दुनिया के नक़्शे पर ‘मिडल ईस्ट’ में चलने वाला संघर्ष दुनिया की सबसे लंबे समय तक चलने वाली लड़ाई है। पिछले एपिसोड में हमने उस कहानी पर चर्चा की जब ईसा पूर्व 1250 में इज़रायलियों ने भूमध्य सागर (मेडिटरियन सी) के पूर्वी तट पर बसे केनान के इलाके पर चढ़ाई की और वहाँ बसना शुरू कर दिया। इस एपिसोड में बात करेंगे यहूदियों के विद्रोह की, जो सबसे लंबे समय तक चलने वाली क्रांति भी कही जा सकती है। उन्होंने अपने धर्म की रक्षा के लिए क्या कुछ सहन नहीं किया और किस तरह से उसे नष्ट करने वालों का प्रतिरोध भी किया।
ये सब हुआ 66 ईस्वी में रोमन सम्राट नीरो के शासनकाल के दौरान, जब रोमन और यहूदी आपस में धार्मिक तनाव के चलते लड़ने लगे। इसने जन्म दिया था कई सालों तक चलने वाले महान विद्रोह को।
ईसा पूर्व 961 से 922 तक सोलोमन का राज रहा जिन्होंने यरूशलम में यहूदियों का पवित्र मंदिर बनाया। जब ये मंदिर बना तो सोलोमन ने सात दिनों का त्योहार रखा, और 22,000 बैलों के साथ 1,20,000 भेड़ों की बलि दी। सोलोमन के साम्राज्य को इज़रायल का स्वर्ण युग भी कहते हैं। सोलोमन के बाद यह इलाका दो अलग-अलग साम्राज्यों में बंट गया – ईसा पूर्व 586 में इन दो में से एक, दक्षिणी साम्राज्य पर बेबिलोनिया के लोगों ने चढ़ाई कर दी और उस पर कब्ज़ा कर लिया। यहाँ हमला करने वालों ने यहूदियों यानी ज्यूज़ को वहाँ से भगा दिया गया और सोलोमन का मंदिर भी तोड़ दिया।
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यरूशलम
इस घटना के क़रीब सत्तर साल बाद यहूदियों ने वहां लौटना शुरू किया और धीरे धीरे यरूशलम और मंदिर को फिर से बनाया। ये वही येरुशलम है जो इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्मों में बेहद अहम स्थान रखता है और सदियों से मुस्लिमों, यहूदियों और ईसाइयों के लिए इस शहर का बहुत बड़ा महत्व भी है। हिब्रू भाषा में येरूशलायीम और अरबी में अल-कुद्स के नाम से जाना जाने वाला ये शहर दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है।

ईसा पूर्व 333 BC में सिकंदर ने अपने दुनिया जीतने के अभियान में इस इलाके को यूनानी यानी ग्रीक साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। 165 BC में जुडेया (Judea/यहूदिया) के यहूदियों ने फिर बगावत की और यहां आखिरी पुराने यहूदी राष्ट्र की स्थापना की। लेकिन ईसा पूर्व 63 BC में यहूदी राष्ट्र जुडेया को रोमन साम्राज्य के प्रांत फ़िलिस्तीन का हिस्सा बना दिया गया। उनके मंदिरों पर रोम ने अपना प्रभुत्व बनाने की भी कोशिश की, यानी यहूदियों के देवताओं के साथ अपने देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित करना या उनके देवताओं के साथ रोमन सम्राट की प्रतिमा लगाना। लेकिन इन सब चीज़ों से यहूदी भड़क जाते थे।
63 ईसा पूर्व में, रोमन्स ने जब यहूदियों की धरती जुडेया (यहूदिया) पर कब्ज़ा कर लिया तो वो जल्दी ही भाँप गए थे कि इन पर शासन आसान नहीं होगा। यहूदियों ने रोमन देवताओं को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। रोमन साम्राज्य ये देखकर हैरान था कि आख़िर यहूदियों की एकजुटता की वजह क्या है। वो धीरे धीरे जानने लगे कि इनका धर्म और उसके प्रति इनकी निष्ठा ही इनकी ऊर्जा का स्रोत भी है। फिर रोम ने हारकर यहूदियों को अपने धर्म की उपासना के अनुसार आजादी दी। रोम ने यहूदी धर्म को एक कानूनी धर्म के रूप में मान्यता दे दी, जिससे यहूदियों को स्वतंत्र रूप से पूजा करने की अनुमति मिल गई।
लेकिन रोम के शासन को यहूदियों पर हमेशा शक ही रहा। उन्होंने यहूदियों पर जमकर अत्याचार भी किए। उन्हें ग़ुलामों की तरह रखा, और अक्सर उन्हें खेल के मैदानों में जानवरों को खिला दिया गया। रोम और यहूदियों के बीच सबसे गंभीर संघर्षों में से एक 66 ईस्वी का माना जाता है, जब यहूदिया में नीरो सम्राट हुआ करते थे।
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यहूदियों का विद्रोह और मंदिर का विध्वंश
इसी बीच यहूदिया के रोमन गवर्नर ने यरूशलेम में मंदिर के खजाने से बहुत सारा पैसा यह कहकर उठा लिए कि वो Tax की भरपाई कर रहा है। मंदिर पर डाका पड़ने से यहूदी भड़क गये। दंगे शुरू हुए जिसे रोमन सैनिकों ने बेरहमी से दबा दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि यहूदी क्रांतिकारियों का एक राष्ट्रवादी समूह, जिसे ज़ीलॉट्स कहा जाता है, वो नाराज़ हो गया। उन्होंने यरूशलेम में रोमनों का नरसंहार का फ़ैसला किया और रोमन प्रांत में कई जगहों पर रोमन सैनिकों को निशाना बनाया। 66 ईस्वी के आख़िर में यहूदियों ने एकजुट होकर विद्रोह किया और रोमनों को यरूशलेम से भागने पर मजबूर कर दिया। ऐसे में, नीरो ने विद्रोह को दबाने के लिए सेना का सहारा लिया और फिरसे क़रीब दो साल बाद रोमनों ने यरूशलेम पर कब्ज़ा कर लिया। इस बार यहूदी आस्था के केंद्र सोलोमन मंदिर को भी तोड़ दिया।

यहूदिया, जो आज के दौर में इज़रायल का हिस्सा है, ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से रोम और यहूदियों के बीच संघर्ष का गवाह रहा है। 6वीं ईसवी में ये एक रोमन प्रांत बन गया। ये वो जगह है जो कई दशकों तक अराजकता का शिकार रहा।
अब यहाँ पर बग़ावतों का दौर शुरू हुआ। सन 70 ईसवी में सम्राट टाइटस ने रोमन साम्राज्य के ख़िलाफ़ शुरू हुए एक विद्रोह को कुचल दिया और सॉलोमन का मंदिर दूसरी बार ध्वस्त कर दिया गया। यहाँ से यहूदियों के बिखरने की शुरूआत भी हुई।
सन 118 से 138 के बीच जब यहाँ पर रोमन सम्राट हैड्रियन का शासन आया, तब शुरुआत में तो यहूदियों को वापस यरुशलम आने-जाने की इजाज़त थी, लेकिन सन 133 में जब एक और यहूदी विद्रोह हुआ तो ये शहर पूरी तरह नष्ट कर दिया गया और यहां रहने वालों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। सम्राट हैड्रियन ने 35,000 रोमन सैनिक विद्रोह को दबाने के लिए भेजे, इस बार लगभग 5,80,000 यहूदी लड़ते हुए मर गये, बहुत से लोग भूख और बीमारी से मर गए। यहूदिया से इस समुदाय को लगभग साफ़ कर दिया गया। हैड्रियन ने पूरे यहूदिया प्रांत का नाम ही बदलकर फिलिस्तीन कर दिया।
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रोमन साम्राज्य में यहूदी धर्म
लेकिन रोम यहूदियों को अब विद्रोह से रोकने के उपाय भी तलाशने लगा था और इसके लिये रोम के शासकों ने ख़ुद को लिबरल बनने दिया, यानी जो भी धर्म हो उसे उसके अनुसार जीने दिया जाए, भले ही वो इसमें अपने ईश्वर को पूजा की एक शर्त ज़रूर रखते थे।
रोम के शासक यहूदी धर्म को इसलिए भी सहन करते रहे क्योंकि इसका इतिहास पुराना था और ये उन्हें कहीं अधिक व्यवस्थित नज़र आता था। इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण ये भी था कि रोम यहूदिया के लोगों को विद्रोह करने से रोकना चाहता था और इसके लिए वो उनका समय समय पर धार्मिक तुष्टिकरण भी करते रहे। लेकिन वो इस बीच पैदा हो रहे ईसाई धर्म के बारे में ऐसा नहीं सोचते थे। यहूदी धर्म की इस नई शाखा को शुरू में यहूदिया के लोगों के बीच बहुत कम समर्थन प्राप्त था। यहूदी तो ये भी चाहते थे कि ईसाइयों को शुरू में ही दबा दिया जाता।
रोम में ईसाई धर्म
फिर भी जब 30 ई. के आसपास रोम को पहली बार ईसाई धर्म के बारे में पता चला, तो उसने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। वो ये सोच रहे थे कि यह संप्रदाय हमेशा से अराजकता और उपद्रव करने वाले यहूदी धर्म को कमजोर कर सकता है। यही वजह थी ईसाई धर्म के उदय की। सम्राट टाइबेरियस ने सीनेट से ईसाई धर्म को वैध बनाने और ईसा मसीह को रोमन देवता घोषित करने के लिए कहा। लेकिन रोम की सीनेट ने इनकार कर दिया और इसके विपरीत इसने ईसाई धर्म को ‘अवैध अंधविश्वास’ घोषित कर दिया, जो रोमन कानून के तहत एक अपराध था।
हालाँकि ईसाई धर्म अब आधिकारिक तौर पर अवैध था, फिर भी टाइबेरियस को उम्मीद थी कि यह नया धार्मिक संप्रदाय साम्राज्य में शांति स्थापित करने के काम आएगा। इसलिए उन्होंने रोमन अधिकारियों को इस नए ईसाई धर्म में हस्तक्षेप ना करने का आदेश दिया। रोम की नीरो के समय तक लगभग 30 वर्षों तक चली।
100-150 से अधिक वर्षों तक, ईसाइयों ने साम्राज्य में अपने धर्म का प्रचार किया। लेकिन 250 में, सम्राट डेसियस ने मूर्ति पूजा करने वाले रोमन धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए ईसाइयों पर अत्याचार बढ़ाए। कई ईसाई मार दिये गए लेकिन जब गैलियेनस सम्राट बना, तो उसने आख़िरकार इस उत्पीड़न बंद कर दिया। पहली बार ईसाई धर्म को कानूनी धर्म के रूप में मान्यता दी गई। तब ईसाई एक अल्पसंख्यक धर्म था। लेकिन इसके बाद इनकी चर्च और इनका विश्वास पूरे रोमन साम्राज्य पर छा गया। और रोमन्स की यही उदारता रोम के पतन का कारण बन गई।
395 में ईसाई धर्म रोम का नया राजकीय धर्म बना। ईसाई, जो लंबे समय से डिफेंसिव चल रहे थे, वो अब हावी हो गए। उन्होंने बुतपरस्त रोमन्स पर हमला शुरू किया। उन्होंने उनके ही मंदिरों को बंद कर दिया और बुतपरस्त देवताओं की बलि पर प्रतिबंध लगा दिया। रोम के त्योहायों को हाईजैक कर लिया गया। इसका उदाहरण है जब चर्च ने 25 दिसंबर को सूर्य देवता के जन्मदिन को ईसा मसीह के जन्म के उत्सव में बदल दिया।
इसके बाद एक समय आया जब साल 638 में अरब मुस्लिमों के हमले ने रोमन साम्राज्य का पूरा ख़ात्मा किया और इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने आठवीं सदी की शुरुआत में वहां उस जगह पर एक मसजिद बनवाई जहां अब अल अक्सा मस्जिद है।
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इस विद्रोह के फ़ायदे और नुक़सान
पहले बात करें अगर नुक़सान की तो आप देख सकते हैं कि यहूदियों पर बरती गई हद से ज़्यादा सख़्तियों ने उन्हें विद्रोह करने पर मजबूर किया। उनके मंदिरों को दो बार तोड़ा गया। इन विद्रोहों में यहूदियों की जान गई, रोमन सेना का नुकसान हुआ। और कई सदियों तक यरूशलम जंग का मैदान बना रहा।
एक और नुक़सान ये कि रोमन साम्राज्य ने जब यहूदियों के दमन के लिए ख़ुद को उनके अनुसार ढालने की कोशिश की तो उनके साम्राज्य का धीरे धीरे पतन होता चला गया। और उन पर एक नये धर्म ने अपना अधिकार जमा लिया ।
अब इसके फ़ायदे की बात करें या इस से मिलने वाली सीख की तो यहूदियों से सीखा जा सकता है कि अपने धर्म के लिए ये क़ौम सदियों तक संघर्षरत रही, कई बार इन्हें येरुशलम से बाहर किया गया लेकिन ये अपनी मातृभूमि के लिए लौटे और फिर संघर्ष करते रहे।
दुनिया को ईसाईयत के रूप में एक धर्म मिला जो उस दौर में प्यार मोहब्बत बाँटने की बात करता था यानी ईसाई धर्म। रोम को मजबूरन इस धर्म को वैध भी करना पड़ा। और लोगों को समझ आने लगा कि लोगों की धार्मिक भावनाएँ भड़काकर सिर्फ़ रक्त पात ही हाथ आता है और उसके आगे चलकर पूरी सभ्यता का विनाश भी। हालाँकि उसके बाद ईसाइयों ने विश्व के मानचित्र पर चर्च बिछा डालीं। इस पर बात करेंगे आगे के एपिसोड में।