बीते कुछ हफ्तों से यह देखा जा है कि सरकार ज्यूडिशियल ओवररीच (न्यायिक अतिरेक) के विषय पर सर्वोच्च न्यायालय को सख्त सन्देश देने का प्रयास कर रही है।
इसी कड़ी में बीते बुधवार (07 दिसम्बर, 2022) को उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ ने राज्यसभा की अध्यक्षता करते हुए आसन से ही इस विषय पर अपने विचार रखे।
सभापति जगदीप धनखड़ ने अपनी बात रखते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा संसद से सर्वसम्मति से पारित 99वाँ संविधान संशोधन को संविधान के मूलभूत संरचना में फेरबदल के आधार पर निरस्त कर दिया गया। ऐसा उदाहरण दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में देखने को नहीं मिलता। यह न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग है, जिसे मूलभूत संरचना के नाम पर ढका जा रहा है।
जिस संविधान से सर्वोच्च न्यायालय अपनी शक्ति प्राप्त करता है, उसका सृजनकर्ता ही संसद है। तो क्या सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह संसद द्वारा उचित प्रक्रिया से पारित कानून को निरस्त कर दे?
सरकार का न्यायपालिका को सन्देश
इससे पहले राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भी एक कार्यक्रम के दौरान इस बात को दबे लहज़े में ही भारत के मुख्य न्यायाधीश को इंगित करते हुए संविधान सम्मत होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने को कहा गया था।
इसके अलावा कानून मंत्री किरण रिजिजू ने भी स्पष्ट शब्दों में न्यायालय को सरकार के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करने का सन्देश दिया था।
इन टिप्पणियों से सरकार का प्रयास स्पष्ट होता है। यह सन्देश सरकार के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा दिलवाया गया है तो इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार इस विषय पर कितनी गंभीर है।
सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने
हालाँकि, एक लम्बे समय से सरकार से इस प्रकार के जवाब अपेक्षित थे। सरकार द्वारा कॉलेजियम प्रक्रिया पर भी आपत्ति दर्ज़ की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सार्वजनिक मंचों से सरकार पर आरोप लगाया गया कि देश में न्यायपालिका की निष्फलता के लिए सरकार भी एक हद तक जिम्मेदार है, क्योंकि सरकार जजों की नियुक्ति से सम्बन्धित फाइलों को अपने पास लटका कर रखती है। जिस पर कानून एवं विधि मंत्री ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि न्यायालय सालों से पड़े मुक़दमों पर फैसला सुनाने के बजाय आधा समय जजों की नियुक्तियों में लगा देती है। इस बात पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना रोष भी प्रकट किया।
इसके अतिरिक्त कॉलेजियम प्रक्रिया द्वारा प्रोन्नति और उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति से सम्बन्धित 20 नामों की सूची भेजी गई थी। इसमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी. एन कृपाल के पुत्र अधिवक्ता सौरभ कृपाल का नाम भी शामिल था। जिसे सरकार ने पुनर्विचार के लिए वापस कर दिया।
हाल ही में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर भी सर्वोच्च न्यायालय के जज जोशेफ कुरियन द्वारा अनावश्यक तौर पर हस्तक्षेप करने का प्रयास किया गया। यहाँ फिर एक बार न्यायपालिका द्वारा ज्यूडिशियल ओवर रीच की कोशिश की गई और संवैधानिक संस्थाओं में भी अपनी भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की गई। हालाँकि, इस मामले में सुनवाई के दौरान सरकार का पक्ष रखते हुए सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तंज कसते हुए दो टूक कहा कि किसी संस्था में न्यायपालिका से किसी का होना पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं करती।
आगे की राह
सरकार को संसद में पुन: एक बार कॉलेजियम प्रक्रिया के स्थान पर नए आयोग के गठन के लिए विधेयक लाना चाहिए। इस पर जनता से भी अपने विचार साझा करने को कहा जाना चाहिए, जिससे यह भी ज्ञात हो सके कि स्वयं को सर्वोच्च बताने वाली न्यायपालिका को लेकर लोगों के क्या अनुभव हैं और फिर उन सुझावों पर संसद में चर्चा भी की जानी चाहिए। न्यायपालिका में व्याप्त भाई-भतीजावाद को रोकने के प्रयास किए जाएँ। उनके कार्य को निर्धारित किया जाए। एक सशक्त और पारदर्शी न्यायपालिका भी लोकतंत्र में उतनी ही आवश्यक है जितनी की संसद।