सूचना एवं संप्रेषण के दायरे के लगातार बढ़ते रहने ने इंटरनेट पर असामाजिक तत्वों के लिए रास्ता आसान कर दिया है। असामाजिक तत्व की व्याख्या समाज में व्याप्त उस वर्ग से मानी जाती है जो समाज में द्वेष, अपराध और अराजकता के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं। इंटनेरट की भाषा में इन्हें गंभीरता का स्तर ध्यान में रखते हुए ट्रोल, प्रोपगेंडा चलाने वाले या हेट मोंगर कहा जा सकता है। वैसे यह इसी रूप में सामने हो, यह आवश्यक नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में कई बार यह फैक्ट चेकर और सोशल मीडिया क्वालिफाइड पत्रकार के रूप में भी दिखाई पड़ सकते हैं।
इंटरनेट की दुनिया में एक और शब्द प्रचलन में है और इसका दुरुपयोग भी इन्हीं सोशल मीडिया पत्रकारों द्वारा किया जाता है। यह शब्द है ‘हेट स्पीच’ यानि की भड़काऊ भाषण। वैसे संविधान में अनुच्छेद 19(2) में सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिये भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बंधन की व्यवस्था की गई है। साथ ही भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 295 (A), किसी भी भाषण, लेखन, या संकेत को दंडित करती है जो ‘पूर्व नियोजित और दुर्भावनापूर्ण इरादे से’ नागरिकों के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करते हैं। इन कानूनी प्रावधानों से इतर इंटरनेट या सोशल मीडिया पर यह वर्ग गाहे-बगाहे किसी विपक्षी के भाषण को हेट स्पीच कहकर प्रचारित कर ही देता है।
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ऑनलाइन उपलब्ध जानकारी कानून का स्थान नहीं ले सकती है। यह कानूनी संस्थाओं पर निर्भर करता है कि वे सोशल मीडिया की जानकारी के अनुसार किस निर्णय पर सहमत होते हैं। हालांकि, सभी मामलों में ऐसा नहीं देखा गया है। हमारी माननीय अदालतों ने सोशल मीडिया आउटरेज को कई बार न्याय का आधार बनाया है, जिसके कारण उन्हें आलोचना का सामना भी करना पड़ा है।
अभी हालिया मामला काजल सिंगला का है, जिनका चर्चित नाम काजल हिंदुस्तानी है, जो भारतीय संस्कृति और धर्मों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करती हैं। रामनवमी पर हुई हिंसा के बाद उनके द्वारा एक कार्यक्रम को संबोंधित किया गया जिसमें उन्होंने आत्मरक्षा और जबरन धर्मांतरण की बात की। आत्मरक्षा की बात सोशल मीडिया पत्रकारों को हेट स्पीच महसूस हुई तो इसकी शिकायत पुलिस में की गई। इसके बाद आनन-फानन में पुलिस द्वारा काजल सिंगला के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई और उनके कार्यक्रम में उपस्थित लोगों को दंगा करने के लिए इकठ्ठी भीड़ का नाम दे दिया गया।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि प्रथम सूचना मिलने के बाद क्या पुलिस द्वारा हेट स्पीच की पुष्टि की गई थी? सोशल मीडिया पर चलाए गए एजेंडा को लेकर मुकदमे की त्वरित कार्रवाई कहाँ तक उचित है?
सामाजिक सद्भाव और व्यवस्था बनाए रखने की दिशा में अगर पुलिस द्वारा यह मुकदमा किया गया है तो इसमें दो-तीन प्रश्न अनुत्तरित हैं। पहला, आत्मरक्षा और जबरन धर्मांतरण को लेकर दिया गया भाषण किस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ने का काम करेगा? अगर सोशल मीडिया ही प्रथम सूचना का आधार है तो वहां प्रचारित प्रत्येक एजेंडा पर पुलिस की क्या राय है? क्या आने वाले समय में सोशल मीडिया ट्रोल एवं फेक न्यूज के कारण नकारात्मक व्यवस्था फैलाने वाले लोगों के खिलाफ भी पुलिस कार्रवाई करेगी?
प्रथमदृष्टया न्यायिक संस्थाएं सोशल मीडिया एजेंडा को लेकर शुतुरमुर्ग रणनीति पर काम करती प्रतीत होती हैं। रामनवमी पर सामने आए उपद्रव की बात हो या काजल सिंगला द्वारा आत्मरक्षा की, न्यायिक संस्थाएं दोनों मामलों में सोशल मीडिया पत्रकारों से प्रभावित नजर आती हैं।
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सोचने वाली बात यह है कि यह किस सीमा तक न्यायपूर्ण है? इस आधुनिकता ने क्या न्याय की परिभाषा नहीं बदल दी है? यह रणनीति कितना गंभीर रूप ले सकती है इसका एक उदाहरण नूपुर शर्मा के मामले में देखा जा चुका है। एजेंडा इस कदर फैलाया गया कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा के सिर पर दंगों और लोगों की हत्या का कारण बनने का आरोप लगा दिया था। क्या नूपुर शर्मा से माफी की मांग ने दंगाइयों के इरादों को मजबूत नहीं किया होगा?
सोशल मीडिया पर फैली या फैलायी गई हेट स्पीच पर कार्रवाई करने का चलन होता तो उदयपुर के कन्हैयालाल या अमरावती के केमिस्ट सहित कई लोगों की हत्या उतनी आसान न होती। इन घटनाओं की विडंबना यह रही कि समर्थन करने वालों को हेट स्पीच फैलाने के लिए जिम्मेदार बनाया गया और हत्या करने वालों के अपराध को मात्र प्रतिक्रिया बता दिया गया।
न्याय कभी भी ऐसी अवधारणा नहीं हो सकती जो सोशल मीडिया पर फैलाए गए एजेंडा से गढ़ी जाए। ऑनलाइन प्रसारित हो रही विचारधाराएं मात्र एक व्यक्तिगत विचार हैं। इनके न्यायपूर्ण होने का निर्णय तो हमारी न्यायिक संस्थाओं एवं कानूनविदों को करना है। न केवल कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार लोगों से बल्कि न्यायविदों से उम्मीद की जाती है कि वे आमजन से अधिक जागरूक हो, दूरदृष्टा हों और घटना का आकलन या न्याय का आधार सोशल मीडिया पर फैले या फैलाये गये एजेंडा को न बनाएँ। इसके विपरित प्रतिक्रिया होने पर स्थिति चिंताजनक बन सकती हैं, जिसके साक्ष्य हमारे सामने हैं।