13 मई, 2008 की शाम को राजस्थान की राजधानी जयपुर में सिलसिलेवार बॉम्ब ब्लास्ट हुए। 80 लोगों ने इसमें अपनी जान गंवाई और 181 लोग घायल हो गए। अदालत ने लंबी कार्रवाई के बाद 4 आरोपितों को सजा भी सुनाई पर आश्चर्यजनक रूप से 29 मार्च, 2023 को राजस्थान हाईकोर्ट ने इन 4 आरोपितों को बरी कर दिया।
अदालत के निर्णय से एक ही प्रश्न सामने आ रहा है कि; 80 लोगों को आखिर किसने मारा? अगर 4 आरोपी निर्दोष थे तो फिर उन्हें फांसी की सजा क्यों सुनाई गई?
इन प्रश्नों का उत्तर भले ही न मिले पर इस पूरे प्रकरण में संस्था और सामाजिक स्तर पर सरकार ने न्याय की अवधारणा को नुकसान पहुँचाया है। न्यायिक फैसले पीड़ित परिवारों के लिए प्राणदायी नहीं हो सकते पर पीड़ित परिवारों को इन फैसलों से जो मिलता है वो है, न्याय। सामाजिक व्यवस्था में न्याय बुनियादी जरूरतों जितना ही मूल्यवान है। आरोपितों की सजा न सिर्फ उनके कार्यों का परिणाम होती है बल्कि यह उस समाज की कल्पना साकार करती है जिसमें न्याय को सामाजिक व्यवस्था का आधार माना जाता है और जिसे यह समाज हर प्रकार से बनाए रखना चाहता हैं। न्याय दोषियों को सजा देने के साथ ही वह नैतिक मानक स्थापित करता है जो समाज में स्वीकार्य है।
श्रीराम ने कहा था कि भय बिनु होय न प्रीत, यह बात और है कि सरकार ने इसे भुला दिया है। यदि 80 लोगों के जीवन का न्याय नहीं हो पाया तो हम कैसे एक सुरक्षित समाज की नींव रख सकते हैं? न्याय के इस पहलू पर ध्यान देकर देखें तो जयपुर बॉम्ब ब्लास्ट और उसके आरोपितों की रिहाई ने समाज में क्या संदेश दिया है? उपद्रवी घटनाओं का अध्ययन करें तो ऐसे ही संदेश अन्य मामलों में भी मिल जाएंगे। इन घटनाओं का दोहराव बता रहा है कि सरकारों और संस्थाओं ने समय रहते सही निर्णय नहीं लिया है।
2008 में बॉम्ब ब्लास्ट के बाद राजस्थान में कॉन्ग्रेस को सत्ता मिली। सत्ता मिलने से पहले बॉम्ब ब्लास्ट पर शोर मचाने वाली कॉन्ग्रेस ने कोर्ट में आरोपितों के खिलाफ सरकारी पक्ष को कमजोर रखा। कम से कम आदालत के फैसले से यही सामने आया है। अदालत का कहना है कि पीड़ितों के साथ सहानुभूति होने के बाद भी संस्थाओं की लापरवाही के कारण आरोपितों को बरी करना पड़ा रहा है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि 3 वर्ष पूर्व भी जब आरोपितों को फांसी की सजा सुनाई गई थी तब वे मुस्कराते हुए पुलिस वैन से बाहर निकले थे। यह न्याय व्यवस्था में उनके विश्वास को दर्शा रहा था।
यह मामला अब राजनीतिक सत्ता और वोट बैंक की एक प्रथा की तरह ही नजर आ रहा है। 26/11 में मुंबई हमले के बाद कॉन्ग्रेस नेता दिग्विजय सिंह एक किताब के विमोचन समारोह में दिखाई दिए थे। किताब में मुंबई हमले को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की साजिश बताया गया था। संघ पर आतंकवाद का आरोप लगाकर पाकिस्तान से आए आतंकवादियों को बेकसूर बताया गया था। अब गहलोत सरकार ने कोर्ट में सरकारी लापरवाही से आरोपितों को बरी करने में मदद की है।
ममता बनर्जी द्वारा अपने दायित्वों को पीछे फेंकने की क़ीमत क्या है?
सरकार की लापरवाही के साथ ही यहाँ उन संगठनों की बात भी होना आवश्यक है जो मानवता की रक्षा के नाम पर आतंकियों के साथ हाथ मिलाते नजर आते हैं। एनएलयू का प्रोजेक्ट 34ए इसी अवधारणा पर बना संगठन है। यह फांसी के मामलों में पैरवी करते हैं। इसमें यह भी देखना आवश्यक नहीं है कि आरोपित किससे संबंधित है। बस उन्हें फांसी नहीं होनी चाहिए। इसी विशाल हृदय के साथ प्रोजेक्ट 34ए के 18 वकीलों ने बिना फीस लिए आतंकी हमले के आरोपितों का न सिर्फ केस लड़ा बल्कि उन्हें सजा से पूर्णतया बचाने में भी कामयाब रहे हैं। आरोपितों को सजा से बचाकर वो पीड़ित परिवारों के साथ जो अन्याय कर रहे हैं उस बात की व्याख्या करना आवश्यक है।
बहरहाल, जयपुर पीड़ितों के न्याय के लिए अभी भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खुला है। हालाँकि वहां भी सरकार कितने मजबूती से अपना पक्ष रखती है यह देखने वाली बात होगी। इतना जरूर है कि सत्ता पक्ष को इस गलतफहमी से बाहर निकलने की आवश्यकता है कि जिस मुद्दें को चुनाव में उछालकर वो सत्ता में आए थे वो अभी भी उन्हें सत्ता में बनाए रखेगा।
कानून व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी थी और 15 वर्षों की गहन जांच में निकली खामियां सरकार की लापरवाही का खुला प्रदर्शन कर रही है। गहलोत सरकार को याद रखना चाहिए कि अपराधी को चेतावनी मात्र का भय नहीं होता। समाज को संगठित और न्याय को मुख्यधारा में रखने के लिए भी दंड का प्रावधान अनिवार्य है।