13 नवंबर को झारखंड में पहले चरण का मतदान होना है। ऐसे में राज्य में चुनाव प्रचार ज़ोरों पर है। Jharkhand के इस बार के चुनावी प्रचार में झारखंड मुक्ति मोर्चा के मंच से जोहार, राम-राम या फिर नमस्कार की बजाय “अस्सलाम वालेकुम” ज्यादा सुनाई दे रहा है।
सवाल है कि ऐसा हुआ कैसे? कैसे अलग झारखंड का विरोध करने वाला मुस्लिम समुदाय झारखंड मुक्ति मोर्चा का वोट बैंक बन गया? कैसे जेएमएम का माझी-महतो-मंडल समीकरण बिखर गया? कैसे आदिवासियों का बड़ा हिस्सा जेएमएम से दूर चला गया? वरिष्ठ चिंतक दिलीप मंडल इन सवालों के जवाब विस्तार से देते हैं।
देश की स्वतंत्रता के साथ ही अलग Jharkhand राज्य की माँग तेज होने लगी थी। पहले राज्य के आदिवासियों ने इसे उठाया और फिर इस आंदोलन में क्षेत्र के सभी समूह, सभी वर्ग शामिल हो गए।
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भी इसके लिए प्रयास किए। इसी क्रम में विभिन्न जातियों और समुदायों ने मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा नाम से एक समूह बनाया। इस समूह के तीन स्तंभ माने जाते थे- शिबू सोरेन, निर्मल महतो और सूरज मंडल। निर्मल महतो पार्टी के अध्यक्ष थे।
ऐसे में जेएमएम को माझी-महतो-मंडल की राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर देखा गया। यही माझी-महतो-मंडल समीकरण जेएमएम की आत्मा कहा जाता था।
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ध्यान से समझते जाइए, एक तरफ जहाँ Jharkhand की अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियां और दूसरे जातीय और सामुदायिक समूह मिलकर, संगठन बनाकर, जय जोहार का नारा लगाकर अलग झारखंड के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं दूसरी तरफ झारखंड का मुस्लिम समाज कांग्रेस पार्टी के साथ खड़ा था।
जी हाँ, क्षेत्र का मुस्लिम समुदाय कांग्रेस के समर्थन में था जबकि कांग्रेस अलग Jharkhand आंदोलन का दमन कर रही थी। इसी समय एक ऐसी घटना हुई जिसने जेएमएम और कांग्रेस दोनों की राजनीति पर बड़ा प्रभाव डाला।
हुआ ये था कि जामताड़ा के चिरुडीह गाँव में आदिवासी बाहरी लोगों से बहुत परेशान थे। आदिवासी उन्हें दिकू कहते थे। आदिवासियों का आरोप था कि ये बाहरी लोग आकर उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। ये बाहरी लोग मुसलमान थे।
आरोप है कि 23 जनवरी, 1975 को एक भीड़ ने चिरुडीह से इन लोगों को खदेड़ने का प्रयास किया। इस दौरान भारी हिंसा हुई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस हिंसा में 11 लोगों की मौत हुई। मरने वालों में ज्यादातर मुसलमान थे। आरोप यह भी लगे कि इस भीड़ का नेतृत्व शिब्बू सोरेन कर रहे थे।
इसके बाद अब हम सीधे 1990 पर आते हैं। भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1990 में जेएमएम-कांग्रेस और आरजेडी एक साथ आ गईं। इन तीनों पार्टियों के एक साथ आने से हुआ ये कि कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक भी इस गठबंधन के पास आ गया लेकिन शिब्बू सोरेन चिरुडीह हिंसा से अभी बरी नहीं हुए थे।
22 जुलाई, 2004 को मनमोहन सिंह कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA सरकार के प्रधानमंत्री बने। शिब्बू सोरेन को मनमोहन सिंह के 67 सदस्यीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। उन्हें कोयला मंत्री बनाया गया। दो महीने बाद ही जुलाई, 2004 में जामताड़ा अदालत ने 1975 के चिरुडीह हिंसा मामले में शिबू सोरेन के विरुद्ध गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया।
ध्यान से समझिए, शिब्बू सोरेन के विरुद्ध चिरुडीह हिंसा में वारंट जारी हुआ था, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम मारे गए थे। कांग्रेस अपने मुस्लिम वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती थी। ऐसे में कांग्रेस ने सोरेन को मंत्रालय से बाहर निकाल दिया।
जी हाँ, जुलाई, 2004 को उन्हें मनमोहन कैबिनेट से निकाल दिया गया। हालांकि इसको दिखाया ऐसे गया था कि सोरेन ने स्वयं इस्तीफा दिया है। 2008 में उन्हें इस मामले में बरी कर दिया गया।
राजनीतिक उठा-पटक चलती रही। झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और आरजेडी के साथ किसी ना किसी तरह से गठबंधन में बना रहा। इससे हुआ ये कि कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक जेएमएम का भी वोट बैंक बन गया।
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ध्यान से समझिए, कांग्रेस का विरोध जेएमएम की राजनीति का आधार था। बाहरी मुस्लिमों का आदिवासी जमीन पर कब्जे का विरोध जेएमएम की राजनीति थी। माझी-मंडल-महतो के सामाजिक समीकरण पर जेएमएम राजनीति करती थी लेकिन धीरे-धीरे वही जेएमएम कांग्रेस के साथ ही एक तरह से मिल गई, मुस्लिम समुदाय उसका वोटबैंक बन गया और माझी-मंडल-महतो समुदाय पार्टी से दूर खिसकने लगा।
प्रो. दिलीप मंडल कहते हैं कि जेएमएम के इस तरह से राजनीतिक पलटी मारने के पीछे 15 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक है। दरअसल, 15 प्रतिशत एकजुट मुस्लिम जुटने के बाद जेएमएम ने पहले मंडल, फिर कुर्मी और फिर कुशवाहा समुदाय को छोड़ दिया।
आज जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी में इन जातियों का कोई महत्वपूर्ण नेता नहीं है। आदिवासी भी जेएमएम से दूर होते चले गए। यही कारण है कि उनके नेता मंच से “जोहार” से ज्यादा “अस्सलाम वालेकुम” बोल रहे हैं।