रियासत की सीमाएँ कहीं से पकिस्तान से नहीं मिलती, इसलिए आपको भारत में शामिल हो जाना चाहिए। भारत में शामिल होने की सलाह देकर लार्ड माउंटबेटन ने नबी बख्श को वापस भेज दिया था। फिरंगियों के सामने जिनकी हेकड़ी बंद रही थी, उनका इरादा वापस जाकर कुछ और ही करने का था।
जूनागढ़ के नवाब ने जूनागढ़ के गज़ट में 15 अगस्त, 1947 को खुद को पाकिस्तान में शामिल बता दिया। हालाँकि, उनकी सीमाएँ जमीन के रास्ते भारत से नहीं मिलती थीं लेकिन समुद्र के रास्ते वो पाकिस्तान से जुड़ते थे। सितम्बर की पंद्रह तारीख को जिन्ना के दस्तख़त के साथ ही जूनागढ़ पाकिस्तान का हिस्सा हो गया।
कई टुकड़ों में मिली आजादी से एक भारत बनाने का सपना सजाए पटेल ने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी थी। वी.पी.मेनन 17 सितम्बर, 1947 को ही जूनागढ़ नवाब से मिलने जा पहुँचे। रियासत के दीवान शाह नवाज़ भुट्टो ने बताया कि नवाब साहब तो मिल नहीं सकते! तबियत नासाज़ का बहाना सुनकर मेनन लौटे नहीं। उन्होंने बताया कि भारत सरकार नवाब के फैसले से सहमत नहीं। पाकिस्तान में मिल जाना जूनागढ़ इलाके के बहुसंख्यक हिन्दुओं के हित में नहीं था। दीवान भुट्टो ने मेनन को टका सा जवाब दे दिया और साफ़ कह दिया कि अब इस सिलसिले में जो भी बात हो सकती है, वो पाकिस्तान से करनी होगी।
मेनन लौटते वक्त शामलदास गाँधी से मिले। वो गाँधी जी के सम्बन्धी भी थे और स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान दे चुके थे। गुजरात राज्य संगठन, जिसका नेतृत्व लुनावाला के महाराज करते थे उन्होंने भी शामलदास गाँधी का समर्थन किया। समलदास गाँधी ने इलाके में प्रजातांत्रिक सरकार बना ली, जिसे प्रजा-मंडल आन्दोलनकारियों का समर्थन भी मिल गया। शामलदास गाँधी के नेतृत्व वालों ने जूनागढ़ रियासत के बाहरी हिस्से अपने कब्जे में ले लिए। पाकिस्तान ने इस सरकार की निंदा करते हुए नेहरु को लिखा, मगर पाकिस्तान को जवाब मिला कि ये तो वहाँ के लोगों का स्वतः स्फूर्त आन्दोलन है।
दबाव बढ़ते ही जूनागढ़ के नवाब 25 अक्टूबर, 1947 को भागकर कराची जा पहुँचे। उधर जब दबाव बढ़ता रहा तो दीवान भुट्टो ने नवाब साहब को टेलीग्राम पर टेलीग्राम करना शुरू किया। आख़िरकार नवाब ने दीवान को इलाके के मुहम्मडेनों के हक़ में फैसला खुद ले लेने की इजाजत दे दी। आख़िरकार 7 नवम्बर को जूनागढ़ दरबार के लोगों ने मिलकर बैठक की जो तीन बजे रात तक चलती रही। फैसला हुआ कि इलाके की दूसरी सरकार के बदले भारत सरकार को आत्मसमर्पण किया जाए। 8 नवम्बर को भुट्टो ने राजकोट में भारत सरकार के प्रांतीय प्रमुख नीलम भूच को चिट्ठी लिखी।
नीलम भूच ने चिट्ठी, फोन पर पढ़कर दिल्ली में मौजूद मेनन को सुनाई। सरदार पटेल की सलाह से जूनागढ़ के दीवान के निवेदन पर जूनागढ़ का नियंत्रण लेने का भारत सरकार का आदेश जारी हुआ। अगले दिन भारतीय वायुसेना के जहाज जूनागढ़ के ऊपर काफी कम ऊंचाई पर उड़ानें भरते नजर आए। दीवान भुट्टो 8 नवम्बर की रात में ही किसी वक्त पाकिस्तान भाग खड़े हुए थे। काठियावाड़ इलाके के सैन्य कमांडर ब्रिगेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में अगले दिन भारतीय सेनाएँ जूनागढ़ जा पहुँचीं और हालात काबू में कर लिए। कप्तान हार्वे जोनसन और चीफ सेक्रेटरी घीवाला ने 9 नवम्बर की शाम अधिकारिक रूप से जूनागढ़ की कमान भारत के हाथों सौंप दी।
इस घटना को लेकर पाकिस्तान और भारत में खींचतान शुरू हो गई। पाकिस्तान का कहना था कि चुनाव करवाने के लिए उसकी मंजूरी भी जरूरी है। नेहरु ने शुरू में कहा कि यूनाइटेड नेशन चाहे तो अपनी निगरानी में चुनाव करवा सकता है। बाद में वो पलट गए और कहा कि यू.एन. चाहे तो अपने एक दो आब्जर्वर भेज दे लेकिन जनमत संग्रह अब और टाला नहीं जा सकता। 20 फ़रवरी, 1948 को हुए जनमत संग्रह में 91 लोगों को छोड़कर बाकी के 99.95% लोगों ने भारत में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया। मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान के जबड़े से जूनागढ़ छीन लिया गया। जूनागढ़ सौराष्ट्र प्रान्त का हिस्सा बना और बाद में राज्यों के पुन: निर्धारण के बाद अब गुजरात के सौराष्ट्र जिले का हिस्सा है।