“पैसे का हाल कैसा चल रहा है आजकल संगठन में आज़ाद?”
“आपको तो सब पता है मास्टर जी?” आज़ाद की आवाज़ में निराशा झलक रही थी।
“दल के सदस्यों की संख्या और कार्यक्रम बढ़ते जा रहे हैं, किन्तु धन के अभाव मे अभी बड़ी योजनाएं पूरी नहीं हो रही हैं। योजनाओं का तो छोड़िये, अभी तो दल के सदस्यों के खाने-पीने का इंतज़ाम भी पूरा नहीं हो पा रहा है।”
“साहित्य आदि में काफी पैसा लग रहा है क्या?”
“क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन ओर प्रचार-प्रसार में पैसा तो लग रहा है किन्तु सभी का ऐसा ही मानना है कि यह कार्य बहुत ज़रूरी है कि आम जनता तक हम अपनी बात पहुँचा पायें। इसकेअलावा हथियार खरीदने और दल की विभिन्न शाखाएँ खोलने और अलग प्रदेशों की शाखाओं से संपर्क स्थापित करने में भी पैसा बहुत लग रहा है।”
“चंदा नहीं आ रहा?”
“दान और चंदे मात्र की राशि से अब इतने बड़े आन्दोलन का संचालन संभव नहीं हो पा रहा है।”
“तो क्या सोचा है पंडित जी ने?”
“वही जिसके लिए आप शाहजहाँपुर गये थे।” आज़ाद मुस्कुराये।
“दूध-पत्ती लाऊं?” अंदर से मुन्नी भाभी की आवाज़ आयी।”
“नहीं, बाहर जा रहे हैं अभी।” मास्टर जी ने आज़ाद का आखिरी वाक्य सुना और तुरंत उठ गये।
“आओ!” मास्टर जी ने इशारा किया और छत की तरफ चल दिये।
छत पर पहुँच कर उन्होंने आज़ाद को चुप रहते हुए नीचे झाँकने का इशारा किया। आज़ाद ने झांककर देखा तो नीचे अब पुलिस के सिपाही के दो नहीं चार सिपाही थे। मास्टर जी गली के कोने वाले खम्बे की तरफ इशारा किया तो वहाँ भी दो लोग खड़े अख़बार पढ़ रहे थे।
“वो कौन हैं?”
“उनके जूते देखो आज़ाद।”
“ठलुए हैं यह भी पुलिस के मास्टर जी?”
“हाँ, यह गधा पिछले हफ्ते वर्दी पहन कर नीचे बैठा था।” मास्टर जी हँसने लगे।
“आजकल ज़्यादा दबिश है मास्टर जी?”
“हाँ, आज़ाद! एक दो ही बचे हैं काकोरी वाले।”
“एक तो हाथ भी नहीं आयेगा कभी।” आज़ाद ने अपनी मूंछों पर हाथ फेरा।
“चलो आओ।” मास्टर जी ने अपनी छत से पीछे की खपरेल वाली छत पर कदम रखा।
“तुम खपरेल पर पैर मत रखना आज़ाद वरना नीचे कमरे में पड़े होगे सीधे।” मास्टर जी हँसते हुए बोले।
थोड़ी देर बाद कुछ छतें लांगते-फांगते दोनों अब टकसाल मोहल्ले की गली में खड़े थे।
“कहाँ ले चल रहे हो आप?”
“अति सुरक्षित स्थान!” मास्टर जी मुस्कुराये।
जब मास्टर जी ने कोतवाली के गेट पर कदम रखा तो आज़ाद चौंक गये। थोड़ा रुके , मास्टर जी की ओर देखा और फिर उनके साथ आगे बढ़ गये।
“यहाँ?” आज़ाद ने यहाँ-वहाँ देखा।
“आज इस से ज़्यादा सुरक्षित कुछ भी नहीं तुम्हारे लिए।” मास्टर जी ने आँख मारी।
कोतवाली के दरवाज़े के सामने से होते हुए जब मास्टर जी गुज़रे तो कई सिपाही उनको देखकर चौंक गये।
“अरे आज कोई दुआ सलाम नहीं दीवान जी?” मास्टर जी ने चाय की टपरी पर बैठते हुए वहाँ बैठे हुए सिपाही से पूछा।
“आप कैसे यहाँ? हाजिरी है क्या आज?”
“हर चौथे दिन होती है दीवान जी। आज कोई लेने नहीं आया तो मैं खुद आ गया।” मास्टर जी ने ठहाका लगाया।
“अच्छा यह बताओ कि आजकल इतना बंदोबस्त आखिर हैं क्यूँ?”
सिपाही ने यहाँ-वहाँ देखा और फुसफुसाया,
“अरे वही काकोरी मास्टर जी!”
“क्या हुआ?”
“वो मुसलमान भी पकड़ा गया।”
“कौन?”
आज़ाद के मुँह से निकला।
“वही रामप्रसाद का दोस्त, कोई अशफ़ाक।” सिपाही ने आज़ाद की और देखते हुए कहा।
मास्टर जी के हाथ में थमे कुल्हड़ से चाय छलक गयी जिस पर सिपाही का ध्यान अगर गया होता तो उस दिन शायद मुश्किल हो सकती थी।
सिपाही उठा तो मास्टर जी भी उठ गये और आज़ाद उनके पीछे-पीछे चल दिये।
खंडेराव गेट के सामने पहुँच कर मास्टर जी किले के पास वाली एक टौरिया पर बैठ गये।
“सब खत्म हो गया मास्टर जी।” आज़ाद दुखी स्वर में बोले।
मास्टर जी शांत थे।
“पर हुआ कैसे? वो तो इतने दिन से बचा हुआ था। आपको तो पता था ना कि वो कहाँ था?”
“पिछले दस महीने से वो बनारस में था जहाँ वो एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम कर रहा था। हम सब की मदद करने के लिए वो विदेश जाने की योजना पर काम कर रहा था। कुछ दिन पहले की खबर के अनुसार अशफ़ाक दिल्ली पहुँच गया था।”
“पर ये खबर ..?
“दगा दे गया कोई एक बार फिर…” मास्टर जी की आवाज़ में कड़वाहट थी।
“मैं बहुत दिन से आप से पूछना चाह रहा था कि बिस्मिल साहब अचानक कैसे पकड़े गये?”
“भरोसे की वजह से!”
“मतलब?
“लोगों ने उन्होंने बहुत समझाया था लेकिन उनको अपनी बुद्धि पर बड़ा भरोसा था।”
“आप मिलकर आये थे ना?”
“हाँ तभी वो बोले थे कि दोस्तों ने उनसे कहा था कि सावधान रहना होगा नहीं तो गिरफ्तार हो जाओगे। लेकिन उन्होंने सोचा कि अगर पुलिस ने पकड़ भी लिया तो पुलिस कुछ नहीं कर पायेगी क्यूंकि सबूत मिलना बहुत मुश्किल होगा।”
“बिस्मिल बोले थे कि वो अपने देशवासियों को आज़माना चाह रहे थे कि हम लोग जो अपने देश के लिए जान देने को तैयार हैं उनके लिए देशवासी कितनी सहानुभूति रखते हैं?”
“यह क्या बात हुई?”
“पता नहीं आज़ाद। मुझे लग रहा हैं पंडित जी बिना किसी सहयोग के अब थकने लगे थे। उनकी बातों से लगा था आगे होने वाले क्रांतिकारी आयोजनों में जान जाने का खतरा अधिक था। लेकिन एक बात तो तय है आज़ाद कि जिस तरह से उनको गिरफ्तार किया गया वो स्वयं खुद हैरान थे। शायद किस्मत की भी मार कि उनकी जेब में पुलिस वालों को एक आपत्तिजनक पत्र मिल गया था।”
“उनको शक था किसी पर?”
“था तो लेकिन वो दिल के इतने भले कि विश्वास करने पर राज़ी नहीं हैं। वो खुद बोल रहे थे कि पुलिस वालों को दल के अन्दर की इतनी बातें मालूम हैं कि वो किसी बाहरी आदमी को पता ही नहीं हो सकती। जिस तरह से गिरफ्तारियाँ हुई हैं वो भी उनको संदेह में डाल रही हैं कि कोई अपना ही ख़ास साथी पुलिस से मिल गया है।”
“कौन हो सकता है मास्टर जी?”
“शायद बिस्मिल साहब को पता लगा गया है। वो कह रहे थे कि उनसे खुफिया पुलिस के कप्तान साहब मिले थे और सरकारी गवाह बनाना चाह रहे थे।”
“ह्म्म्म!”
“उनका शक बनारसीलाल पर है। वह बहुत घबराया हुआ था कि उसे सज़ा ना हो जाये। वो बता रहे थे कि एक रात को बनारसी की कोठी में पुलिस वाले भी आये हुए थे।”
“वही कमीना होगा मास्टर जी, वही होगा। उसके लिए सभी ने मना किया था। सबको लगता था कि बनारसी मौका आने पर धोखा दे जायेगा लेकिन पंडित जी नहीं माने थे।”
“पता है उनको आज़ाद। पछता रहे हैं वो बनारसी को साथ लेकर लेकिन अब जो हो गया सो हो गया।”
“अब तो हो गया सब खत्म।”
“नहीं आज़ाद! अभी सब कुछ नहीं खत्म हुआ।”
“मतलब?”
“कुछ दिन बाद समझ जाओगे” मास्टर जी उठ खड़े हुए।
“क्या कह रहे हैं आप?”
“आओ घर चलते हैं।”
“आप पहेलियाँ बहुत बुझाते हैं मास्टर जी।”
“सुलझाऊंगा भी मैं ही।” मास्टर जी मुस्कराए और आज़ाद का हाथ पकड़ कर सड़क की ओर जाती पगडण्डी पर चल दिये।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।
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