भारत का सबसे भरोसेमंद मित्र इज़रायल इस समय सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन झेल रहा है। ‘पूरा देश’ प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ सड़क पर उतरा हुआ है। नहीं, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ, ऐसा वैश्विक मीडिया कह रहा है। मुझे इस बात में संदेह है क्योंकि हाल के वर्षों में हमने भी भारत मे कुछ ऐसे विरोध प्रदर्शन देखे हैं, जिनमे कथित रूप से ‘पूरा देश’ सरकार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरा था।
भारत मे लाखों करोड़ों लोग सड़कों पर उतरे थे CAA के विरोध में और फिर उसके बाद कृषि कानूनों में सुधार के विरोध में। हालांकि हम सभी जानते हैं कि इस कथित ‘पूरे देश’ के पीछे कौन लोग थे और कौन सा एजेंडा था। इज़रायल में भी कथित रूप से ‘पूरा देश’ सड़कों पर बेंजामिन नेतन्याहू सरकार के ‘न्यायिक सुधार कानून’ के विरोध में उतरा है।
29 हफ़्तों से जारी विरोध प्रदर्शनों के बीच सोमवार को इस कानून का सबसे अहम हिस्सा इज़रायल की संसद में पास हो गया। कहा जा रहा है इस बिल के पास होने से इज़रायल में लोकतंत्र की हत्या हो गई और तानाशाही स्थापित हो गई है। लोकतंत्र की हत्या कम से कम हमें तो हैरान नहीं करती क्योंकि यहां हर दूसरे दिन किसी न किसी बात पर लोकतंत्र की हत्या होती रहती है।
इज़रायल में लोकतंत्र की हत्या का एक मात्र अर्थ ये है कि इजरायली सुप्रीम कोर्ट अब सुप्रीम नहीं रहा। अब उसके फैसले संसद सदस्यों द्वारा बहुमत से बदले जा सकते हैं। मीडिया में विपक्ष के हवाले से दावा ये किया जा रहा है माना ये जा रहा है कि बेंजामिन नेतन्याहू ये कानून अपनी सुरक्षा के लिए लाए है क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगे है।
लेकिन इस कानून के खिलाफ जो लोग सड़कों पर उतरे हैं उनसे बात करने पर पता चलता है कि उनकी चिंता दरअसल ये है ही नहीं। उनकी चिंता ये है कि इस कानून के आने से इज़रायल में रहने वाले फिलिस्तीनी मुस्लिमों और अरबों की समस्याएं बढ़ेंगी। प्रदर्शकारी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां कम होने से फिलिस्तीनी नागरिकों को अधिकार कम होंगे और उनकी लड़ाई कमज़ोर होगी।
एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रदर्शनकारियों की प्राथमिकता फ़लस्तीनी इलाकों पर इज़रायल का कब्जा खत्म करवाना और फ़िलिस्तीनियों के लिए इज़रायल में यहूदियों जैसी समानता स्थापित करना है। सवाल ये है कि एक यहूदी राष्ट्र की निष्पक्ष कानूनी संस्था से फ़िलिस्तीन समर्थकों को इतनी उम्मीदें क्यों है और क्या वजह है कि इज़रायल की दक्षिणपंथी विचारधारा वाली सरकार एक निष्पक्ष न्यायिक संस्था के पर कतरने के लिए इतनी लालायित है।
दरअसल चार दशक पहले इस टकराव की नींव रखी थी उदारवादी न्यायमूर्ति अहरोन बराक ने। उदारवाद वामपंथ का ही एक रूप है जिसे अंग्रेज़ी में लिबरल या सेकुलर कहते हैं। बराक ने 1975 से 1978 तक इज़रायल के अटॉर्नी जनरल के रूप में सेवाएं दी थी और फिर 1978 से 1995 तक वह सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी रहे थे। इसके बाद 1995 में वह सुप्रीम कोर्ट के अध्यक्ष बने।
उस समय तक इज़रायल का सुप्रीम कोर्ट वास्तव में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका थी जो प्रशासनिक या सरकारी कार्यों में तभी हस्तक्षेप करती थी जब सरकार या कोई सरकारी एजेंसी अपने कानूनी अधिकार से आगे निकल जाती थी। लेकिन बराक ने इज़रायल में ‘सुप्रीम तानाशाही’ स्थापित कर दी। उनकी कोर्ट में कोई भी व्यक्ति किसी भी सरकारी कानून या योजना के खिलाफ याचिका दायर कर सकता था, भले ही उससे वह व्यक्ति सीधे तौर पर प्रभावित न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर लगाम लगाने की शुरुआत की, अफसरों के निलंबन से लेकर उनकी बहाली तक के आदेश पारित करने लगी। लेकिन मामला सिर्फ सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की लड़ाई तक ही सीमित नहीं रहा। उदारवादी सुप्रीम कोर्ट के कुछ उदारवादी फैसलों ने इस लड़ाई को दक्षिणपंथ बनाम सुप्रीम कोर्ट की लड़ाई बना दिया।
साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने इज़रायल में समलैंगिक जोड़ो के विवाह को मंजूरी प्रदान की थी, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। साल 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि इज़रायल सरकार वेस्ट बैंक से सभी यहूदियों को बाहर करें। साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फिलिस्तीनी उग्रवाद शांति वार्ता करने का आदेश दिया।
साल 2005 में ही सुप्रीम कोर्ट ने हथियारों से लैस उग्र अरब प्रदर्शनकारियों से मुकाबला कर रही इजरायली सेना की आलोचना करते हुए आदेश पारित किया कि सेना को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में निर्दोष नागरिकों को मारने की अनुमति नहीं दी सकती। साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि सरकार को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में रहने वाले फिलिस्तीनी लोगों के मानवाधिकारों का सम्मान करना होगा।
2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने इजरायली सरकार को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में रहने वाले फिलिस्तीनी लोगों को इज़रायल में व्यापार करने की अनुमति और सुविधाएं देने का आदेश पारित किया। साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने वेस्ट बैंक में रहने वाले फिलिस्तीनियों को प्रशिक्षित करने कक आदेश दिया। इन सभी फैसलों की खूब आलोचना की गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट के उदारवादी फैसले समाप्त नहीं हुए है।
1988 में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं को भी इज़रायली संसद में चुनाव लड़ने का अधिकार दिया। 1990 और 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने इज़रायली सेना में मुस्लिम महिलाओं की अनिवार्य भर्ती का आदेश सुनाया। वर्ष 2000 में कोर्ट ने निर्णय दिया कि इजरायली सरकार में मुस्लिम महिलाओं को भी उच्च पद पर नियुक्त होने का अधिकार है और साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इज़रायल में मुस्लिम महिलाओं को भी चुनाव लड़ने का अधिकार देने वाला आदेश पारित किया।
कोर्ट के उदारवादी फैसलों की लिस्ट काफी लंबी है लेकिन दक्षिणपंथी राजनीति दलों के प्रति भेदभावपूर्ण फैसलों ने भी सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता को कटघरे में खड़ा किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक कई दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों पर इज़रायल के लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हुए नफरत फैलाने के लिए प्रतिबन्धित किया है जबकि अरब मुस्लिम और फिलिस्तीन समर्थक वामपंथी पार्टियों को अभिव्यक्ति की आजादी के तहत जीवनदान दिया गया।
साल 2023 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फिलिस्तीन समर्थक जेरिको पार्टी पर प्रतिबंध लगाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि उसे सँविधान के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी का आनंद लेने का हक है। इज़रायल सरकार ने आरोप लगाया था कि लेफ्ट विंग पार्टी उग्रवाद को बढ़ावा दे रही है। उदारवादी फैसलों की लिस्ट बेहद लंबी है, न मैं लिख पाऊंगा लेकिन ये अंदाजा मुश्किल नहीं है कि ये लड़ाई बेंजामिन नेतन्याहू की नहीं, इज़रायल की अस्मिता की है।
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