पद्म विभूषण और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, प्रसिद्ध उपन्यासकार राजा राव ने वर्ष 1985 में ‘इनर रिसेसेस आउटर स्पेसेस’ (Inner Recesses Outer Spaces) नामक एक संस्मरण की प्रस्तावना लिखी, तो उन्होंने इस पुस्तक की नायिका को वर्णित करते हुए, “आज के भारतीय परिदृश्य की सबसे सम्मानित महिला” बताया। उन्होंने आगे लिखा, “दृढ़ता से भारतीय और इसलिए सार्वभौमिक। संवेदनशीलता और बुद्धिमत्ता दोनों में अत्यधिक परिष्कृत। वह शहर हो या गाँव, सभी के साथ पूरी सादगी के साथ चलती हैं।”
कौन थी वह महिला जिसे ‘शरारती’ बताते हुए महात्मा गाँधी ने जवाहलाल नेहरू को पत्र में उनसे सावधान रहने की बात कही थी? कौन थी, जिन्हें मोतीलाल नेहरू ने ‘खतरनाक महिला’ की उपमा दी थी? आखिर कौन थी यह महिला? इनका भारतीय परिदृश्य में ऐसा क्या सराहनीय योगदान था? क्या हमें इनके बारे में कभी विस्तार से बताया गया है?
यह कहानी है एक स्वतंत्रता सेनानी (Freedom Fighter), अभिनेत्री, सामाजिक कार्यकर्ता (Social Activist), कला प्रशंषक, राजनेता (Politician), स्वतंत्र विचारक (Free Thinker) और नारीवाद (Feminism) जैसी विशेषताओं से परिपूर्ण एक महिला की।
भारत में उनका योगदान आश्चर्यजनक रूप से विविध है। उनके विचार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं, चाहे वह नारीवाद हो अथवा समतावादी राजनीति, कला और नाट्य शास्त्र और भारतीय हस्तशिल्प में उनके स्थायी विश्वास की जीती-जागती मिसाल तो हमें आज भी देखने को मिल जाएँगे। जो विश्व के लिए भारतीय नारीशक्ति की एक प्रतीकात्मक रूप हो सकती थी, ऐसी इन अद्भुत महिला को इनके अपने हीं मातृभूमि में भुला दिया गया।
हम बात कर रहे हैं, मैंगलोर के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में 3 अप्रैल, 1903 को जन्मीं ‘कमलादेवी’, तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के दक्षिण कनारा जिले में एक जिला कलेक्टर अनंतया धरेश्वर और उनकी दूसरी पत्नी गिरिजाम्मा की बेटी थीं। कमलादेवी, सभी भाई-बहनों में चौथी और सबसे छोटी थीं।
कमलादेवी का प्रारंभिक जीवन
जैसा कि हर महान कहानी की शुरुआत त्रासदी से होती है। कमलादेवी का प्रारंभिक बचपन भी त्रासदियों से भरा रहा। त्रासदियों का पहला अध्याय था, कमलादेवी की बड़ी बहन, सगुना, जिससे वह बहुत करीब थी, उनकी कम उम्र में ही शादी हो गयी और उसके तुरंत बाद उनका किशोरावस्था में ही निधन हो गया।
त्रासदी का दूसरा और सबसे भयानक अध्याय था, सात वर्ष की उम्र में उनका अपने पिता को खो देना। और इस त्रासदी का तीसरा अध्याय था कि उनके पिता ने मृत्यु से पूर्व कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी, इससे उनकी सभी संपत्तियों का स्वामित्व उनकी पहली शादी से उनके बेटे को हस्तांतरित कर दिया गया। इससे उनकी दूसरी पत्नी गिरिजाम्मा और बेटी कमलादेवी को बीच मझदार में छोड़ दिया गया।
इन त्रासदियों के बीच आशा की किरण बनकर आए कमलादेवी के मामा जी। कमलादेवी अपने मामा के घर हीं पली-बढ़ी, जो एक प्रसिद्द समाज सुधारक थे। अपने मामा के रहते हुए कमलादेवी की मुलाकात अक्सर गोपालकृष्ण गोखले, सर तेज बहादुर सप्रू, महादेव गोविंद रानाडे, श्रीनिवास शास्त्री, एनी बेसेंट और पंडिता रमाबाई जैसे राजनीतिक दिग्गजों और सार्वजनिक हस्तियों से होता रहता था।
इन प्रतिष्ठित हस्तियों के साथ कमलादेवी की बातचीत ने, छोटी उम्र में हीं उनके दिमाग में राजनीतिक चेतना के बीज बो दिए थे। हालाँकि, यह उनकी शिक्षित माँ और उद्यमी दादी थीं जिन्होंने उनके दिमाग पर सबसे गहरी छाप छोड़ी। इन दो महिलाओं की वजह से कमलादेवी को किताबों के प्रति आजीवन प्रेम और अपनी ‘स्वतंत्र’ लकीर विरासत में मिला।
कमलादेवी का वैवाहिक जीवन
कमलादेवी का जीवन उतार-चढ़ाव से भरपूर रहा। वर्ष 1917 में, 14 वर्षीय कमलादेवी की शादी कृष्णराव से हुई, लेकिन त्रासदी ने उनका साथ नहीं छोड़ा। शादी के एक साल के भीतर ही उनके पति की मृत्यु हो गई, जिससे वह विधवा हो गईं।
हालाँकि, उनके ससुर उदारवादी थे और उन्होंने उन्हें शिक्षा जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी सलाह को दिल से लेते हुए, अगले कुछ वर्षों तक कमलदेवी ने खुद को पढ़ाई के लिए समर्पित कर दिया।
मैंगलोर में अपनी स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद, कमलादेवी ने मद्रास के ‘क्वीन मैरी कॉलेज’ में प्रवेश लिया। यहाँ उनकी दोस्ती वामपंथी क्रांतिकारी, ‘सुहासिनी चट्टोपाध्याय’ (कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे पहली महिला सदस्य) के साथ हुई।
सुहासिनी, सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू की छोटी बहन थीं और सुहासिनी के माध्यम से हीं कमलादेवी की मुलाकात, हरिंद्रनाथ ‘हरीन’ चट्टोपाध्याय (सुहासिनी के बड़े भाई/सरोजिनी नायडू के छोटे भाई) से हुई।
हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय एक उच्च व्यक्तित्व वाले कवि, नाटककार और अभिनेता थे। उन्हें बाद में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया। साथ हीं विजयवाड़ा संसदीय क्षेत्र से प्रथम लोकसभा के संसद भी बने। उन्होंने कमलादेवी के साथ, कई समान रुचियाँ साझा कीं।
कला के लिए जुनून, संगीत और रंगमंच से प्यार। इन्हीं कारणों से उनका प्यार परवान चढ़ा। हालाँकि उन दिनों विधवा पुनर्विवाह काफी दुर्लभ घटना थी, कमलादेवी ने सामाजिक बाधाओं के खिलाफ विद्रोह किया। रूढ़िवादी समाज के विरोध के बावजूद, दोनों ने वर्ष 1919 में शादी कर ली।
अपने पति के साथ, कमलादेवी ने पूरे भारत में मंचन किया। लोक रंगमंच और क्षेत्रीय नाटक के साथ प्रयोग किया और यहाँ तक कि मूक फिल्मों में अभिनय भी किया। उन्होंने वसंतसेना, तानसेन, शंकर-पार्वती आदि में अभिनय किया। उनके अपने शब्दों में, उनके लिए रंगमंच, “एक धर्मयुद्ध की तरह था, जिसने अपनी जीवन-शक्ति को, लोगों के दैनिक जीवन के साथ अपने संबंध से आकर्षित किया।“
कुछ समय बाद, दंपति लंदन के लिए रवाना हो गए। लंदन में कमलादेवी ने समाजशास्त्र में डिप्लोमा कोर्स करने के लिए, ‘लंदन विश्वविद्यालय’ के ‘बेडफोर्ड कॉलेज’ में दाखिला लिया। पढ़ाई तो भली-भाँति चल रही थी, लेकिन इनके निजी जीवन में हलचल तेज़ थी।
प्रसिद्ध नारीवादी अर्थशास्त्री और शिक्षाविद देवकी जैन के संस्मरण ‘द ब्रास नोटबुक‘ (The Brass Notebook: A Memoir) के अनुसार हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय अवैध या अनैतिक कार्यों में संलग्न थे और अगर इसे विनम्रता से रखें तो, महिलाओं के व्यक्तित्व और उनके स्थान, और विचार का सम्मान नहीं करते थे।
सच्चाई यह है कि, विवाहोपरांत हरिंद्रनाथ पर ‘बॉलीवुड’ से होने के दुष्प्रभाव हावी हुए और उनके जीवन में अवैध संबंधों की एक श्रृंखला शुरू हुई। उन्होंने कई युवतियों के साथ संबंध स्थापित किए।
कमलादेवी ने, अपने बेटे की खातिर अपने पति के इन अवगुणों को सहन किया। लेकिन कालान्तर में चीजें नहीं सुधरीं और आखिरकार 30 वर्षीय कमलादेवी ने हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय से वर्ष 1933 में कानूनी तौर पर अलगाव (तलाक) लेने का फैसला किया। लेकिन इसके बाद चट्टोपाध्याय नाम उनके नाम के साथ ताउम्र बना रहा।
समाज की एक और परंपरा तोड़ते हुए, उन्होंने कानूनी तौर पर अलगाव (तलाक)के लिए अदालत का रुख किया। उनके तलाक को भारतीय अदालतों द्वारा दी गई पहली कानूनी अलगाव का फैसला कहा जाता है।
भारतीय राजनीति में प्रवेश
कमलादेवी ने राजनीतिक सुधारों और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कमलादेवी अभी लंदन में थीं जब उन्होंने वर्ष 1923 में, महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन के बारे में सुना।
वह भारत लौट आई और सेवा दल (गरीबों के सामाजिक उत्थान की दिशा में काम करने वाले एक गांधीवादी संगठन) में शामिल हो गई। उनके समर्पण ने उन्हें जल्द ही संगठन के महिला विभाग का प्रभारी बना दिया, जिसने स्वैच्छिक कार्यकर्ता बनने के लिए पूरे भारत में सभी उम्र की महिलाओं को भर्ती और प्रशिक्षित किया।
कमलादेवी ने राजनीतिक पद के लिए दौड़ने वाली भारत की पहली महिला बनने का अनूठा गौरव भी अर्जित किया। उन्होंने मद्रास प्रान्तीय चुनाव में उम्मीदवार के रूप में नामाँकन किया।
हालाँकि वह केवल 55 मतों से हार गईं, लेकिन इस चुनाव से उन्हें पहचान मिली और उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (All-India Women’s Conference) का सचिव नियुक्त किया गया। वह 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) में शामिल हुईं और एक साल के भीतर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (All-India Congress Committee) के लिए चुनी गईं।
कमलादेवी और नारीवाद
नारीवाद की पुरज़ोर समर्थक कमलादेवी ने, लैंगिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए समान नागरिक संहिता के लिए जोर दिया। उन्होंने बाल विवाह की रोकथाम के लिए भी कदम उठाए। कमलादेवी ने महिलाओं के ‘अवैतनिक’ घरेलू-श्रम को एक आर्थिक गतिविधि मानने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
महिलाओं की शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए उन्होंने अभियान चलाकर इसके लिए बीज बोया। बाद में यह बीज, नई दिल्ली स्थित ‘लेडी इरविन कॉलेज’ के रूप में फलीभूत हुआ।
कमलादेवी ने फिल्मों में तब अभिनय किया, जब फिल्म उद्योग को महिलाओं के लिए सम्मानजनक स्थान नहीं माना जाता था। उन्होंने 1927 में पुणे में अखिल भारतीय महिला संगठन की शुरुआत की जिसकी अध्यक्षता बड़ौदा की रानी ने की थी। कमलादेवी को इसका सचिव बनाया गया।
जब उन्हें जर्मनी में रहने का मौका मिला, तो उन्होंने ‘इंटरनेशनल अलायन्स फॉर वीमेन’ ( International Alliance of Women) में भाग लिया। उन्होंने मैंगलोर स्थित काजू उद्योग में कार्यरत महिलाओं के लिए सत्याग्रह किया और कार्यस्थल पर मौजूद कई महिला विरोधी नियमों को ध्वस्त किया।
जब वर्ष 1930 में महात्मा गाँधी ने नमक सत्याग्रह में ‘महिलाओं को शामिल‘ करने का विरोध किया, तो कमलादेवी ने उनके इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी। उनके मांगें पूरी हुई और इसी घटना का जिक्र करते हुए कालांतर में कभी ‘शरारती’ बताते हुए महात्मा गाँधी ने जवाहलाल नेहरू को पत्र में उनसे सावधान रहने की बात कही थी
कमलादेवी निःसंदेह महिला सशक्तिकरण की प्रतिमूर्ति थीं। वह महिला यौन स्वतंत्रता और जन्म नियंत्रण की हिमायती थीं। विधवा होने के बाद उनका पुनर्विवाह और दूसरी शादी से कानूनी तलाक उनके आत्म-सशक्तिकरण का प्रतीक था।
एक पत्रकार द्वारा महिला सशक्तिकरण पर उनके विचार पूछे जाने पर, उन्होंने जवाब दिया, “पुरुषों को पहले महिलाओं के बराबर होना सीखना चाहिए।”
सचमुच, कमलादेवी ने अपना जीवन पूर्ण रूप से जिया, जो उनके समय में महिलाओं के लिए अत्यधिक दुर्लभ था।
स्वतंत्रता संग्राम में कमलादेवी का योगदान
कमलादेवी ने वर्ष 1930 में, महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह आंदोलन में उत्साह से भाग लिया। उन्होंने ‘स्वतंत्रता’ नमक के पैकेट बेचने के लिए ‘बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज’ में प्रवेश किया और इन्हें नमक कानूनों के उल्लंघन के लिए जेल की सजा हुई।
वह नाटकीय क्षण जिसने उन्हें राष्ट्रपटल पर स्थापित कर दिया, वह था जब उन्होंने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया और उन्हें लाठी-डंडों से पीटा गया। इसके बाद जब उन्होंने किसी अंग्रेज़ को ध्वज का अपमान करते देखा तो उसे लेकर वह ब्रिटिश सैनिकों से बचाने के लिए दृढ़ता से उससे चिपकी रहीं।
इस प्रक्रिया में वह घायल हो गई और उनके शरीर से भी बहुत खून बह गया था। गाँधी जी ने जब यह सुना तो वह बेहद खुश हुए और कमलादेवी को ध्वज के प्रति समर्पण के लिए बधाई दी।
उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किया गया और वेल्लोर जेल भेज दिया गया था। हालाँकि उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया था, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें लगभग दो साल तक जेल में रखा। उनकी तबीयत बिगड़ने पर सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया।
कमलादेवी की दृश्यता और उनकी मुखरता ने सैकड़ों महिलाओं को स्वयंसेवकों के रूप में आकर्षित करने में मदद की। बाद में वर्ष 1936 में, वह राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के साथ काम करते हुए, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (Congress Socialist Party) की अध्यक्ष बनीं। हालाँकि, यह नारीवाद था जो उसके दिल के सबसे करीब रहा।
स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भागीदारी के साथ हीं उनकी पहचान कई नामचीन और प्रमुख लोगों से हुई। और फिर भले ही वे मोतीलाल नेहरू हो , या फिर सी राजगोपालाचारी या स्वयं महात्मा गांधी, अगर उन्होंने महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन किया या उनकी अनदेखी की, तो कमलादेवी अपने इन सहयोगियों के विरोध करने से कभी नहीं कतराती थीं।
भारतीय मुद्दों को लेकर विदेश प्रवास
महिला अधिकारों के बारे में एक सम्मेलन में भाग लेने कमलादेवी चट्टोपाध्याय वर्ष 1939 में डेनमार्क पहुँची थी। उनकी यह यात्रा द्वितीय विश्व युद्ध की आहट के बीच शुरू हुई थी। विश्व युद्ध के शुरुवाती दौर में कमलादेवी इंग्लैंड में थीं। और यहाँ से उन्होंने भारत की स्थिति को उजागर करने और भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के लिए विभिन्न देशों की यात्रा करना शुरू कर दिया।
उन्हें भारत लौटने में लगभग दो साल लग गए। उन्होंने इस अवधि के लगभग 18 महीने संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में बिताए, अमेरिकी नारीवादियों के साथ दोस्ती की, अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत की और कई अमेरिकी प्रकाशनों के लिए लिखा।
कमलादेवी ने अपने एक लेख में अमेरिका की नारीवादियों को सम्बोधित करते हुए लिखा, “आप पितृसत्ता से लड़ रहे हैं, हम साम्राज्यवाद से लड़ रहे हैं।” कमलादेवी के लिए वर्ष 1940 में लॉस एंजेल्स टाइम्स ने “वोमेन टेल्स इंडियाज़ होप्स” (Woman Tells India’s Hopes) शीर्षक के साथ एक लेख लिखकर सम्मानित किया।
उनके अमेरिका दौरे पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात, जिनमें ज्यादातर अश्वेत थे, और उनके साथ स्वतंत्रता संग्राम के लिए भारत के अहिंसक दृष्टिकोण को साझा करने की हवा अंग्रेज़ों तक भी पहुँची। परिणामस्वरूप, अंग्रेजों ने उनके भारत लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अपने इरादों की पक्की कमलादेवी ने यात्रा जारी रखी, और इसके बाद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, चीन, जापान और वियतनाम का दौरा भी किया।
कमलादेवी की साहित्यिक यात्रा
कमलादेवी ने अपने जीवनकाल में 18 पुस्तकें लिखीं। और उनके ऊपर तकरीबन 8 किताबें लिखी गई। इनमें से ज्यादातर पुस्तकें विदेशों की यात्राओं के दौरान उनके व्यक्तिगत अनुभवों से प्रेरित थीं। उदाहरण के लिए, जापानी शासन के दौरान चीन में नानजिंग और चोंगकिंग की उनकी यात्रा के परिणामस्वरूप उनकी पुस्तक, इन वॉर-टर्न चाइना, जबकि उनकी जापान यात्रा ने एक और पुस्तक, जापान: इट्स वीकनेस एंड स्ट्रेंथ को प्रेरित किया।
उन्होंने अपनी पुस्तकों, अंकल सैम्स एम्पायर और अमेरिका: द लैंड ऑफ सुपरलेटिव्स के साथ अमेरिका पर व्यापक रूप से लिखा। इन पुस्तकों ने उनके वैश्विक दृष्टिकोण और बौद्धिक हितों को लेकर विचार को उजागर किया।
सामाजिक कल्याण में भूमिका
मानवीय सेवा के अपने पहले पहल में, कमलादेवी को विभाजन के बाद पाकिस्तान (पश्चिमी पंजाब से) से आश्रय और काम की तलाश में दिल्ली आए हजारों शरणार्थियों के लिए पुनर्वास योजना तैयार करने का मसौदा तैयार करने का निर्णय लिया। वह लोग शहर और उसके आसपास अस्थायी तंबू में रह रहे थे।
तेजी से आ रही दिल्ली की सर्दी ने स्थिति के बिगड़ने के पूरे संकेत दे दिए थे। कमलादेवी ने फैसला किया कि ‘सहकारी’ आधार पर घर बनाना ही समाधान था और उन्होंने ‘भारतीय सहकारी संघ’ (Indian Co-operative Union) की स्थापना की। भारी बाधाओं के बावजूद, आईसीयू पूरी तरह से सामुदायिक प्रयास के माध्यम से मुग़ल औरंगज़ेब के कोषाध्यक्ष ‘शेख फ़रीद’ के नाम पर नामित ‘फरीदाबाद ‘ को एक औद्योगिक टाउनशिप बनाने में कामयाब रहा!
इस बीच, भारत सरकार द्वारा स्थापित कला और शिल्प के लिए केंद्रीय कुटीर उद्योग एम्पोरियम को एक महत्वपूर्ण नुकसान हुआ। नतीजतन, इसे भी आईसीयू की छत्रछाया में लाया गया।
भारत को आजादी मिलने के बाद, कमलादेवी ने खुद को मानवीय सेवा के लिए समर्पित करने के लिए राजदूत, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और यहाँ तक कि उपराष्ट्रपति जैसे पदों के प्रस्तावों से भी इनकार कर दिया। जैसा कि वह बाद में कहती हैं, “मैंने राजनीति के रास्ते को छोड़ कर रचनात्मक कार्यों की ओर कदम बढ़ाया है।”
भारतीय हस्तशिल्प के उत्थान में योगदान
‘खादी’ को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए कमलादेवी गाँधी जी से काफी प्रभावित थीं। उन्होंने भारतीय पारंपरिक हस्तशिल्प के बारे में लोगों को अधिक जागरूक करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया। इसके लिए, उन्होंने भारत सहकारी संघ (India Cooperative Union) की स्थापना की, जहाँ उन्होंने शरणार्थियों और अन्य लोगों को शामिल किया, जिन्होंने स्वतंत्रता के दौरान अपने घरों को खो दिया था। वह दूर-दराज के इलाकों में जाती और कारीगरों की समस्याओं को सुनती थी।
कमलादेवी, भारतीय हस्तशिल्प में नए प्रकार कालाहस्ती कलमकारी, पूचमपल्ली, जयपुर ब्लू पॉटरी, नंदरा बूटी, टोडा कढ़ाई, महाबलीपुरम की पत्थर की मूर्ति को शामिल करवाने लाने वाली पहली महिला थीं।
कमलादेवी, भारत के हस्तशिल्प में अपने अटूट विश्वास और भारतीय महिलाओं के घरेलू श्रम की स्वीकृति के लिए, हमेशा भारतीय महिला के दिल में रहेंगी। उन्होंने अपने समय के प्रभावशाली और सत्ता में बैठे लोगों का विरोध करके महिलाओं के अधिकारों के लिए कुछ विशिष्ट कानून और नीतियाँ भी बनाई।
हाथ से काता हुआ साड़ी पहनना और पारंपरिक हस्तशिल्प के साथ घरों को सजाने के लिए इसे फैशनेबल बनाने के अलावा, कमलादेवी पहली महिला थीं जो विभिन्न स्थानों के वस्त्र डिजाइन लोगों के सामने लाती थीं।
कमलादेवी ने हस्तशिल्प के उत्थान के लिए कई संस्थाओं का निर्माण किया, जिनमें में प्रमुख हैं:
- सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज एम्पोरियम (Central Cottage Industries Emporia)
- वर्ल्ड क्राफ्ट काउंसिल (World Craft Council)
- क्राफ्ट काउंसिल ऑफ इंडिया (Craft Council of India)
- दिल्ली क्राफ्ट काउंसिल (Delhi Craft Council)
- अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड (All-India Handicraft Board)
कमलादेवी ने अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और वह इसकी पहली अध्यक्ष भी थीं। कमलादेवी द्वारा हीं स्थापित ‘भारतीय शिल्प परिषद ‘, विश्व शिल्प परिषद के एशिया-पैसिफिक क्षेत्र का पहला अध्यक्ष भी था।
कला, संस्कृति, नृत्य और नाट्य शास्त्र में योगदान
भारतीय हस्तशिल्प में प्रमुख योगदान के अलावा, कमलादेवी ने वर्ष 1944 में ‘भारतीय राष्ट्रीय रंगमंच‘ की भी स्थापना की, जिसे आज ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय‘ (National School of Drama) के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा भी उन्होंने कई संस्थानों का निर्माण किया।
उनमे से प्रमुख हैं:
- भारतीय नाट्य संघ
- संगीत नाटक अकादमी (Sangeet Natak Academy)
भारतीय नृत्य, नाटक, कला, कठपुतली, संगीत और हस्तशिल्प की रक्षा करना और उन्हें बढ़ावा देना। उनके लिए कारीगर कलाकारों के बराबर थे और इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मास्टर शिल्पकारों के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों का भी गठन किया।
कमलादेवी को मिले सम्मान
- वर्ष 1955 में, भारत सरकार ने कमलादेवी को ‘पद्म भूषण‘ (Padma Bhushan) से सम्मानित किया।
- वर्ष 1987 में कमलादेवी को ‘पद्म विभूषण‘ (Padma Vibhushan) से सम्मानित किया।
- वर्ष 1966 में, सामुदायिक नेतृत्व के लिए उन्हें ‘रेमन मैग्सेसे पुरस्कार‘ (Ramon Magsaysay Award) से सम्मानित किया गया।
- वर्ष 1974 में, उन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी‘ द्वारा ‘रत्न सदस्य’ और शांतिनिकेतन द्वारा ‘देसीकोट्टमा’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।
- हस्तशिल्प को बढ़ावा देने में उनके शानदार योगदान के लिए यूनेस्को, यूनिमा (Union International de la Marionette), अंतर्राष्ट्रीय कठपुतली संगठन और विश्व शिल्प परिषद द्वारा भी सराहना की गई।
- वर्ष 2018 में उनकी 115वीं जयंती पर, उन्हें याद करते हुए ‘गूगल’ ने एक ‘डूडल’ समर्पित किया था.
समापन वक्तव्य
कमलादेवी अपने समय से बहुत आगे थीं और शायद आज भी होतीं। वह पारंपरिक भारतीय मानसिकता के लिए सदैव एक रहस्य बनी रही और सायद इसलिए उन्हें आज याद करने वाले गिने-चुने लोग हीं बचे हैं।
हम राष्ट्रीय परंपराओं की महानता की बात करते हैं, लेकिन इसी बीच हम कई ऐसे लोगों को भूल जाते हैं जो स्वतंत्रता के बाद के भारत के ‘सच्चे निर्माता’ रहे हैं। उन्हें शायद अपने समय से बहुत आगे होने और सोचने की सजा यह मिली कि इतिहास में हमें उनके बारे में बताया नहीं जाता।
एक दुर्लभ महिला, जिसकी दृष्टि ने भारत को कई प्रतिष्ठित सांस्कृतिक और कलात्मक संस्थानों का उपहार दिया, ऐसी कमलादेवी का 29 अक्टूबर, 1988 को 85 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए भारत के तत्कालीन उप-राष्ट्रपति (और बाद में राष्ट्रपति) आर वेंकटरमन ने कहा था, कमलादेवी के नाम के आगे ‘लेट (Late)’ शब्द लगाना मुश्किल है, क्योंकि “उनकी उपस्थिति थी, और हमेशा रहेगी।”
कमलादेवी चट्टोपाध्याय के संस्मरण ‘इनर रिसेसेस आउटर स्पेसेस’ (Inner Recesses Outer Spaces) को (मुफ़्त) यहाँ पढ़ सकते हैं: इंटरनेट आर्काइव
कमलादेवी के बारे में इस जानकारी का साभार: ट्विटर