्री पर होने वाली हिंसा में केवल मार-पीट या गाली-गलौच का मतलब हिंसा नहीं होता। उनकी परिभाषा से चलें तो बातचीत बंद करना भी हिंसा है, इसलिए नालीवादियों, क्षमा कीजिएगा, नारीवादियों को नायक हिंसक लगे ऐसा हो सकता है। जैसे ही नायिका अपनी स्थिति समझाकर जाती है, वैसे ही नायक चुपचाप पीछे चला आता है। नायिका को मनाने के लिए गुलाब- चौकलेट नहीं लाता, मछली लेकर आता है।
प्रेम केवल ‘प्लेटोनिक’ नहीं होगा, उसमें शरीर भी होगा, ये समझ में आता है। जिस स्त्री से प्रेम हो, चाहे वो पत्नी-प्रेमिका नहीं, माँ-बहन या मित्र ही हो, उनके लिए कई काम बिना कहे कर दिए जाते हैं। नारियल घिसता नायक किन्हीं नारीवादी अवधारणाओं वाले में नहीं, उद्दात बल्कि प्रेम के ‘रॉ फॉर्म’ में ही तो दिखता है!
परिवार और अन्य संबंधों की अवधारणाएँ भी ‘उर्दूवुड’ से समाप्त होती दिखती हैं। इसलिए प्रेम के जो परिवार से जुड़े रूप हैं, वो भी फिल्मों से लापता हो गए हैं। कांतारा के नायक की माँ जिस भूमिका में दिखती है उसे भी देख सकते हैं। शारीरिक सामर्थ्य में नायक कहीं तगड़ा है, लेकिन गलत हरकत पर माँ की पिटाई से, या फिर डांट पड़ने के डर से वो भागता हुआ दिखता है। डरावना सपना देखकर वो माँ के पास किसी बच्चे की तरह सिमट आता है। काम काज पर ध्यान देने के लिए, शिकार जैसी हरकतें न करने के लिए, हर गलत काम पर टोकती, और फिर जेल जाने पर उसे छुड़ाने के लिए परेशान माँ का जो चरित्र दिखता है, वो भी प्रेम का ‘रॉ फॉर्म’ ही है। नायिका के पिता और भाई से नायक के व्यवहार में जो दिखता है, वो भी पारिवारिक संबंधों में प्रेम का ही भाव है।
कथित रूप से हिंदी में बनी जो बॉलीवुड की फ़िल्में हैं, उनमें लम्बे समय से जो प्रेम दिखता है, वो पेड़ों का चक्कर लगा-लगा कर गाना गाने तक सिमित है। इसमें नायिका गलत-सही के लिए नायक को टोकती नहीं दिखती। नायक-नायिका दोनों के एक दूसरे से रूठने-मनाने का दौर नहीं दिखता। प्रेम की प्रदर्शनी लगाई जाती है, दो लोगों के नितांत निजी अनुभव के रूप में दिखने वाला प्रेम, जिसमे थैंक्यू-सॉरी जैसे शब्दों की जगह नहीं होती, वो दिखता ही नहीं।
‘प्रेम गली अति सांकरी’ में जिन दो का एक ही हो जाना दिखे, वैसा प्रेम हिंदी पट्टी की फिल्मों से कबका लापता हो चुका। जिस भाव में कांतारा में प्रेम को दर्शाया गया है, वो कई कारणों से असहज करता है। ग्रामीण परिवेश के कारण असहज करता है। भौंडे धन-प्रदर्शन के बदले भाव दिखा देने के कारण असहज करता है। कई बार यौवन के प्रेम में शरीर की भूमिका दर्शा देने के लिए भी असहज करता है।
जब कांतारा की बात होगी तो संभवतः इसमें संस्कृति से जुड़े पक्ष दिखाने की बात होगी। मालेनाडू और कासरगोड कहलाने वाले केरल-कर्णाटक की धार्मिक मान्यताओं की वजह से इसकी चर्चा होगी। कलाकारों के अभिनय कौशल की भी बात होगी। हो सके तो इसमें प्रेम को दर्शाया जाना भी देख लीजिएगा। शायद अपेक्षाओं के भारी बोझ से बच जाएँ, अभिव्यक्ति के और रूप भी समझ में आने लगें!