जावेद अख्तर फैज़ अहमद फैज़ की याद में आयोजित लाहौर के एक लिटफेस्ट में सच बोल आए। उनकी सराहना हो रही है। सोशल मीडिया में इसे पाकिस्तान पर एक और सर्जिकल स्ट्राइक तक बताया जा रहा है। सोशल मीडिया का यही चरित्र है। वह अतिवाद का मारा रहता है। सोशल मीडिया दरअसल कुछ भी सेलिब्रेट करने की जगह है। यह उत्सव मनाने की जगह है जहां ट्रेजेडी से लेकर कॉमेडी और सच से लेकर झूठ तक को उत्सव में बदला जा सकता है। जहाँ साधारण घटना को क्रांति बताया जा सकता है और असाधारण घटना को भ्रांति। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं कि जावेद साहब की साधारण बात को उनकी बेबाकी से लेकर सहस तथा दर्शन और देशभक्ति से लेकर निडरता वगैरह बनाकर पेश कर दिया गया।
जावेद साहब ने जो कहा वह सच कहा। उन्हें वही कहना चाहिए था। उनकी जगह कोई और शायर होता तो यही कहता या नहीं, यह केवल अनुमान का विषय हो सकता है। उनके सच को इसलिए इतनी सराहना मिल रही है क्योंकि हम जिस काल में जी रहे हैं, उसमें ईमानदार रहना और सच बोलना गर्व और सेलिब्रेशन का विषय है, बुद्धिजीवी के लिए तो और भी।
जावेद साहब ने लाहौर में जो कहा वह आम भारतीय वर्षों से कहता रहा है। उसी सोशल मीडिया पर कहता रहा है जिस पर जावेद साहब की कही बात को सेलिब्रेट किया जा रहा है। अंतर केवल इतना है कि उसके पास वह अंदाज नहीं है जिसे मीडिया का माइक और प्रायोजित लिटफेस्ट सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उसकी समस्या यह है कि यही बातें कहने के लिए जावेद साहब जैसे बुद्धिजीवी उसे शर्मिंदा करते रहे हैं, कभी धर्मांधता के नाम पर, कभी इस्लामॉफ़ोबिया के नाम पर तो कभी यह कहते हुए कि उसके पूर्वज अंग्रेजों के गुलाम थे। उसे और उसकी बात को खारिज करने में जावेद साहब जैसे बुद्धिजीवियों को दो क्षण लगते हैं। वैसे इसे विडंबना ही कहेंगे कि जावेद साहब ने सच बोलने के लिए पाकिस्तान की धरती चुनी। भारत में तो वे आजकल अधिकतर प्रोपगैंडा ही बतियाते हैं।
“हमने मेहंदी हसन और नुसरत फतेह अली के बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किये लेकिन पाकिस्तान वालों ने कभी लता मंगेशकर का कार्यक्रम अपने देश में क्यों नहीं करवाया?” या “मुंबई पर हमला करने वालों को आपने आज तक सजा क्यों नहीं दी” जैसे प्रश्न करना कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे यह पूछ लेना कि; “हमने तो कभी पाकिस्तान में आतंकवादी नहीं भेजे तो पाकिस्तान हमारे देश में आतंकवादी क्यों भेजता रहा है” या “हमने कभी पाकिस्तान पर पहले हमला नहीं किया लेकिन हर बार पाकिस्तान हमपर क्यों हमला करता रहा है?”
जो प्रश्न जावेद साहब ने पूछे वे ऐसे ही हैं जैसे यह पूछना कि; चीन में लोकतंत्र क्यों नहीं है या अंग्रेज़ों ने पूरी दुनिया पर छल से राज क्यों किया?
इन प्रश्नों का क्या महत्व है? आखिर यह कोई शोध का विषय नहीं है कि हम पाकिस्तानी कलाकारों के बड़े-बड़े कार्यक्रम क्यों और कैसे आयोजित कर पाए? पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में स्वीकार्यता या मान्यता क्यों और कैसे मिली? इसका उत्तर जावेद अख्तर भी जानते हैं और उत्तर यह है कि पाकिस्तानी कलाकारों की स्वीकार्यता इसलिए रही क्योंकि हमारी संस्कृति हमें अतिथि से अधिक उसकी कला का सम्मान करना सिखाती है। देखा जाए तो किसी भी कला को व्यक्ति से आगे ले जाकर हम उसे सरस्वती से जोड़ लेते हैं। हम किसी के गले में सरस्वती का वास देख लेते हैं तो किसी की लेखनी में और ऐसा करते हुए हम कलाकार का धर्म नहीं देखते। यदि ऐसा न होता तो बड़े गुलाम अली खान पाकिस्तान जाकर वापस भारत न आते।
यह समझने के लिए गणित का समीकरण हल करने की आवश्यकता नहीं कि लता मंगेशकर का कार्यक्रम पाकिस्तान में आयोजित क्यों नहीं हुआ। यह राजनीति, सामाजिक या सामरिक सोच की बात नहीं है। यह विशुद्ध रूप से सांस्कृतिक सोच की बात है। यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद भारत में हजारों कलाकार हुए जिनको मात्र उनकी कला से पहचाना गया। देखा जाए तो हम भारतीय तो विशिष्ट ही नहीं बल्कि किसी अतिथि की औसत से निचले स्तर की कला को भी सम्मान दे लेते हैं। पर ऐसा करने के बाद भी हम पर ही असहिष्णु होने के आरोप भी लगते रहते हैं। ऐसा आरोप लगाने वालों में जावेद साहब भी शामिल रहे हैं। ऐसे में यह जानना दिलचस्प रहेगा कि 26/11/2008 के बाद जावेद अख्तर पहली बात पाकिस्तान गए या इससे पहले भी गए थे? और गए थे तब उन्होंने क्या कहा था?
जावेद अख्तर को भी पता है कि आज भी भारतीयों पर संस्कृति हावी है और पाकिस्तानियों पर मजहब। उन्होंने वहां लता मंगेशकर के कार्यक्रम आयोजित न करने की शिकायत की पर जिन शायर की याद में होने वाले लिटफेस्ट में वे पहुंचे थे, उनके साथ इसी पाकिस्तान में क्या किया गया, यह याद नहीं दिलाया। उन्हें चाहिए था कि वे वहां बैठकर फैज़ की बात करते और उपस्थित भीड़ को बताते कि जिनकी लिखी नज़्म भारत में उखड़े-उखड़े गैंगों का मार्गदर्शन करती है, उनके साथ पाकिस्तान ने बड़ा बुरा किया।
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