“जैन समाज कम है कमजोर नहीं है!” तख्तियों पर लिखे ये शब्द उस जैन समाज के हैं जो इस समय अपने धार्मिक अधिकारों को लेकर देशभर में सड़कों पर हैं। दिल्ली, मुंबई से लेकर गुजरात और अन्य राज्यों में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन जारी हैं। जैन समाज को ऐसा करते हुए बहुत कम देखा जाता है। शिक्षा एवं सत्संग की ओर अधिक झुकाव रखने वाले समाज की ये तस्वीरें उनके विरोध प्रदर्शन को गंभीर बनाती हैं।
ये तस्वीरें यह भी बताती हैं कि चूँकि इस समाज के लिए विरोध प्रदर्शन सामान्य जीवन का हिस्सा कभी नहीं रहा इसलिए समाज की ओर से यदि ऐसा विरोध प्रदर्शन हो रहा है तो उसे और उसके पीछे के कारणों को समझने की आवश्यकता हर किसी को है।
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समाज हो या सरकार, शासन हो या प्रशासन, सबको यह याद रखने की आवश्यकता है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की गिनती में जैन समाज भी आता है। जिस पारसनाथ पहाड़ी पर स्थित श्री सम्मेद शिखर को झारखंड सरकार ने तीर्थस्थल घोषित किया है वह जैन समुदाय का सबसे पवित्र तीर्थस्थल है। 24 तीर्थंकरों में 20 ने इसी पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था।
धार्मिक स्थल पर पर्यटन?
यह कोई नकार नहीं सकता कि पर्यटन स्थल घोषित किए जाने से पवित्र स्थल की पवित्रता भंग होगी। ऐसे पर्यटक या लोग जिन्हें जैन समाज की धार्मिक मान्यताओं और रीति रिवाजों का ज्ञान नहीं है, वे वहाँ पहुँचकर पर्यटक की तरह ही आचरण करेंगे।
किसी धार्मिक स्थल पर तो प्रशासन वहाँ उपस्थित लोगों के आचरण का निर्धारण कर सकता है पर पर्यटन स्थल पर यह संभव नहीं है। पर्यटन स्थल पर स्वतंत्रता की सबसे बड़ी मांग खाने की स्वतंत्रता होती है।
ऐसे में किसी धार्मिक स्थल को पर्यटकों के लिए खोलने के साथ प्रशासन के लिए खाने-पीने को लेकर धार्मिक स्थलों की शर्तों को लागू करना लगभग असंभव होता है। ऐसे में झारखंड सरकार के इस फैसले के पीछे प्रयोजन जो भी हो पर फैसले में वृहद जैन समाज की चिंताओं को दरकिनार कर देना असहिष्णुता का उदाहरण है।
पर्यटन स्थल घोषित करने के पीछे राज्य सरकार का तर्क क्या है?
धार्मिक स्थल सरकारों को वैसे ही बहुत धन देते हैं। हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को नियंत्रित करते हुए सरकारें उनसे किस स्तर पर धन इकट्ठा कर रही हैं, यह छिपा नहीं है।
धार्मिक स्थल अपने आप में एक अर्थव्यवस्था का आधार होते हैं। ऐसे में क्या आवश्यकता है एक अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थल को पर्यटक स्थल घोषित करने की?
किसी भी समाज की धार्मिक भावनाओं का स्तर उसकी संख्या से तय नहीं किया जा सकता।
झारखण्ड सरकार अपने इस निर्णय को लेकर निज को क्या इसलिए जवाबदेह नहीं समझती क्योंकि जैन समाज झारखंड की राजनीति को प्रभावित नहीं कर सकता? या इसलिए क्योंकि अहिंसक जैन समाज को अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर मनमानी करते नहीं देखा जाता और ना ही अल्पसंख्यक होने का विक्टिम कार्ड चमकाते?
धर्म की आधारभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए विरोध
निर्णय लेते हुए सोरेन सरकार कहीं यह मान तो नहीं बैठी कि जैन समाज इस फैसले का विरोध नहीं करेगा? संविधान को साक्षी मानकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि उसी संविधान में सेक्युलरिज़्म भी निहित है।
केंद्र सरकार ने जैन समाज के इस धार्मिक स्थल को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया था पर सोरेन सरकार ने पर्यटन स्थल ही घोषित कर दिया। इस घोषणा का असर सबके सामने है।
अन्य अल्पसंख्यक समुदायों से जुड़े सुधार की दिशा में भी किए जाने वाले सरकारी फैसले लेने में सरकारों को वर्षों लग जाते हैं। ऐसा करते हुए उनके दीर्घकालिक परिणामों को लेकर समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ विमर्श होता है।
एक लोकतंत्र में धार्मिक मान्यताओं से जुड़े निर्णयों पर परामर्श की प्रक्रिया का सम्मान हर सरकार करती है पर ऐसा क्यों है कि एक समुदाय को अपने धर्म की आधारभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए विरोध करना पड़ रहा है?
झारखंड सरकार यदि इस प्रश्न का उत्तर खोजने की दिशा में कदम बढ़ाए तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी।
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