कांतारा सिनेमा की वह अलाप है जो एक अनंत विश्रांति के बाद मंद्रसप्तक से उठ आई है। यह सिनेमा की विलंबित नब्ज है। मानो एक लम्बी थकान के बाद किसी समाज की अर्थध्वनियाँ, जो कला के सिंहद्वार पर आ कर ठहर गई थीं, उसे बस सहजता से कह दिया गया।नायक के दिखने पर संगीत नहीं बदलता। नायिका के लिए अलग से संगीत का कोई ठहराव ही नहीं। नायिका तो मगर फ़िल्म में कई हैं – कभी नींद में अपनी चीख से घबराए शिवा को दिलासा देती माँ, तो कभी शिवा के कहने पर मछलियाँ बनाती अदाकारा। तो आख़िर नायक-नायिका की परिभाषा क्या होती है?
वस्तुतः नायक और नायिका की परिभाषा के साथ उत्तर-दक्षिण के सिनमाकारों ने इतने प्रयोग किए कि यह जटिल हो गया; सवाल पूछना कि नायक कौन है? नायिका कौन है? कांतारा में तो वह दैव का खोया मुकुट भी नायक है। जेल में कुछ पलों के लिए पैर के घुँघरू बजाती ध्वनि भी नायिका है। वह शिला भी नायक है, जिसे एक कूपमंडूक जमींदार मसाले कूटने का पत्थर कहता है।
वास्तव में इन्हीं सभी नायकों की सहजता को कांतारा बेहद आसानी से कहती है। सहजता ही कांतारा का पाथेय है। सहजता ही इस फ़िल्म का टकसाल भी। कांतारा, सम्भवतः यही वह कला और उसका प्रकटन है, जिसे जॉन कीट्स ने अपनी कविता में ‘फ़ुल थ्रोटेड ईज़’ नाम दिया। फ़िल्म की पटकथा में नायक-नायिका प्रसंग तय करने में ही समस्त शक्ति नहीं झोंक दी गई। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा की इस प्रथा को तिरोहित ही करती है।
कांतारा में सिनेमा के नाम पर सब कुछ है। अच्छा पार्श्व संगीत, जो उबाऊ या कानों में चुभता महसूस नहीं होता। यह संगीत दृश्यों में साँचे की तरह बैठ जाता है। दैव की चीख भी संवाद करती है और दैव का सन्नाटा भी। नायक की आँखों में वह जबरन बिठाया गया क्रोध नहीं है जो अक्सर बॉलीवुड या फिर टॉलीवुड की फ़िल्मों में नज़र आता है।
यह हमें हॉलीवुड की कुछ फ़िल्मों की याद ज़रूर दिलाती है – जैसे, पल्प फ़िक्शन के ऐक्शन सीन से पूर्व पढ़ी जाने वाली बायबिल की पंक्तियाँ, या खूनख़राबे और रक्तपात के बीच आम बोलचाल के दृश्य। जैसे, ‘वन्स अपोन आ टाइम इन मैक्सिको’ फ़िल्म में एंटोनियो बैंडेरस को फ़िल्माते ऐक्शन सीन। कांतारा में ऐसे दृश्य हॉलीवुड की इन फ़िल्मों की उधेड़बुन से भी अधिक सम्यक हैं।
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कांतारा की क़हानी
कांतारा फ़िल्म लोक देवता और वनवासी समुदाय की जीवनशैली के इर्द-गिर्द घूमती है। कई सौ साल पहले एक गाँव में एक राजा था, जिसने एक लोकदेवता के समक्ष अपने मन की शांति का सौदा किया। दैव ने उस से बस भूमि माँगी और बदले में उसे वह शांति दी, जिसके लिए वह भटकते दैव तक पहुँचा।
समय बीतता है और गाँव अपनी स्थानीय परम्परा के साथ आगे बढ़ता जाता है, अगर कुछ नहीं बदलता तो गाँव के रीति-रिवाज, भूत कोला और दैव पर ग्रामीणों की अटल आस्था। राजा की संतति अवश्य अपनी ज़मीन अब वापस चाहती है। ज़मींदार साहब को लगता है कि दैव कुछ नहीं हैं और यदि हैं भी तो उन्हें उनके पुरखों की ‘भूल’ वापस कर दी जाए।
कथा इसी सब बहस के बीच चलती है। इस बीच फ़िल्म में जल-जंगल और ज़मीन के भी मुद्दे हैं कि वनवासी समाज को किस तरह से न्याय व्यवस्था के आने पर तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा। अपने क़बिलाई संस्कृति से उन्हें अलग करने के प्रयास किए ग़ए, फ़िल्म चुपके से यह भी दिखाने का प्रयास करती है।
कांतारा के किरदार
जिस तरह की ग्रामीण संस्कृति इस फ़िल्म में उकेरी गई है वह एकदम वास्तविक ही नज़र आती है। ग्रामीणों के हंसी-ख़ुशी के संवाद। दुविधा में भी व्यंग्य करने की आदत। किरदार एकदम मौलिक, जैसे नायक के कुछ यार-दोस्त, जिनमें कोई भी दूसरे से अधिक और कम नहीं हैं। कुछ ग्रामीण बोलचाल के ऐसे संवाद जो घर-गाँव में अश्लील नहीं माने जाते, सहजता से दिखाए गए हैं। यह बताता है कि निर्माता-निर्देशक वास्तव में गाँव की कितनी बारीक समझ रखता है।
एक शिवा है, जो मस्त मौला है। एक उसकी माँ है और कुछ उसके गाँव के लोग। वनवासी परम्परा से जी रहे ये लोग वन रक्षकों से अपने वनों के नाम पूछते नज़र आते हैं। यहाँ पर ऐसे संवाद की आवश्यकता यह बताने के लिए रखी जाती है कि वन और वनवासी, दोनों एक दूसरे से हैं, ना कि क़ानून से वन और वनों से क़ानून!
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‘भूत कोला’ और बहस
फ़िल्म की कहानी को ले कर क़रीब-क़रीब सभी बातें कही और लिखी जा चुकी हैं। एक जिस चीज़ पर लम्बी बहस अभी भी जारी है वह है ‘भूत कोला’ की परम्परा।
दरअसल, कांतारा फिल्म में ‘भूत कोला’ नामक एक प्रथा का ज़िक्र है। पूरी फ़िल्म की कहानी के केंद्र में वनवासी समाज का ‘भूत कोला’ रिवाज है। सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर काफी बहस हो रही है कि यह ‘भूत कोला’ प्रथा हिंदू संस्कृति का हिस्सा है या नहीं?
कुछ लोगों का मानना है कि भूत कोला हिंदू संस्कृति का हिस्सा है, जबकि कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस तथ्य को एकदम नकार रहे हैं। कुछ लोगों की मानें तो ‘भूत कोला’ पूजा पद्धति का हिस्सा है। यह समुदाय दक्षिण कर्नाटक, केरल के उडुपी और कासरगोड में मिलता है। कहा जाता है कि तुलु समुदाय के लोग भूत कोला के माध्यम से अपने देवताओं की पूजा करते हैं।
यहाँ पर यह सबसे अहम बात है। क्या सिर्फ़ तुलु समुदाय में ही भूत कोला की परम्परा है? अगर ऐसा है तो मुझे कांतारा देखते हुए उत्तराखंड के जनजातीय क्षेत्रों की परम्पराएँ क्यों याद आती हैं, जिन्हें देखते हुए हम बड़े हुए हैं। ठीक उसी तरह किसी अनोखी पारलौकिक शक्ति का मानव शरीर में प्रवेश करना।
समूचे भारत में ही शायद ऐसे कई गाँव, क़स्बे होंगे जहाँ अहम से अहम फ़ैसले दैव पर छोड़ दिए जाते हैं। लोग एकटक लगाए दैव के किसी इशारे का इंतज़ार करते हैं और फिर उस फ़ैसले के समक्ष निर्विवाद रूप से एकमत हो जाते हैं।
उत्तराखंड के संदर्भ में कहें तो संस्कृतिक देवताओं से इतर कई लोक देवता एवं ग्राम्य देवता हैं, जिनके आह्वान की विधियाँ हैं, जिन्हें ग्रामीण समाज में कई सौ सालों से पारम्परिक रूप से पूजा जाता रहा है। उनके पूजन की विधियाँ हैं, उन्हें पूजने वाले लोग तय हैं। वह दैव क्या खाते हैं, क्या नृत्य करते हैं, कौन से वादन पर झूमते हैं, यह सब किसने और कब तय किया यह कोई नहीं जानता, किंतु यह सब तय हो चुका है। तय किसने और कब किया, यह रहस्य आस्था के बीच कभी सुलझाए नहीं जा सके और ना ही इनकी कभी आवश्यकता महसूस हुई।
वजह यह है कि दैव ने जब चाहा, वर्षा दी, अकाल से उबारा, रोगियों का इलाज किया, पशुओं को आरोग्य किया, जंगलों को शांति दी और मिट्टी को उर्वरा प्रदान की। उत्तराखंड में कई ऐसे मंदिर हैं जिनका निर्माण सिर्फ़ इस कारण किया गया क्योंकि किसी पुजारी को स्वप्न में दैव ने दर्शन दिए। कई परम्पराएँ हैं, जिन्हें दैव के कहने पर अपनाया गया। इनसे इस समाज का नुकसान कभी नहीं हुआ, बल्कि इसके अनुसरण से यह समाज आपस में बँधे ज़रूर नज़र आए। यह परम्पराएँ उत्तराखंड के आँचलिक इलाक़ों के क़ानून हैं। दैव ही सर्वोच्च सत्ता हैं, दैव ही आस्था का केंद्र हैं।
उत्तराखंड में जागर देवताओं का आह्वान करती हैं, उनकी स्तुति गाती हैं। कांतारा फ़िल्म में वराह रूपम जैसी ध्वनियाँ हैं। यह हिंदू परम्पराएँ हैं या नहीं, इस सवाल से बड़ी यहाँ पर यह हैरानी है कि भारतवर्ष की बिखरी हुई इस अनंत भौगौलिक सीमा में दो अलग-अलग जगहों पर एक जैसी समानता कैसे हो सकती हैं? मानो धर्म ने ही सभी सीमाओं को पार कर दिया।
जागर हो या फिर भूत कोला, जहाँ पर धर्म की बात आती है, हमारा समाज तमाम बंधनों से मुक्त नज़र आया है। सभी जाति, वर्ग के लोग आपस में नृत्य करते हैं, पूजन करते हैं, प्रसाद ग्रहण करते हैं, गले मिलते हैं।
उत्तराखंड की ‘कालरात्रि’ में ‘मनाण’ का आयोजन होता है जिसमें कई क़िस्म की शक्तियाँ मंचन करती हैं। इसमें ‘मांत्री’, भैरव, नाग, द्रौपदी, और पांडव नृत्य करते हैं और इसी बीच अक्सर किसी व्यक्ति, पुरुष या महिला के ज़रिए उसके परिवार की कोई दिवंगत आत्मा संवाद करती है। वह अपनी अतृप्त आकांक्षाओं के बारे में बात करती है, या बताती है कि उसके परिवार में कौन सी परेशानी का क्या हल है। वह याद दिलाता है कि उसने कई वर्ष पहले किसी के किसी नुक़सान का कर्ज नहीं चुकाया है, या वह किसी ऐसे कार्य में व्यस्त रहा, जिस से वह अपने आराध्या से दूर रहा है।
गाँव का औजी हर देवता, शक्ति की थाप ढोल पर अलग क़िस्म से बजाता है। औजी, जो कि अनुसूचित जाति से ताल्लुक़ रखता है, आयोजन में ब्राह्मण के साथ अपना भाग साझा करता है। यानी जो भी चढ़ावा मिलता है, वह औजी और पुजारी में समान रूप से वितरित होता है। और हम बात करते हैं सामाजिक बँटवारे की? अगर हमारा समाज कभी बँटा होता तो हमारी प्रथाएँ एवं व्यवस्थाएँ इतनी उन्नत कैसे होतीं? यह समाज तो बराबरी में विश्वास रखता है।
इन शक्तियों के अलावा कुछ लोक देवता भी होते हैं, जिन्हें कि उत्तराखंड में प्रत्येक परिवार की अलग-अलग परम्पराओं के अनुसार निभाया जाता है। अक्सर इनकी पूजा हर परिवार या कुटुम्ब की निजी और अपनी परम्परा से होती है। यह ‘गुरील’ भी कहे जाते हैं और ‘नरसिंह’ भी। भूत कोला इन परम्पराओं के अधिक क़रीब है। यानी कुछ देवता हुए, जो ब्रह्म भोज और ‘ढोल-दमौ’ से पुकारे जाते हैं और कुछ देवता वो हुए, जो एकदम एकांत में ही स्मरण माँगते हैं।
कांतार फ़िल्म पर वापस लौटें तो यहाँ नृत्य के माध्यम से दैवीय शक्तियों की पूजा करना भूत कोला का एक प्रमुख रूप माना गया है। भूत का अर्थ है शक्ति और कोला का अर्थ है जश्न मनाना, जलसा, जुलूस या प्रदर्शन करना।
बताया जाता है कि इसमें भी कई बार मनुष्य और फसलों के लिए घातक जानवरों की पूजा की जाती है। जैसे, जंगली सूअर या बाघ जैसे पशु। कई बार प्रकृति की शक्तियों, जैसे – वायु, जल, पृथ्वी, आकाश और अग्नि की पूजा की जाती है और कई बार वीरभद्र और गुलिगा की पूजा-अर्चना!
कांतारा एक बेहतरीन सिनेमा का उदाहरण है। यह लोक और समाज के बीच से उठी बेहद आम कथा है। इसे फ़िल्माया ज़रूर असाधारण तरीक़े से गया है। इस तरह से है कि समाज का हर वर्ग इसे देखने के बाद सिहरन महसूस करता है।
फ़िल्म में सिनेमेटोग्राफी दैव की कथा को रोचक बनाती है। ख़ास तौर पर आख़िर के बीस मिनट ऐसे बन पड़े हैं कि आप उस शक्ति को महसूस कर सकते हैं। कलाकारों ने कथा के साथ ईमानदारी से न्याय किया है। हालाँकि, फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आम दर्शकों की समझ से परे हो फिर भी हर दर्शक कई सवालों के साथ सिनेमाघर से बाहर निकलता है। कई प्रश्नों का शेष रह जाना भी अच्छे सिनेमा की जीत है।