मध्यप्रदेश में आगामी चुनाव के लिए कांग्रेस ने राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी की टीम बनाई है। पिछले 9 वर्षों से केंद्र में सत्ता से दूर रहने के बाद कांग्रेस स्वयं को धीरे-धीरे राज्यों की राजनीति में पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इसी कारण मध्यप्रदेश में रणनीतियों से लेकर नेताओं की टीम द्वारा विजयी समीकरण बैठाने का प्रयास किया गया है। हिमाचल प्रदेश में मिली जीत का श्रेय प्रियंका गांधी और कर्नाटक में राहुल गांधी और खड़गे की भूमिका का मिश्रण कर मध्यप्रदेश जीतने की रणनीति गढ़ी जा रही है। कांग्रेस जीत के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए तैयार है। यही कारण है कि सिर्फ नेता ही नहीं मध्यप्रदेश में चुनावी प्रचार के लिए चुनावी रणनीतिकार सुनील कनुगोलू को ही अपाइंट किया गया है जो भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक चुनाव में अपनी निभा चुके हैं।
कांग्रेस के लिए यह मिश्रित फार्मूला कितना कारगर साबित होगा यह तो चुनाव परिणाम ही बता पायेंगे, फिर भी प्रश्न उठता है कि अगर कांग्रेस विजयी होती है तो जीत का श्रेय किसे मिलेगा?
लगातार मिली हार से हिमाचल से राहुल गांधी को दूर रखा गया था। प्रियंका गांधी की सक्रियता की वजह से हिमाचल की जीत उनके नाम हो गई। कर्नाटक में भारत जोड़ो यात्रा और राहुल गांधी की सक्रियता को जीत का कारण मान लिया गया। अब जब मध्यप्रदेश में दोनों भाई-बहन मैदान में होंगे तो जीत का सेहरा किस के सर बंधेगा? (यहां हारने पर किसे श्रेय मिलेगा प्रश्न नहीं रखा गया है क्योंकि उसके लिए स्थानीय पार्टी प्रबंधक और संभवत ईवीएम मशीन दोषी हो सकते हैं।)
बहरहाल प्रियंका गांधी जून 12, 2023 को जबलपुर से चुनावी रण शुरू कर चुकी हैं जिसकी शुरुआत नर्मदा नदी के किनारे पूजा करने से आरंभ हुई थी। पार्टी पर हिंदू विरोधी होने का ठप्पा धोने के लिए कांग्रेस रणनीतिकारों ने नया रास्ता निकाला है जिसमें पार्टी दक्षिण में सेक्यूलर बन जाती है और उत्तर भारत में चुनावी हिंदू। मध्यप्रदेश में यह आगामी महीनों में और अधिक दिखाई देगा क्योंकि राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हिंदूवादी पहचान के साथ न्यायशीलता और सामाजिक पकड़ के लिए जाने जाते हैं। शिवराज की राजनीति को टक्कर देने के लिए कांग्रेस में एकजुटता की आवश्यकता है। हालांकि प्रियंका और राहुल में यह कब तक बनी रहेगी इसे लेकर संदेह है।
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प्रियंका और राहुल गांधी के बीच सबकुछ ठीक बताने वाले आंखों पर पट्टी बांधकर विश्लेषण करने वाले हैं। जो यह पट्टी आंखों से हटा चुके हैं वो जानते हैं कि गांधी परिवार या कहें कि सोनिया गांधी ने पार्टी के संचालन के भार में भले ही दोनों को शामिल किया हो पर नेतृत्व की डोर तो राहुल गांधी को ही सौंपी है। राहुल गांधी सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहे हैं, चुनाव लड़ चुके हैं। प्रियंका के हिस्से में तो चुनावी रैलियां और डेमेज कंट्रोल ही हाथ आया है। राहुल गांधी के लगातार विफल रहने पर भी सोनिया गांधी ने प्रियंका को कभी मौका नहीं दिया यह भी सत्य है।
हालांकि अब कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रियंका गांधी राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार है। यही वजह है कि वे सिर्फ चुनावों में ही नहीं कई राजनीतिक घटनाओं में उपस्थिति दर्ज करवाती हैं। प्रियंका ने राहुल गांधी की विफलता देखकर अपनी रणनीति में भी बदलाव किया है। वो हाथरस जाने की जिद कर इंदिरा बनने की कोशिश करती है। पहलवान विरोध प्रदर्शन में शामिल होती है। कह सकते हैं राहुल के विपरीत वे मुद्दों से बचती नहीं है बल्कि अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हैं। प्रियंका ने बहुत लंबा इंतजार भी किया है। पद नहीं मिलने पर भी वह कांग्रेस के लिए सक्रिय रही है और इस समय का इस्तेमाल पार्टी में अपने समर्थक जुटाने के लिए किया है यही कारण है कि छ्त्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल प्रियंका धड़े के साथ नजर आते हैं। राहुल गांधी के पास ऐसा कोई पक्ष नहीं है। जो उनके समर्थक हैं वो दरअसल सोनियां गांधी के समर्थक हैं और सोनिया राहुल को आगे ले जाना चाहती है। यह बात गुलाम नबी आजाद ने कही है। कांग्रेस से संबंध विच्छेद करने के बाद आजाद ने एक साक्षात्कार में सोनिया गांधी को प्रियंका को मौका न देने का आरोप लगाया था। वहीं सोनिया के पुत्र प्रेम पर भी गुलाम नबी ने चर्चा कर प्रियंका धड़े में आग लगाने का काम किया था।
प्रश्न तो यह भी है कि जिनका मानना है कि प्रियंका कांग्रेस का ट्रंप कार्ड है या पार्टी को सबसे बड़ा हथियार है तो क्या वे राहुल गांधी को पार्टी के औसत नेता के रूप में देखते हैं?
चुनावी मैदान में छवि महत्वपूर्ण है। राहुल गांधी की छवि में सुधार तो नहीं हो पाया पर वो इसे बदलने में कामयाब जरूर रहे हैं। पहले बौद्धिक तौर पर आलोचना का सामना करने वाले राहुल गांधी अब भारत विरोधी छवि के साथ सामने हैं। प्रियंका गांधी अपनी छवि अलग बनाने में लगी है। ऐसे में मध्यप्रदेश के चुनाव दिलचस्प रहने वाले हैं। प्रियंका गांधी ने चुनावी बिगुल की शुरुआत के लिए वो क्षेत्र चुना है जहां कांग्रेस को अधिक सीटें मिलती आई हैं। सुरक्षित खेलते हुए क्या प्रियंका राहुल गांधी का विकल्प बनने जा रही हैं? मध्यप्रदेश की हार या जीत दोनों भाई-बहन के द्वंद को सार्वजनिक करने में कारगार रहती है तो कांग्रेस अपनी राज्य सरकारों के साथ संगठन स्तर पर भी नेतृत्व के विवाद में फंस सकती है और इन मामलों को सुलझाने में पार्टी कभी सफल नहीं रही है।
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