नए विवादों और नए सवालों के साथ अजमेर सेक्स स्कैंडल एक बार फिर चर्चा में है। इसके सरकारी, राजनीतिक और सामाजिक विफलताओं पर नजर डालने के बाद अब यह देखना जरूरी है कि न्यायिक संस्थाएं मामले में कितना गंभीर रही हैं। वैसे तो यह ज्ञात है ही कि अजमेर पीड़िताओं को न्याय के नाम पर आश्वासन तक नहीं मिल पाया। सब कुछ देखकर प्रतीत होता है कि मामले में न्याय की देवी ने समानता नहीं बल्कि नजरअंदाज करने के लिए आंखों पर पट्टी बांधी थी।
मामला सामने आने के बाद 1998 में अजमेर की सेशन कोर्ट द्वारा 8 अभियुक्तों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। इसके बाद हुई घटनाओं और तीन दशक बीत जाने के बाद आज लग रहा है कि केस में बहुत कुछ होना चाहिए था पर हो नहीं पाया। पीड़िताओं के साथ हुए व्यवहार को देखते हुए न्याय की लड़ाई 30 वर्षों के बाद भी पूरी होती नजर नहीं आती तो यह न्यायिक संस्थाओं की विफलता है।
अजमेर सेशन कोर्ट के फैसले के समय 18 लोगों को दोषी ठहराया गया था। इनमें से 8 को कोर्ट ने सजा सुनाई। हालांकि वर्ष, 2001 में राजस्थान हाई कोर्ट ने 4 लोगों को न सिर्फ अपराधमुक्त घोषित कर दिया बल्कि जो सजायाफ्ता थे उन पर लगे अभियोग की गंभीरता में भी कटौती कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2003 में मोइजुल्लाह उर्फ पुत्तन, इशरत अली, अनवर चिश्ती और शमशुद्दीन उर्फ मेराडोना की सजा की अवधि घटा कर 10 वर्ष कर दी गई। बात करें मामले के मुख्य आरोपी फारुख चिश्ती की तो उसे अजमेर सेशन कोर्ट में सुनवाई के दौरान ही मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर दिया गया था।
हालांकि इन अपराधियों में से छह लोग अभी भी मुकदमे का सामना कर रहे हैं और सुहैल चिश्ती की गिरफ्तारी के साथ केवल एक आरोपी अलमास महाराज फरार है और ऐसा बताया जाता है कि आज वह अमेरिका में रहता है। उसके खिलाफ सीबीआई ने रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया है। 2007 में, अजमेर की एक फास्ट ट्रैक अदालत ने फारूक चिश्ती को भी दोषी ठहराया था जिसे पहले मानसिक रूप से अस्थिर घोषित किया गया था। 2013 में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने फैसले को बरकरार रखा, हालांकि इसने सजा की अवधि को इतना कम कर दिया कि चिश्ती द्वारा जेल में पहले काटी गई अवधि ही सजा में पूरी हो गई।
वर्ष, 2003 में जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले की सुनवाई कर अपराधियों की सजा घटाई गई थी तब बेंच का कहना था कि उम्रकैद की सजा दोषियों के लिए ‘अत्याधिक कठोर’ सजा है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमारा विचार है कि यदि सजा को आजीवन कारावास से घटाकर 10 वर्ष के कठोर कारावास में कर दिया जाए तो न्याय का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।
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गवाहों और सबूतों की कमी में न्यायलय सजा नहीं सुना सकता। इतना समझ आता है। हालांकि न्याय का उद्देश्य प्राप्त करना इतना आसान नहीं। पीड़िताएं बाहर नहीं आ पाई इसके सभी कारण न्यायालय के सामने थे। न्यायालय को यह भी पता था कि पूरा केस राजनीतिक दबाव और धार्मिक तुष्टि के कारण दबा हुआ था। राजस्थान के सेवानिवृत्त डीजीपी ओमेंद्र भारद्वाज, जो उस समय उप महानिरीक्षक के पद पर तैनात थे, का कहना है कि ”आरोपी सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली स्थिति में थे, और इससे लड़कियों को आगे आने और गवाही देने के लिए राजी करना और भी मुश्किल हो गया था।”
राजनीतिक दबाव और धार्मिक हिंसा के डर से मामले को दबाने के प्रयास क्या न्यायालय से छिपे हुए थे? पीड़िताएं आगे नहीं आई और मामला सरकार की ओर से दबाया गया तो न्यायालय ने इन सब के पीछे काम कर रहे व्यक्तियों पर नकेल क्यों नहीं कसी? क्या यह मान लिया जाए कि न्यायिक संस्थाएं भी किसी प्रकार के दबाव में थीं?
मामले का मुख्य आरोपी फारुख चिश्ती जिस पर पुलिस में कई आपराधिक मामले दर्ज हैं को सजा सुनाए जाने के साथ ही मानसिक रूप से अस्थिर घोषित कर दिया गया। हालांकि फारुख इस मानसिक स्थिति के साथ अजमेर भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पर क्यों था इसका जवाब न तो सरकार ने दिया और न ही न्यायालय ने। फारुख की मानसिक स्थिति अगर केस सामने आने के बाद बिगड़ी तो फिर अपराध उसने पूरी मानसिक स्थिरता में किए थे। क्या इसकी कोई सजा दी गई?
मामले में कम ही सही पर पीड़िताएं सामने आई थीं। उन्हें बेहतर सुरक्षा और विश्वास में लिया जाता तो संभव था कि और पीड़िताएं आगे आतीं। सुनवाई के दौरान पीड़िताओं ने ब्लैकमेल किए जाने के तरीके, यौन शोषण और अधिक लड़कियां लाने की बात स्वीकार की थी। यह भी स्वीकार किया गया था कि मामले में सिर्फ वो 2 पीड़िता नहीं है। क्या इन पीड़िताओं की गवाही न्याय के उद्देश्य के लिए कम थी?
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अजमेर की सोफिया एवं सावित्री स्कूल वो है जहां की छात्राओं को शिकार बनाया गया था। आज 30 वर्षों के बाद भी यहां का महिला छात्रावास बंद है क्योंकि आज कोई अभिभावक अपनी बेटी को यहां नहीं रखना चाहता। यही न्याय का उद्देश्य पूरा न हो पाने का सबूत है।
न्याय का उद्देश्य होना चाहिए अपराधी को दंड और पीड़ित एवं समाज को संदेश देना। समाज अगर न्याय दंड व्यवस्था में विश्वास नहीं कर पा रहा तो इसका अर्थ है कि न्याय का उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ है। अजमेर सेक्स स्कैंडल में न्यायालय न तो पूरी तरह अपराधी को दंड दे पाया न ही समाज को संदेश। अजमेर आज भी इसकी बात नहीं करता क्योंकि धार्मिक नगरी की पहचान रखने वाले शहर के लिए यह काला धब्बा है। संभव था कि अगर मामले में न्याय मिलता तो शहर के लोग इसे छिपाने के बजाए खुल के सामने आते और कहते कि शहर में अपराध हुआ था पर इसमें न्याय किया गया है।
दुखद यह है कि ऐसा नहीं हुआ। अजमेर सेक्स स्कैंडल में न्याय अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए संघर्षरत है।