भगवान शिव की उपासना के आदि तीर्थस्थल ज्योतिर्लिंग कहलाते हैं, जहाँ पर भगवान शिव अपने दिव्य शिवलिंग रूप में अत्यन्त प्राचीन काल से प्रतिष्ठित हैं और भक्तों द्वारा पूजित हैं। शिवपुराण, लिंगपुराण, स्कन्दपुराण समेत अनेक पुराणों और धर्मग्रंथों में ज्योतिर्लिंगों का विशद वर्णन पढने को मिलता है। शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 42 में मुख्यतः 12 ज्योतिर्लिंग बताए गए हैं –
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
अर्थात्, सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, और ओंकारेश्वर व अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी में भीमाशंकर, रामसेतु के समीप रामेश्वर, दारुकवन में नागेश्वर, वाराणसी में विश्वेश्वर, गौतमी नदी के तट पर त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय में केदारेश्वर और शिवालय में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित हैं।
यह सभी ज्योतिर्लिंग हमेशा से हिन्दुओं की आस्था और संस्कृति के सबसे बड़े केन्द्र रहे हैं। इसलिए हिन्दू धर्म से द्वेष रखने वाले विदेशी आक्रान्ताओं की आँखों में चुभते रहे हैं। गज़नवी से लेकर औरंगजेब तक अनेक विदेशी लुटेरों का एक मुख्य लक्ष्य था, किसी भी हद तक जाकर हिन्दुओं को, उनके मन्दिरों को और उनकी मूर्तियों को नष्ट करना। इसलिए ज्यादातर प्राचीन मन्दिरों पर न सिर्फ उन्होंने आक्रमण किया, बल्कि बेरहमी से लूटा और निर्दयता से उनको ध्वंस किया।
इस ध्वंस अभियान में 12 में से अधिकांश ज्योतिर्लिंग शामिल थे। हिन्दुओं ने इन सभी आक्रमणों का अपनी पूरी शक्ति से प्रतिकार किया और हजारों बलिदान दिए, इसी कारण आज तक हमारे ज्योतिर्लिंग उसी भव्यता के साथ खड़े हैं और भारत की अस्मिता और प्रेरणा का प्रतीक बने हुए हैं। आइये जानते हैं पवित्र ज्योतिर्लिंगों पर हुए आक्रमणों के बारे में ताकि इतिहास कहीं धूमिल न हो जाए।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग- गुजरात
यह प्रभास पाटन, सौराष्ट्र, गुजरात में स्थित है. इसे स्वयं चन्द्रमा ने स्थापित किया था। यह पूरे गुर्जरात्र के धर्म का केन्द्र रहा है। इसके पास ही उठती समुद्र की उत्ताल तरंगें इसके वैभव और रक्तरंजित इतिहास की साक्षी रही हैं। अल बरुनी के लिखे मन्दिर के वैभव का वर्णन पढ़कर महमूद गज़नवी की आँखें चौंधिया गयीं थीं। 1024 में गज़नवी ने मन्दिर पर अपने लुटेरे दल के साथ मंदिर पर धावा बोला और पचास हज़ार हिन्दुओं का कत्लेआम किया।
गजनवी ने सभी मूर्तियों को ध्वस्त किया और मन्दिर की अकूत सम्पदा को लूटा। तबकात ए नासिरी में लिखा है कि गज़नवी ने सोमनाथ की मुख्य मूर्ति को चार भागों में तोड़कर दो को गज़नी भेजा और दो को मक्का मदीना में भेजा। गुजरात के राजा भीमदेव और राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था। परन्तु सल्तनत काल में इसके बाद लगातार सोमनाथ पर हमले होते रहे।
अलाउदीन खिलजी ने उलुग खान और नसरत खान को सेना के साथ भेजकर सोमनाथ मन्दिर तुड़वाया। 1394-95 में गुजरात के सुल्तान मुज़फ्फर शाह प्रथम ने मन्दिर पर आक्रमण किया और इसे ध्वस्त किया। औरंगजेब ने अपने शासन के शुरुआती काल में ही सोमनाथ विध्वंस करवा दिया था और बाद में एक पत्र में कहता है कि यदि हिन्दुओं ने फिर से वहाँ कुछ पूजा शुरू कर दी है तो उस स्थान को ऐसे नष्ट करो कि मन्दिर का चिह्न भी शेष न रहे।
ऐसे लगातार आक्रमणों, युद्धों, पुनरुद्धार के बाद भी सोमनाथ महादेव हिन्दुओं के अटूट विश्वास का प्रतीक बने रहे जिसे कोई मूर्तिभंजक लुटेरा नहीं तोड़ पाया। आज़ादी के बाद भारत के गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नवीन भव्य मन्दिर बनवाया और 1955 में राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग- आन्ध्र प्रदेश
आंधप्रदेश के कुर्नुल जिले में पर्वतों के बीच स्थित मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का वर्णन स्कन्दपुराण के श्रीशैल काण्ड में है। अनेक पुराणों और महाभारत में इसका वर्णन आता है। आदि शंकराचार्य ने यहाँ पर शिवानन्द लहरी की रचना की थी। श्रीशैलम का यह पवित्र ज्योतिर्लिंग अनेक शासक वंशों समेत पूरे दक्षिण भारत द्वारा पूजित रहा है। पल्लव, चालुक्य, काकतीय और रेड्डी राजाओं ने समय समय पर मन्दिर में सुंदर निर्माण करवाकर इसकी भव्यता को बढ़ाया। यहाँ की अद्भुत नक्काशी और दिव्य मन्दिरों की श्रृंखला कदम कदम पर महादेव की उपस्थिति का अहसास करवाती है। राजाओं द्वारा अच्छी तरह सुरक्षित किये जाने के कारण कोई विदेशी गिद्ध यहाँ अपने मंसूबे सफल नहीं कर पाया।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग- मध्य प्रदेश
मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित है महाकाल ज्योतिर्लिंग, जिसे शायद ही कोई नहीं जानता होगा। देश के केन्द्र में स्थित महाकाल ज्योतिर्लिंग हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र भी रहा है और सम्राट विक्रमादित्य के शासन का केन्द्र भी रहा है। आखिर इस मन्दिर पर गिद्धों की दृष्टि कैसे नहीं जाती?
आतंकी सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने तेरहवीं सदी के पूर्वार्ध में महाकाल मन्दिर पर आक्रमण कर इसे तोड़ दिया था और शिवलिंग को दिल्ली लाकर जामा मस्जिद की द्वार में लगवा दिया था। ऐसे सभी कुकृत्यों का उद्देश्य हिन्दुओं को मानसिक रूप से आघात पहुँचाना था । औरंगजेब के शासन में वजीर खान ने अपने गुलाम गड़ा बेग को चार सौ सैनिकों के साथ उज्जैन के मन्दिर तोड़ने भेजा था पर उज्जैन के रावत ने गड़ा बेग और उसके सैनिकों को युद्ध में धूल चटाकर उनका वध कर दिया। मराठों ने मन्दिर का भव्यता से पुनरुद्धार किया जो आज तक हमारी आस्था का प्रतीक है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग- मध्य प्रदेश
मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी के द्वीप पर स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर और मामलेश्वर के युग्म के रूप में स्थित है। यह दोनों अत्यन्त प्राचीन पाँच मंजिला मन्दिर हैं जिनका वर्णन पुराणों में है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग को शिवपुराण में परमेश्वर लिंग कहा गया है। नर्मदा के घाट पर इसके सहित हजारों मंदिर हैं, इनमें से ज्यादातर का निर्माण मराठा राजाओं ने करवाया है।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग- उत्तराखंड
उत्तराखण्ड के चार धामों में से एक केदारनाथ रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। अभिमन्यु के पोते जन्मेजय ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया और बाद में आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया। तब से तमाम बाढ़, हिमपात, तूफानों को सहते हुए केदारनाथ अपनी जगह पर अविचल स्थित हैं। 2013 में बादल फटने की भयावह घटना के बाद हजारों लोगों की मृत्यु हुई व केदारनाथ क्षेत्र में सब कुछ नष्ट हो गया था।
पर मन्दिर के पीछे आकर टिकी भीमशिला ने मन्दिर को खरोंच भी नहीं आने दी। ऐसा ही मन्दिर का इतिहास भी रहा है। बहुत ऊंचाई में हिमालय की गोद में स्थित केदारनाथ पहुंचने का रास्ता अत्यन्त दुर्गम है, जहाँ तक कोई आक्रमणकारी पहुँचने का साहस नहीं कर सका, क्योंकि वह पथ तो केवल उनके लिए ही आसान है जिनके हृदय में महादेव के लिए भक्ति है।
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग- महाराष्ट्र
पुणे, महाराष्ट्र की सह्याद्री पर्वतों की सुरम्य घाटियों में प्राकृतिक वातावरण में स्थित है। इसके पास से ही भीमा नदी बहती है। इस मन्दिर के शिखर का निर्माण नाना फड़नवीस ने करवाया था। मराठा साम्राज्य द्वारा सुरक्षित होने के कारण आक्रमणकारी इसपर कुदृष्टि नहीं डाल सके।
विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग- उत्तर प्रदेश
वाराणसी में गंगा के किनारे स्थित काशी विश्वेश्वर शिवलिंग देश के सबसे बड़े तीर्थों में से एक है। यदि इसे सबसे महत्त्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग भी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि पूरी काशी ही भगवान शंकर की निज नगरी है जिसे अविमुक्तेश्वर क्षेत्र कहा जाता है। यहीं पर बाबा विश्वनाथ अग्निस्तम्भ के रूप में प्रकट हुए थे जिसका वर्णन शिवपुराण में मिलता है।
स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में विश्वेश्वर शिवलिंग, ज्ञानवापी और काशी के अनेकों शिवलिंगों का वर्णन है। काशी पूरे भारत के ज्ञान की भी राजधानी रही है, इसलिए हमेशा से आक्रमणकारियों को खटकती रही है। काशी विश्वनाथ धाम के विध्वंस में सुल्तानों ने अपनी जन झोंक दी पर हजार वर्ष बाद भी काशी अटल और अविचल है।
काशी विश्वनाथ मन्दिर पर पहला हमला 1194 में मुहम्मद गौरी ने किया और पूरे नगर को बेतहाशा लूटने के बाद मंदिर को तुड़वा दिया। बाद में गुजरात के एक व्यापारी वास्तुपाल ने अकूत धन देकर ने इसे फिर से बनवाया। इसके बाद 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह शर्की ने काशी विश्वनाथ मन्दिर पर हमला बोला और विध्वंस किया।
1494 के करीब सिकन्दर लोदी ने काशी पर हमला करके हजारों मन्दिर तोड़े जिसमें विश्वनाथ मन्दिर भी शामिल था। बीच में करीब सौ वर्ष तक काशी विश्वनाथ मन्दिर से विहीन रही पर अकबर के काल में 1585 में नारायण भट्ट के कहने पर टोडरमल अग्रवाल ने जीर्णोद्धार करवाया। इस समय जयपुरराज मानसिंह ने भी काशी में अनेक मन्दिर और घाट बनवाए। पर श्रीमन्दिर पर 1632 में फिर से शाहजहाँ की कुदृष्टि पड़ी और उसने सेना भेजी पर हिन्दुओं के प्रबल विरोध के चलते वह विफल हुआ।
1669 में औरंगजेब ने दुष्टता की सारी हदें पार करते हुए काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी को तुड़वाकर उसके ऊपर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई। इसके सौ साल बाद होलकर राजवंश की देवी अहिल्याबाई होल्कर ने वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया जो आज तक है।
त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग- महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के नाशिक में गोदावरी नदी के पास ब्रह्मगिरी, नीलगिरी और कालगिरी पहाड़ियों में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह शिवलिंग ब्रह्मा विष्णु और महेश का संयुक्त रूप है इसलिए त्र्यम्बक कहलाता है। यहीं पर गौतम ऋषि ने तपस्या की थी। नाशिक में हर 12 वर्ष में कुम्भ मेले का भी आयोजन होता है, इस कारण यह महाराष्ट्र और सम्पूर्ण भारत की आस्था का केन्द्र है।
इसी धार्मिक महत्त्व को देखते हुए औरंगजेब ने 1690 में नाशिक पर आक्रमण किया और त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर का ध्वंस किया, इसके साथ उसने एलोरा, नरसिंहपुर, पंधरपुर, जेजुरी और यावत पर भी आक्रमण किया। इन अभियानों में मुगल सेना पूर्ण सफल नहीं हो सकी क्योंकि जहरीले कीड़ों और सांपों ने उनपर आक्रमण कर दिया था, इस तरह प्रकृति भी मन्दिर रक्षा के लिए जुट गयी थी। 1754 में पेशवा ने त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर का जीर्णोद्धार किया, इसके बाद नाना साहब ने इस मन्दिर को भव्य रूप दिया।
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग- झारखण्ड
झारखण्ड के देवघर में एक पहाड़ी पर स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग बाबाधाम के नाम से प्रसिद्ध है। शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग का वर्णन है। इसे चिताभूमि भी कहा जाता है क्योंकि भगवान शंकर जी ने सती के हृदय का अंतिम संस्कार यहीं पर किया था। यहाँ पर रावण ने भी तपस्या की थी। इस ज्योतिर्लिंग के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं।
बाबाधाम में लाखों श्रद्धालु दूर दूर से पैदल दर्शन करने आते हैं, तो शिवरात्रि और श्रावण मास में यहाँ आस्था का महासमुद्र फूट पड़ता है। इस ज्योतिर्लिंग का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई होलकर ने करवाया था।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग- गुजरात
द्वारका, गुजरात में स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग द्वारिकाधीश मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। गुजरात के सुल्तान मुहम्मद बेगड़ा ने 1473 में द्वारका पर आक्रमण किया और द्वारकाधीश मन्दिर और जगत के महलों व मूर्तियों को तोड़ा, मुगल काल में औरंगजेब ने द्वारका के सभी मन्दिरों में पूजापाठ पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसमें नागेश्वरनाथ ज्योतिर्लिंग भी शामिल था।
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग- तमिलनाडु
दक्षिण में तमिलनाडु के रामनाड जिले में स्थित रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग रामायणकालीन है जिसकी स्थापना स्वयं भगवान राम ने की थी। रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पूरे दक्षिण भारत की आस्था का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। उत्तरभारत में जो स्थान काशी विश्वनाथ का है, दक्षिण भारत में वही स्थान रामेश्वरम के रामनाथ का है। यह देश के चार धामों बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी और द्वारिका के साथ चौथा धाम है।
इसलिए यह स्थान पहले पुर्तगाली चर्च और और बाद में स्वीडिश, दानिश, जर्मन और ब्रिटिश चर्च की आँखों में चुभता रहा था। इसलिए इस क्षेत्र में हिन्दू धर्म को कमजोर करने के लिए पुर्तगाल और ब्रिटेन से थोक की संख्या में मिशनरी भेजे गये, जिनका काम यहाँ की परम्पराओं के बारे में दुष्प्रचार करके और समाज में फूट डालकर धर्मान्तरण करवाना था।
1542 में गोआ आने के बाद से ही फ्रांसिस जेवियर ने तमिल क्षेत्र में भी ईसाईयत को बढ़ावा देने के प्रयास शुरू कर दिए थे, पर इसमें तेजी आई 1606 में जब पुर्तगाली मिशनरी रोबर्ट दि नोबिली मदुरै आया और मदुरै मिशन की शुरुआत की। उसने ईसाईयत को हिन्दू धर्म के आवरण में छुपाकर धर्मांतरण की रूपरेखा बनाई जिसके अन्तर्गत उसने हिन्दू संन्यासियों जैसे भगवा कपड़े पहनना, चर्च को कोविल (मन्दिर) कहना, बाइबिल को वेद कहना जैसे प्रयोग किए और कालान्तर में उसे पूरे विश्व में चर्च के मिशन ने अपनाया।
इसके बाद 17वीं-18वीं शताब्दी में रामनाड क्षेत्र में एक के बाद एक कई मिशनरी आये जिनमें जॉन डे ब्रिट्टो, फ्रांसिस लेयनेज़, पीटर मार्टिन, ऑगस्टीन कपेली, कांस्टेंटाइन बेशी, बार्टोल्डी और जेम्स रोज़ी शामिल हैं। इन्होने रामेश्वरम ज्योतिलिंग क्षेत्र में धोखे और हथकंडे अपनाकर बहुत कन्वर्जन करवाए पर हिन्दू समाज का प्रतिरोध भी इन्हे झेलना पड़ा। समाज द्वारा जॉन ब्रिट्टो को मृत्युदंड दिया गया और वहाँ की जनता ने पुर्तगालियों और धर्मान्तरितों को फिरंगी कहकर उनका बहिष्कार किया था।
इसके साथ ही प्रोटेस्टेंट मिशनरियां अपना अलग काम चला रही थीं जिसमें थोमस ब्रे, फ्रेडरिक श्वार्ज़, जी बिलिंग आदि शामिल थे। हजारों धर्मान्तरितों और विदेशी शासन के बल पर 20वीं सदी आते आते चर्च ने पूरे क्षेत्र में बड़ी संख्या में चर्च स्थापित कर लिए थे, जिनका प्रभाव श्रीलंका तक था।
यह सभी चर्च श्रीरामेश्वरम ज्योतिर्लिंग क्षेत्र की सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थिति को प्रदूषित करने के लिए पर्याप्त थे, इसलिए भारत भर की आस्था का केन्द्र होने के बावजूद 2017 तक रामेश्वरम पूर्ण अविकसित अवस्था में रहा, इसके बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के विशेष ध्यान देने पर यहाँ मूलभूत जरूरतों को सुधारा गया और रामनाथपुरम से धनुषकोडी तक अभूतपूर्व विकासकार्य किया गया जिसका उद्घाटन स्वयं नरेन्द्र मोदी ने किया था।
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग- शिवाड़, राजस्थान
राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के ईसरदा में शिवाड़ का घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। शिवपुराण की कोटिरुद्रसंहिता में जो घुश्मेश्वर का स्थान शिवालय कहा गया है वही अपभ्रंश होकर कालान्तर में शिवाड़ कहलाया। यह ज्योतिर्लिंग भी विदेशी आक्रमणों से अछूता नहीं रहा है।
ज्ञात इतिहास के अनुसार ईस्वी 1023 में महमूद गजनवी के सेनापति सालार मसूद ने यहाँ पर विध्वंस किया, तब की खण्डित मूर्तियाँ अभी भी मन्दिर के पास संग्रहालय में स्थित हैं। इस युद्ध में राजा चंद्रसेन, उनके पुत्र इंद्रसेन और उनके सेनापति रैवत सिंह राठौड़ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए जिनका स्मारक यहाँ पर स्थित है। यहाँ पर रानियों के जौहर का वर्णन भी मिलता है।
सन् 1121 में मण्डावर के राजा शिववीर चौहान ने घुश्मेश्वर मन्दिर का पुनरुद्धार करवाया। पर 1301 में रणथम्भौर युद्ध के पूर्व अलाउद्दीन खिलजी ने व मन्दिर का शिखर और नन्दी की प्रतिमा नष्ट करवा दी। इसी के पास अलाउद्दीन खिलजी ने एक मस्जिद भी बनवाई जो अभी भी मन्दिर परिसर में ही मौजूद है। एक अन्य मान्यता के अनुसार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में स्थित है।